eklavy - 16 in Hindi Fiction Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | एकलव्य 16

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एकलव्य 16

16एकलव्य का अवसान‘

युद्ध और शान्ति। युद्ध में विनाश है शान्ति में सृजन। युद्ध में वीभत्सता के दर्शन होते हैं, शान्ति में लोक कल्याण की भावना का विस्तार होता है। कभी-कभी शान्ति के लिये भी युद्ध अनिवार्य हो जाता है । एकलव्य उस दिन यही सोच रहे थे ।

उधर कौरव और पाण्डवों के सम्बन्ध में गुप्तचर पुष्पक सूचना भेज रहा था।

कौरव और पाण्डव की ओर से सन्देश वाहकों के द्वारा युद्ध में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण आ चुके थे। सन्देश वाहकों के हाथ आये आमंत्रण की उदासीन और औपचारिक सी भाषा से एकलव्य समझ गया कि हमें दोनों पक्ष महत्वपूर्ण नहीं मान रहे हैं।

एकलव्य ने दोनों ओर के सन्देश वाहकों से कह दिया, हम नीति और न्याय का पक्ष लेना चाहतें हैं लेकिन हमें दोनों ओर इस नीति और न्याय का अभाव ही लग रहा है । हालांकि सम्पूर्ण भारत वर्ष धर्मराज युधिष्ठिर को न्याय प्रिय मान रहा है, लेकिन मेरा मन आज तक उनकी न्यायप्रियता को स्वीकार नहीं कर पाया है। मैं यह भी स्वीकार करता हूँ कुछ सद्पात्रों के चरित्र, जन जीवन को उदात्त बनाने का कार्य करते रहते हैं। रही विकारों की बात, वह तो मानव जाति के धरोहर के रूप में प्राप्त हुये हैं। निर्विकार होना तो मानव जीवन का लक्ष्य है। कौन कितना निर्विकार हो पाता है यह उसके अभ्यास पर निर्भर करता है। देश के सभी राजा, महाराजा युद्ध में भाग ले रहे हों अथवा नहीं, उनका ध्यान इस युद्ध की ओर केन्द्रित रहेगा ही।‘‘

एक दिन वेणु और एकलव्य में पुष्पक की चतुराई को लेकर बातें चलीं। एकलव्य ने कहा, ‘‘महारानी हमें अपने गुप्तचर पुष्पक पर गर्व है।’’

“हाँ निषादराज, वह हमें महाभारत युद्ध की समस्त सूचनायें यहां यथासमय भेजता रहेगा।’’

“महारानी हमारा गुप्तचर इन दिनों महाराजा धृतराष्ट्र के परम प्रिय सेवक संजय के यहां जाकर उनका विश्वास पात्र बन गया हैं।”

“अरे ! आश्चर्य की बात है। वह तो बिलकुल उस जगह बैठ गया है जहां से संपूणर््ा युद्ध का विवरण सुनाई देगा निषादराज हमने सुना है कि व्यास जी की कृपा से संजय को दिव्य दृष्टि प्राप्त हो गई है। अब उससे कोई भी बात छिपा कर रखना सम्भव नहीं है।

“महारानी वे पुष्पक के सम्बन्ध में सब कुछ जानते हैं कि वह हमारा गुप्तचर है और हमसे हस्तिनापुर को कोई अंदेशा भी नहीं है, वे जानते हैं, कि हम अर्जुन के साथ नहीं जा सकते।”

“निषादराज, संजय जी सब कुछ जानतें हैं फिर भी पुष्पक को अपने साथ रहने दे रहे हैं ? यह बात मैं कुछ समझी नहीं।”

“महारानी, पुष्पक ने संजय जी से कोई बात छिपाई नहीं है इसीलिये संजय जी उनसे खुश हो गये हैं और उसे अपने पास रहने दे रहे हैं।”

‘‘निषादराज की सेवा में पुष्पक ने क्या समाचार भेजे हैं। हमें अवगत नहीं करायेंगे।”

“अवगत क्यों नहीं करायेगे ? सुना है इस बीच श्री कृष्ण शान्ति का सन्देश लेकर हस्तिनापुर आ चुके हैं। उन्होंने पाण्डवों के लिये केवल पांच गाँव माँगे थे किन्तु कौरवों ने उन्हें सुई की नोंक के बराबर भूमि देने से इन्कार कर दिया।’

