हमारे शास्त्रों में गुरु की महिमा का प्रसंग वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है। परंतु हम उसी संत को गुरु की श्रेणी में रख सकते हैं जो मनुष्य में सत्य मार्ग पर चलने की सच्ची प्रेरणा उत्पन्न कर सकता हो। जो, शिष्य के ज्ञान के अंधकार को हरकर, ज्ञान की दिव्य ज्योति प्रदान कर सकता हो और भगवत प्राप्ति के पावन पथ पर अग्रसर होने की सामर्थ उत्पन्न कर सकता हो। परंतु भौतिक युग में ऐसे गुरुओं का मिलना न केवल कठिन अपितु असंभव प्रतीत होता है। गुरुओं के रूप में समाज में उपस्थित वंचक गुरुओं द्वारा भोली भाली जनता को ठगे जाने की संभावनाएं बहुत प्रबल हो जाती है। अतः निरापद मार्ग का अनुसरण कर वंचक गुरुओं के मायाजाल से बचा जा सकता है। यहां निरापद मार्ग का सीधा अभिप्राय यह है कि हमें परमपिता परमेश्वर को ही अपने गुरु के रुप में वरण कर लेना चाहिए। हमारे महापुरुषों ने कहा है,
“कृष्णं वंदे जगतगुरुम्”
अर्थात भगवान श्री कृष्ण की वंदना जगत गुरु के रुप में की जाती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी हनुमान चालीसा में हनुमान जी महाराज को ही गुरु रूप में वर्णित किया है।
जै जै जै हनुमान गोसाईं । कृपा करेहु गुरुदेव की नाई।।
इसी प्रकार संतों ने भगवान शिव को प्रथम गुरु के रुप में स्वीकार्य किया है। संतों का अनुसरण करते हुए, हम आपको भी जिस देव में श्रद्धा टिकती हो उसे ही मानसिक रूप से गुरु के रुप में वरण कर लेना चाहिए। इसके साथ ही वेदों, उपनिषदों व महापुरुषों की पुस्तकों के स्रोतों से ज्ञानार्जन की प्रक्रिया अपनानी चाहिए। पुस्तकों के माध्यम से संत महात्माओं के साथ किया गया सत्संग चिरस्थाई होता है। ऐसे सत्संग से प्राप्त संत महात्माओं की जीवन की कल्याणकारी बातों को हमें अपने जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए। यह सत्संग हमारे चरित्र को कहीं अधिक प्रभावी ढंग से संत महात्माओं के रूप में स्थापित करने में सफल हो सकता है।
सत्संग की तो बड़ी महिमा है परंतु सत्संग में सन्निकटता की आवश्यकता नहीं है। यथासंभव दूरी बना कर भी सत्संग का सुख प्राप्त किया जा सकता है। ऐसा कर वंचक गुरुओं के दृष्टि दोष से बचकर कल्याणकारी दृष्टिकोण को सफलतापूर्वक आत्मसात किया जा सकता है।
स्वाध्याय वह विधि है, जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्ति एवं जीवन की विसंगतियों व समस्याओं को दूर करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। दिनचर्या में एक निश्चित समय स्वाध्याय को अवश्य दिया जाना चाहिए। जिससे मनुष्य को सत्य साहित्य के अध्ययन का लाभ मिलेगा।
ज्ञान के अभाव में मनुष्य की स्थिति एक दृष्टिहीन व्यक्ति के जैसी हो जाती है। वह व्यक्ति संसार में रहकर भी समस्त ज्ञान भंडार से दूर हो जाता है। संसार के सारे दुख अज्ञान और आशक्ति से ही पैदा होते हैं। अज्ञानी व्यक्ति पाप प्रलोभनों में पड़कर व्यसन के गर्त में गिर जाता है। व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक दुखों को ज्ञान के द्वारा ही नष्ट किया जा सकता है। अर्थात भौतिक जीवन की सफलता एवं आध्यात्मिक जीवन की पूर्णता के लिए ज्ञान के सोपान का प्राप्त होना परम आवश्यक है।
अनेकों लोग किसी को धारा-प्रवाह बोलते एवं भाषण देते देखकर मंत्रमुग्ध जैसे हो जाते हैं और वक्ता के ज्ञान एवं प्रतिभा की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगते हैं। कभी-कभी यह भी मान लेते हैं कि इस व्यक्ति पर माता सरस्वती की प्रत्यक्ष कृपा है। उसके ज्ञान के पट खुल गए हैं, तभी तो ज्ञान का अविरल स्रोत इनके मुख से शब्दों के रूप में अविरल बहता चला जा रहा है।
श्रोताओं का इस प्रकार आश्चर्य चकित हो जाना अस्वाभाविक भी नहीं है। सफल वक्ता अथवा समर्थ लेखक जिस विषय को ले लेते हैं, उस पर घण्टों बोलते या लिखते चले जाते हैं, और यह प्रमाणित कर देते हैं कि उनका अमुक विषय पर ज्ञान अपरिमित है। यह कोई मंत्र सिद्धि का परिणाम नहीं है। यह सारा चमत्कार उनके उस स्वाध्याय का सुफल होता है, जिसे वे किसी दिन भी, किसी अवस्था में नहीं छोड़ते। उनके जीवन का कदाचित ही कोई ऐसा अभागा दिन जाता होगा, जिसमें वे मनोयोगपूर्वक घण्टों स्वाध्याय न करते हों। स्वाध्याय उनके जीवन का एक अंग और प्रतिदिन की अनिवार्य आवश्यकता बन जाता है। जिस दिन वे अपनी इस आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाते, उस दिन वे अपने तन-मन और आत्मा में एक भूख, एक रिक्तता का कष्ट अनुभव किया करते हैं।
