Peeping faces from bars - 4 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | सलाखों से झाँकते चेहरे - 4

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सलाखों से झाँकते चेहरे - 4

4--

वैसे इशिता का वहाँ आना इतना ज़रूरी भी नहीं था, वह सीरियल की लेखिका थी | इससे पहले कई वर्षों से झाबुआ क्षेत्र पर शोध -कार्य चल रहे थे, उसके पास सूचनाओं का पूरा जख़ीरा था | उसने कामले से कहा भी था कि वह घर बैठे हुए ही लिख सकती है लेकिन कामले का मानना था कि सीरियल का लेखक होने के नाते उसे एक बार प्रदेश की सारी बातों, उनके सारे रहन-सहन, रीति-रिवाज़, भाषा, कार्य-कलाप को जान लेना चाहिए जिससे सीरियल के लेखन में जान आ सके |

अनुभव से लेखन सतही न रहकर समृद्ध होता है, यह तो सत्य ही था |

रात भर की उनींदी इशिता कमरे की खिड़की से झुटपुटे के कमरे में प्रवेश करते ही एकदम चौंककर अपने बिस्तर पर उठकर बैठ गई | तुरंत उसका हाथ अपनी गर्दन पर गया जहाँ उसे गीला सा महसूस हुआ| अपने हाथ पर लाल रंग की जगह पसीने का भीनापन देखकर उसे तसल्ली हुई |

कमरे का दरवाज़ा खोलते ही उसकी दृष्टि सामने किचन में खड़े रैम पर गई जो अपनी चटाई लपेटकर वहीं साइड में रख रहा था और क्षण भर में रैम के चेहरे से फिसलती हुई फिर से किचन के दरवाज़े की दीवार पर ऊपर जा चिपकी और हाथ एक बार फिर अपनी गर्दन पर ! "गुड़ मॉर्निग मैडम ---" रैम चटाई रखकर किचन के बाहर आ गया था |

"गुड़ मॉर्निंग रैम ----"

"रात में नींद आया आपको ---?" उसके स्वर में एक कोमलता थी |

"नहीं रैम .नींद तो नहीं आ सकी ----"

"क्या बात है मैम, समथिंग रॉन्ग ?"

इशिता कुछ नहीं बोली | अभी लगभग छह बजे थे | छुटपुटा धीरे-धीरे बढ़ रहा था | वह जानती थी कि मि.कामले नौ बजे से पहले नहीं उठेंगे | 

"मैडम, कॉफ़ी या चा----?" उसके स्वर में बहुत मिठास थी |

"बाहर बैठ सकते हैं क्या ? बाहर बैठकर चाय पीएँ तो---?" इशिता ने रैम से पूछा |

"जी बिलकुल ---मैं बाहर खुर्सी रख देता -- फिर चा बनाता ---" कल से ही रैम की बोली में इशिता ने इस प्रकार के शब्द नोट किए थे | आख़िर शब्द ही तो उसके असली मित्र थे | वह जहाँ कहीं किसी की बोली में अलग प्रकार के शब्द सुनती, उसका ध्यान तुरत उन पर जाता | प्रत्येक मनुष्य के संवादों में उसकी बोली का प्रभाव बहुत स्वाभाविक रूप से दिखाई दे जाता है |

उसने कोने में खड़ी फोल्डेड कुर्सी निकाली और बाहर बगीचे में चला गया |

"मैडम ! आप बैठिए। मैं चा --बनाकर लाता ---"

"मैं फ्रैश हो जाती हूँ ---ा' वह कमरे में मुड़ते हुए यकायक रुक गई |

"रैम --सुनो, अपने लिए भी चाय बनाकर लाना | दोनों बाहर बैठकर पीएंगे ---"

रैम कुछ झिझका फिर चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कुराहट ओढ़कर बोला ;

"जी ----"

कुछ देर बाद इशिता रैम के साथ बाहर बगीचे में बैठी छोटे से सुंदर बगीचे में चाय पी रही थी | रैम एक स्टूल उठा लाया था, उस पर मस्ती से बैठा उसे अपनी बागबानी दिखा रहा था |

बगीचे में सुंदर फूलों के साथ कई तरह की सब्ज़ियाँ भी लगी हुईं थीं |

रैम ने बाकायदा बेलें चढ़ाने के लिए डंडों के सहारे रस्सी से जाली बना रखी थी | कच्चे-पक्के टमाटर ! झूलती हुई लौकी, तोरी, इठलाती हुई मिर्ची के पौधे जैसे वातावरण में सजीवता भर रहे थे|

"बहुत सुंदर रैम ! ये तुम्हारी मेहनत है सारी ---?"

"जी ---"रैम का चेहरा अपनी प्रशंसा सुनकर खिल उठा |

बगीचे के बाहर छोटा सा बाँसों का सुंदर गेट भी बना हुआ था | रैम ने बताया कि वह भी उसने बनाया है | अच्छा कलाकार था रैम ! अब खुल भी गया था उससे---पता नहीं कहाँ-कहाँ की बातें सुनाने लगा |

गेट के बाहर थोड़ी दूर पर ही कुछ खुदाई का काम चल रहा था | सुबह-सुबह मर्दों, औरतों के साथ उनके बच्चे भी लटके हुए आ गए थे | पेड़ों के नीचे औरत-मर्द मिलकर अपने गोदी के बच्चे के लिए पुराने कपड़े का झूला बाँध रहे थे| छोटे बच्चे मिट्टी के ढेर पर चढ़कर गोला बनाकर पेशाब करते हुए खिलखिला रहे थे | जिन्हें देखकर इशिता के चेहरे पर मुस्कान की रेखा खिल आई |

"मालूम है मैडम, ये बच्चे बहुत बदमाश हैं--बंसी भाई इनसे बहुत चिढ़ते हैं और ये लोग उनको भौत ही चिढ़ाते हैं ---"

"अच्छा ! क्या करते हैं ? "

"वो जब भी यहाँ आते हैं न, उनकी गाड़ी के टायरों पर पेशाब करके भाग जाते हैं ---" रैम खिलखिलाने लगा | इशिता भी अब काफ़ी नॉर्मल हो गई थी | उसके चेहरे पर भी मुस्कान थिरक उठी |

"मैडम ! एक कप चा ---और ले आऊँ ---?"इशिता ने देखा, अभी पौने आठ बजे थे, उसने हाँ में सिर हिलाया ;

"अपने लिए भी ले आना ----"

थोड़ी देर में रैम चाय और बिस्किट ले आया था |

"सर ने बताया था, आप खाली चा नईं पीता ---मैं बूल ही गया ---सॉरी मैडम ---"इशिता मुस्कुरा दी | रैम अंदर से एक छोटी तिपाई भी ले आया था, उस पर उसने चाय और बिस्किट का डिब्बा भी रख दिया | पहले की तरह ही वह इशिता के सामने स्टूल पर मुस्कुराते हुए बैठा था |

वैसे बड़ा सलीके वाला लड़का था रैम, उसकी भाषा कभी बहुत सुथरी हुई लगती तो कभी उसमें स्थानीय शब्दों की भरमार हो जाती | इतनी सी देर में इशिता की उससे ऎसी दोस्ती हो गई जैसे न जाने कितने वर्षों से जान-पहचान हो |