“सुई की नोंक बराबर ! वाह क्या उपमा कही , वैसे देव यह अन्याय है।” महारानी वेणु बोलीं ।

निषादराज ने बात स्पष्टकी- ‘‘...... किन्तु महारानी पाण्डव भी तो दूध के धुले नहीं हैं । उनके अपना तो कोई विवेक है ही नहीं । वे तो श्रीकृष्ण की बुद्धि विवेक से चलित हैं ।’’

वेणु ने मन में उठरही आशंका प्रकट की - ‘‘ स्वामी, पता नहीं क्यों मेरा दिल ...धक्...धक्..धक् कर रहा है । जाने कब क्या हो जावे ?’’

यह सुनकर एकलव्य बोला ‘‘ महारानी तुम्हे हमारी सार्मथ्य पर भरोसा नहीं है । ’’

इस बात पर वेणु झट से बोली ‘‘ स्वामी भरोसा तो है ...... किन्तु कृष्ण कब कैसा निर्णय लेलें ?’’

उत्तर एकलव्य ने दिया ‘‘महारानी, वे मेरा और अपने बडे भाई बलराम का युद्ध देख चुके हैं ।’’

वेणु ने राय दी ‘‘ स्वामी, उस घटना से वे आपसे रुष्ट ही होगें । इसीलिये हमें सोच समझकर चलना चाहिये ।’’

एकलव्य ने उनकी राय स्वीकार कर ली ‘‘ ठीक है,आपका ऐसा परामर्श है तो इस कौरव और पाण्डवों के युद्ध के समन्ध में गुरुदेव की राजधानी अहिच्छत्र जाकर उनसे मिल लेना चाहिये।’’

यह कहते हुये वे अपने अस्त्र शास्त्रों के कक्ष में चले गये । ........ और कुछ देर बाद बाहर आये तो अस्त्र शस्त्रों से पूर्णतः सुसज्जित दिख रहे थे । यह देखकर उनके छोटे पुत्र विजय ने उत्सुकता प्रकट की ‘‘ आज पिताजी अपने अस्त्र- शास्त्र लेकर जाने कहॉं प्रस्थान कर रहे हैं ।’’

‘‘वत्स, कौरव और पाण्डवों में युद्ध ठन ही गया है । बुलावा तो दोनों ओर से हमारा भी आया है, सोच रहा हॅूं एक बार गुरुदेव द्रोणाचार्य से मिल लेना उचित रहेगा ।’’

युवराज पारस ने कक्ष में प्रवेश करते हुये उनकी यह बात सुन ली थी । वह गम्भीर होकर बोला, ‘‘ पिताजी, ऐसे समय में अकेले बिना सेना के गुरुदेव के पास जाना भी खतरे से खाली नहीं है। ’’

एक लव्य ने दोनों पुत्रों को समझाया,‘‘ यदि मैं सेना लेकर गुरुदेव से मिलने गया फिर तो यह निश्चित हो जावेगा कि मैं कोरवों के पक्ष में सम्मिलित होने गुरुदेव से परामर्श करने जा रहा हॅूं, इसीलिये सोचता हॅू कोई निर्णय लेने से पूर्व अकेले ही जाना उचित रहेगा ।’’

विजय ने अपनी राय दी,‘‘जैसा निषादराज उचित समझें, वैसे युद्ध में हमें सम्मलित होना ही है तो हम गुरुदेव के पक्ष में हो ।’’

इस निर्णय के बाद एकलव्य गुरुदेव के पास उनकी राजधानी अहिच्छत्र के लिये निकले । महारानी वेणु ने उनका हर वार की तरह द्वार पर अभिनन्दन किया । वे रथ पर आरुढ हो गये । रथ चल पडा, निषादपुरम के लोग उन्हें जाते हुये देख रहे थे ।’’

रास्ते में एकलव्य को सूचना मिली - श्रीकृष्ण दुःखी मन से हस्तिनापुर से लौट पडे हैं ।