यदि हम सिख पंथ के पथ प्रदर्शक गुरु नानक देव महाराज की बात करें तो हम पाते हैं कि उन्होंने अपने आप को परमात्मा के समक्ष पूर्ण समर्पित कर रखा था। उन्हीं के शब्दों में
नानकु एकु कहै अरदासि। जीउ पिंड सभु तेरै पासि।।
जब ऐसे महान व्यक्तित्व तक परमपिता परमेश्वर के शरण में रहकर मानवता की रक्षा के लिए प्रयासरत रह सकते हैं। तो सामान्य व्यक्ति द्वारा ईश्वर को अपना आध्यात्मिक गुरु स्वीकार्य करने में क्या कठिनाई हो सकती है।
महाभारत में भीष्म पितामह ने भी स्वाध्याय को ही मनुष्य का सर्वोच्च धर्म माना है। पशु व मानव योनि के वैज्ञानिक वर्गीकरण के अनुसार ज्ञान ही ऐसा गुण है, जो मनुष्य को पशु योनि से अलग खड़ा कर देता है। यह ज्ञान ही है जिसके अभाव में मनुष्य पशुवत् व्यवहार करना प्रारंभ कर देता है। जिस प्रकार स्थूल शरीर के पोषण के लिए पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार मानसिक विकास व प्रगति के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। अज्ञानता व्यक्ति के मानसिक विकास को विकृत कर देता है। अंततः मानसिक विकृति, व्यक्ति के चारित्रिक व आध्यात्मिक प्रगति को बाधित कर देती है। व्यक्ति एक संकीर्ण परिवेश में विचरण करने के लिए बाध्य हो जाता है।
धार्मिक अथवा आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई व्यक्ति नित्य पूजा अर्चना करता है, आसन लगाता है, जाप व कीर्तन में मग्न रहता है, व्रत-उपवास व दान-दक्षिणा देता है, किन्तु शास्त्रों अथवा सद्ग्रन्थों का अध्ययन और विचारों का चिन्तन-मनन नहीं करता है। वह सोच लेता है कि जब मैं इतना जाप तप करता हूँ तो इसके बाद अध्ययन की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। आत्म-ज्ञान अथवा परमात्म अनुभूति करा देने के लिए इतना ही पर्याप्त है तो निश्चय ही वह भ्रम में है।
केवल स्वाध्याय ही वह विधि है जो व्यक्ति को जीवन का वास्तविक दर्शन कराती है। व्यक्ति को अहंकार से बचाती है। जीवन का लक्ष्य प्राप्त करती है। लोक व्यवहार सिखाती है और मस्तिष्क की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है। इसलिए तल्लीनता पूर्वक स्वाध्याय करना चाहिए। हल्के स्तर की पुस्तकों को पढ़ने से बचना चाहिए। ऐसी पुस्तकें व्यक्ति के मस्तिष्क की ग्रहण क्षमता को कमजोर कर देती है।
चारित्रिक उज्ज्वलता, स्वाध्याय का एक साधारण और मनोवैज्ञानिक फल है। सद्ग्रन्थों के निरन्तर अध्ययन एवं मनन से संस्कारों की स्थापना होती हैं, जिससे व्यक्ति का चित्त अपने आप दुष्कृत्यों से विमुख हो जाता है। स्वाध्यायी व्यक्ति पर कुसंग का भी प्रभाव नहीं पड़ने पाता, इसका एक वैज्ञानिक कारण है। स्वाध्याय, व्यक्ति के हृदय को सकारात्मकता के विद्युत चुंबकीय तरंगों से ओतप्रोत कर उसके चारों ओर एक ऐसा अभेद्य आवरण उत्पन्न कर देता है जिसे आसुरी शक्तियां भेद नहीं पाती है, और स्वाध्यायी व्यक्ति विकृत सोच के व्यक्तियों के संपर्क में आने से बच जाता है। जिसकी स्वाध्याय में रुचि है और जो उसको जीवन का एक ध्येय मानता है, वह आवश्यकताओं से निवृत्त होकर अपना सारा समय स्वाध्याय में लगाता है। उसके पास कोई फालतू समय ही नहीं रहता, जिससे वह दूषित वातावरण से अवांछनीय तत्व ग्रहण कर लाये।
स्वाध्याय जीवन विकास के लिये एक अनिवार्य आवश्यकता है, जिसे हर व्यक्ति को पूरी करना चाहिये। अनेक लोग परिस्थितिवश अथवा प्रारम्भिक प्रमादवश पढ़-लिख नहीं पाते और जब आगे चल कर उन्हें शिक्षा और स्वाध्याय के महत्व का ज्ञान होता है, तब हाथ मल-मल कर पछताते रहते है। स्वाध्याय से जहाँ संचित ज्ञान सुरक्षित रहता है, वहीं उस कोष में नवीन वृद्धि भी होती रहती है। स्वाध्याय से विरत हो होकर जीने वाला व्यक्ति अपने ज्ञान रूपी पूंजी को सदा के लिए खो बैठता है।
अंत में परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि वह हमें भावी जीवन में स्वाध्याय द्वारा अपनी योग्यता बढ़ाने में मदद करें।
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