यह जानकर वे सोचने लगे- सम्भव है पथ में उनसे कहीं भेंट हो जाये । मेरे और बलराम के युद्ध के समय एक निमिश के लिये मेरी दृष्टि कृष्ण पर गयी थी, उस दिन वे क्रोध से भरे हुये दिख रहे थे । उनकी ऑखों से अंगारे झर रहे थे । उन्होने मेरे मित्र पौड्रक को निर्दयता से मार डाला था ।

यह सब सोचते हुये एकलव्य अहिच्छत्र की ओर बढते जा रहे थे कि सहसा उन्हे एक सार्थ (काफिला) अपने पदाघात से पथ को रौंदते हुये और धूल के विस्तृत बादलों से वातावरण को धुधला करते हुये आता दिखा । आगे आगे चले आ रहे एक सैनिक ने एकलव्य को रोका-‘‘ठहरो ऽऽ’’

एकलव्य ने हूँकारते हुये पूछा,‘‘क्यों ऽऽऽ ?’’

‘‘ इसलिये की यह द्वारिकाधीश वासुदेव श्रीकृष्ण का सार्थ है, वे हस्निापुर से इन्द्रप्रस्थ लौट रहे हैं ।’’

‘‘तो मैं क्यों रुकूँ ? वे ठहरे । ’’ एकलव्य ने राजसी अन्दाज में सैनिक को डाटा ।

सहमते हुये सैनिक ने पूछा ‘‘ आप कौन है महाशय ?’’

एकलव्य ने गर्दन फुलाते हुये कहा ‘‘ जानते नहीं निषादराज एकलव्य । तुम्हे ज्ञात नहीं कि दो दिन दो रात बलराम से मेरा युद्ध होता रहा । वे मेरे हाथों परास्त होने से बच गये । इस समय तुम्हारे द्धारिकाधीश कहॉं हैं ?’’

सैनिक ने निवेदन किया,‘‘ वे पीछे पीछे आ रहे हैं ।’’

बातें हो रहीं थी कि कृष्ण का रथ आ पहुँचा दोनो महावीर पहली बार आमने सामने थे ।

एकलव्य ने मोरपंखधारी नीलवर्ण सुस्मित हास्य वाले पुष्ट वदन और लम्बी भुजाओं वाले वसुदेव को देखा तो वे ठगे से रह गये- अरे ! तो ये है कौरव पाण्डवों को अपने संकेतो पर नचाने वाला छलिया...........

.........और उधर कृष्ण देख रहे थे अपने ही वर्ण के प्रौढ बय सुगठित शरीर व्याघ्र चर्म से निर्मित वस्त्रों से सुसज्जित, उस अस्त्र शस्त्रधारी वीर को- तो ये है अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर । एकलव्य की गहन गम्भीर आवाज गूॅजी, ‘‘ मुझे निकल जाने दो वासुदेव ऽऽ ।’’

कृष्ण हंसे- ‘‘ मेरे साथ अनेक लोग हैं और मुझे एक बडे राजवंश का गृह कलह मिटाना है ।’’

एकलव्य झुझलाते हुये बोला, ‘‘ सामने देखो वासुदेव, पर्वत की चोटी से आरम्भ हुये इस लम्बे संकीर्ण मार्ग का पूरा हिस्सा पार कर आया हॅूं .............. और तुम अभी इधर की यात्रा आरम्भ कर रहे हो इसलिये तुम ठहरो, निकलने का अधिकार पहले मेरा है ।’’

श्री कृष्ण ने एकलव्य को ललकारा, ‘‘ एकलव्य रास्ते से हठ जाओ अन्यथा ऽऽऽ।’’

एकलव्य कब किसकी ललकार सहन हुई है । उसने भी उसी भाव भूमि मे उत्तर दिया,’’कृष्ण ऽऽ तुम ऽऽ सभीको ऽऽ एक लाठी से हांकने लगे हो । तुम एकलव्य की वीरता को नहीं जानते ? तुमने मेरा और अपने बडे भ्राता बलराम का युद्ध नहीं देखा ऽऽ ।’’

यह कहकर एकलव्य ने हुंकार भरते हुये बांये हाथ से अपना धनुष सम्हाला और दॉंये हाथ से उसपर विषैला तीर चढाकर कृष्ण की ओर छोड दिया । कृष्ण यही चाहते थे उन्होंने दायें हाथ की तर्जनी से सुदर्शन चक्र को उछालकर उस तीर को हवा में ही काटकर धरती पर गिरा दिया । तब तक एकलव्य ने अपना वजनदार और तीखा भाला सिंह की सी फुर्ती से श्री कृष्ण की ओर लक्ष्य साधकर फेंका । जिसे श्री कृष्ण के सारथी ने अपने भाले से ही खण्ड खण्ड कर दिया । आपा खो बैठे एकलव्य ने कुपित होकर अपना खड्ग पूरे वेग से श्री कृष्ण की ओर उछालकर फेंक मारा....... विस्मय यह था कि मोहिनी मुस्कान से श्री कृष्ण ने बढी फुर्ती में उसे हाथ से पकडकर पृथक कर दिया ।......... और बोले,‘‘ एकलव्य तुझे अपनी शक्ति पर बडा अहम हो गया है ।’’

यह कहते हुये उन्होने सुदर्शन चक्र से एकलव्य पर प्रहार किया । कई बाण चलाकर एकलव्य ने चक्र को रोकने का प्रयास किया ।.... लेकिन सारे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हुये । सूर्य सा चमचमाता अग्नि की लपटे सी छोडता विकराल चक्र उसकी ओर बढा चला आ रहा था ।

सहसा एकलव्य हताश हो उठा । चक्र क्षण क्षण उसके निकट आ रहा था ।

उसके रोंगटे खडे हो गये । पसीना पसीना हो गया । अब उसे श्री कृष्ण की अपार सार्मथ का अहसास हुआ ........ और क्षण भर बाद ही एक लव्य का सिर कटकर रथ के पश्चिम भाग में जा गिरा और उसकी रक्त रंजित फडफडाती देह रथ के अग्र भाग में धडाक से गिरी ।

एकलव्य के सारथी ने अपने रथ को निषादपुरम की ओर मोड लिया । उसे आज निषादपुरम योजनों दूर लग रहा था ।

जब यह बात निषादपुरम में ज्ञात हुई तो कोहराम मच गया । निषादपुरम के बच्चे युवा और बुढे श्री कृष्ण से युद्ध करने के लिये धनुष बाण लेकर खडे हो गये ।

एकलव्य की चिता सजा दी गई ।

एकलव्य के दोनों पुत्र युवराज पारस और विजय धनुष वाण लिये उसकी चिता के पास खडे थे ।

मनोहर काका युवराज पारस के पास आकर मौन तोडा, ‘‘ युवराज अपने पिताजी को मुखाग्नि दो । ’’

युवराज पारस ने आगे बढकर मुखाग्नि दी कुछ ही समय में चिता प्रज्ज्वलित हो उठी । सब चौंके, एकलव्य को छोटा पुत्र विजय धनुष पर बाण चढाकर आ पहुँचा । ...... और श्मशान के सन्नाटे को तोडते हुये बोला, ‘‘ मैं ऽ प्रतिज्ञा ऽऽ करता हॅूं कि मैं ऽऽ आज से निषादपुरम को हमेशा हमेशा के लिये छोड रहा हॅूं । अब मैं द्वारिकाधीश से मुकाबला करने के लिये जा रहा हॅूं । जिस प्रकार श्री कृष्ण ने मेरे पिताजी को मार डाला, मैं उसी तरह जब तक श्री कृष्ण को नहीं मार डालूंगा तब तक चैन से नहीं बैठूंगा । जीवन भर इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये अवसर की ताक में रहॅूंगा ।’’

यह कहकर वह वहॉं से जाने के लिये मुडा ।

युवराज पारस ने चिता के पास धनुष पर बाण चढाते हुये प्रतिज्ञा की, ‘‘ विजय मेरी भी प्रतिज्ञा सुनते जाओ, मैं उनका बडा पुत्र होने के कारण निषादपुरम को नहीं छोड पा रहा हॅूं ।........किन्तु विजय तुमने श्री कृष्ण को अपना लक्ष्य बनाया है तो मैं भी अपना लक्ष्य अर्जुन को बनाता हॅूं । उससे पिताजी के अपमान का बदला नहीं ले लुंगा तब तक में भी चैन से नहीं बैंठूंगा पिताजी की चिता पर मैं ऽऽ यह प्रतिज्ञा ऽऽऽ करता हॅूं ऽऽऽ ।’’

निषादपुरम के लोग देख रहे थे, दोनो भाइयो ने वहॉं से हटने से पहले धनुष की टंकार की । विजय तत्क्षण वहॉं से अपने लक्ष्य की ओर चल पडा । पारस दुःखी मन से निषादपुरम लौट आया ।

निषाद जाति की परम्परा के अनुसार युवराज पारस को गद्दी पर बैठाया गया युवराज पारस निषादराज पारस बन गया ।............. और महारानी वेणु को राजमाता के पद से विभूषित किया गया ।

इस अवसर पर कोई कह रहा था, ‘‘ हमें तो सोच यह है कि यदि श्री कृष्ण हमारे निषाराज से लडना था तो उन्हें युद्ध के लिये ललकारते । ’’

कोई दूसरा कह रहा था उनके पास सुदर्शन चक्र एक ऐसा अस्त्र है जिसकी शक्ति का विश्व में कहीं कोई काट नहीं है । इसी कारण वे बोराये फिरते हैं ।’’

वहीं कोई तीसरा कह रहा था, ‘‘ कौरव और पाण्डवों का युद्ध घोष्ति हो चुका है । वे नहीं चाहते होंगे कि निषाराज एकलव्य कौरवों की ओर से भाग लें । हमारे निषादराज अहिच्छत्र अपने गुरुदेव से मिलने जा रहे थे श्री कृष्ण ने सोचा होगा कि ये तो कौरवों की ओर से लडने की तैयारी करने जा रहे हैं । ’’

पहले ने अपनी बात आगे बढाई ‘‘ श्री कृष्ण महावली निशादाज एकलव्य के पराक्रम से परिचित थे । अरे! जिस तरफ हमारे निषादराज होते उसी का पलडा भारी हो जाता ।........ फिर श्री कृष्ण भी पाण्डवों के साथ बने तो भी वे कौरवों का कुछ न बिगाड पाते ।’’

दूसरा बोला ‘‘ हम सब उनके सुदर्शन चक्र से चिंतिंत हैं । .......... किन्तु कौरवों ने उसकी चिन्ता नहीं की और श्री कृष्ण की संधि की बात स्वीकार नहीं की । श्री कृष्ण को इस बात पर, अपने सुदर्शन चक्र से तो कौरवों के सिर काट लेना चाहिये थे । बात ही आगे न बढती ‘‘

तीसरे ने अपना पक्ष रखा ,‘‘ श्री कृष्ण किसी को कुछ समझ ही नहीं रहे हैं । उन्हें जो न्याय लगता है वह न्याय है ............. और उन्हें जो अन्याय लगता है वह अन्याय है । ’’

उसी समय मनोहर काका ने बीच में आकर कहा ‘‘ श्री कृष्ण के सम्बन्ध में हम कुछ न कहें। सुना है उन्हे संजय सी दिव्य दृष्टि प्राप्त है । उन्हें तुम्हारी ये सब बातें पता चल गई होंगी, अब तुम लोग अपनी अपनी खैर मनाओं । ’’

निषादराज पारस ने घोषणा की ‘‘ इस अवसर पर निषादपुरम के वरिष्ठ जन यहॉं उपस्थित हैं । वे सोच विचार कर निर्णय लें कि हमें इस स्थिती में कौरव पाण्डवों के युद्ध में भाग लेना चाहिये या नहीं । ’’

निषादमुनि ने अपना विचार रखा, ‘‘हमारे नये निषादराज अभी युवा हैं । महारानी वेणु महान धनुर्धर तो हैं किन्तु वे नारी होने के कारण युद्ध में भाग नहीं ले सकेंगी । ऐसी स्थिती में हमें युद्ध में भाग नहीं लेना चाहिये । ............... किन्तु अपने पुष्पक को संजय जी के पास रहने देना चाहिये । जिससे युद्ध की सूचनायें मिलती रहेंगी ।’’

मनोहर काका ने खडे होकर कहा,‘‘ हमें इस अवसर पर सचेत रहने की आवश्यकता है । क्या पता कब ये मदमाते लोग हमारे निषादपुरम को रौंद दें।’’

अन्त में सभा इस निष्कर्ष पर पहुँची कि हमें इस महायुद्ध में सक्रिय होकर भाग नहीं लेना चाहिये ।............. और तटस्थ रहना है ।