Utsuk kavy kunj - 6 in Hindi Poems by Ramgopal Bhavuk Gwaaliyar books and stories PDF | उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज - 6

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज - 6

उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज 6

कवि

नरेन्‍द्र उत्‍सुक

प्रधान सम्‍पादक – रामगोपाल भावुक

सम्‍पादक – वेदराम प्रजापति मनमस्‍त, धीरेन्‍द्र गहलोत धीर,

ओमप्रकाश सेन आजाद

सम्‍पादकीय

नरेन्‍द्र उत्‍सुक एक ऐसे व्‍यक्तित्‍व का नाम है जिसे जीवन भर अदृश्‍य सत्‍ता से साक्षात्‍कार होता रहा। परमहंस सन्‍तों की जिन पर अपार कृपा रही।

सोमवती 7 सितम्‍बर 1994 को मैं भावुक मस्‍तराम गौरीशंकर बाबा के दर्शन के लिये व्‍याकुलता के साथ चित्रकूट में कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा करता रहा। जब वापस आया डॉ. राधेश्‍याम गुप्‍त का निधन हो गया। श्‍मशान जाना पड़ा। उत्‍सुक जी भी श्‍मशान आये थे। वहां मुझे देखते ही कहने लगे ‘’आप गौरी बाबा के दर्शन के लिये तड़पते रहते हो मुझे सोमवती के दिन शाम को पांच बजे जब मैं बाजार से साइकिल से लौट रहा था, बाबा बीच सड़क पर सामने से आते दिखे। उनके दर्शन पाकर मैं भाव विभोर हो गया। साइकिल से उतरने में निगाह नीचे चली गई, देखा बाबा अदृश्‍य हो गये हैं।

उस दिन के बाद इस जनवादी कवि के लेखन में धार्मिक रचनायें प्रस्‍फुटित हो गईं थीं। ‘’उत्‍सुक’’ की कवितायें सामाजिक राजनैतिक विद्रूपता का बोलता आईना है। वर्तमान परिवेश की नासूर बनती इस व्‍यवस्‍था की शल्‍य क्रिया करने में भी कविवर नरेन्‍द्र उत्‍सुक की रचनायें पूर्णतया सफल सिद्ध प्रतीत होती हैं। कवितायें लिखना ही उनकी दैनिक पूजा बन गई थी। इस क्रम में उनकी रचनाओं में पुनरावृत्ति दोष का प्रवेश स्‍वाभाविक था।

प्रिय भाई हरीशंकर स्‍वामी की प्रेरणा से एवं उत्‍सुक जी के सहयोग से गौरीशंकर सत्‍संग की स्‍थापना हो गई। धीरे-धीरे सत्‍संग पल्‍लवित होने लगा। आरती में चार आठ आने चढ़ने से क्षेत्र की धार्मिक पुस्‍तकों के प्रकाशन की भी स्‍थापना हो गई।

इन्‍ही दिनों उत्‍सुक जी के साथ बद्रीनाथ यात्रा का संयोग बन गया। सम्‍पूर्ण यात्रा में वे खोये-खोये से बने रहे। लगता रहा- कहीं कुछ खोज रहे हैं। इसी यात्रा में मैंने उनके समक्ष प्रस्‍ताव रखा – ‘सत्‍संग में इतनी निधि हो गई है कि आपकी किसी एक पुस्‍तक का प्रकाशन किया जा सकता है। यह सुनकर वे कहने लगे – मित्र आपके पास पिछोर के परमहंस कन्‍हरदास जी की पाण्‍डुलिपि कन्‍हर पदमाल रखी है पहले उसका प्रकाशन करायें। उनके इस परामर्श से ‘कन्‍हर पदमाल’ का प्रकाशन हो गया है।

समय की गति से वे दुनिया छोड़कर चले गये। उनकी स्‍म़ृतियां पीछा करती रहीं। आज सभी मित्रों के सहयोग से उनके ‘काव्‍य कुन्‍ज’ का बानगी के रूप में प्रकाशन किया जा रहा है। जिसमें उनके गीत, गजलें, दोहे, मुक्‍तक एवं क्षतिणकाऐं समाहित किये गये हैं।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी की जीवन संगिनी श्रीमती दया कुमारी ‘उत्‍सुक’ ने उनके सृजन काल में उनके साथ रहकर एक सच्‍ची सह धर्मिणी और कर्तव्‍य परायणता का निर्वाह करते हुये स्‍तुत्‍य कार्य किया है।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी की जीवन संगिनी श्रीमती दया कुमारी ‘उत्‍सुक’ ने उनके सृजन काल में उनके साथ रहकर एक सच्‍ची सह धर्मिणी और कर्तव्‍य परायणता का निर्वाह करते हुये स्‍तुत्‍य कार्य किया है।

गौरीशंकर बाबा की कृपा से डॉ. सतीश सक्‍सेना ‘शून्‍य’ एवं इ. अनिल शर्मा का सत्‍संग के इस पंचम पुष्‍प के प्रकाशन में विशेष सहयोग प्राप्‍त हुआ है। इसके लिये यह समिति उनकी आभारी रहेगी।

सुधी पाठकों के समक्ष स्‍व. नरेन्‍द्र उत्‍सुक का यह ‘काव्‍य कुन्‍ज‘ श्रद्धान्‍जलि के रूप में सार्थक सिद्ध होगा। पाठकीय प्रतिक्रिया की आशा में---

दिनांक -10-02-2021

रामगोपाल भावुक

जिन्‍दगी करती है जिसकी बन्‍दगी।।

कौन मुंह का

कौन मुंह का छीन लेना पाप है।

दूसरों को दर्द देना पाप है।।

भटकती दर-दर गरीबी दोस्‍तो।

खून उसका चूस लेना पाप है।।

तड़पती है भूख से मजबूरियां।

आपका गोदाम भरना पाप है।।

देना रिश्‍वत का बुरा, लेना बुरा।

जानकर भी घूस खाना पाप है।।

काम जाली हैं बुरे, ‘उत्‍सुक’ सभी।

जानकर भी उन्‍हें करना पाप है।।

एक से हैं जिस्‍म

काटता इंसान अपनी, जिंदगी ईमान की।

एक हैं मजहब जहां, धरती वो हिन्‍दुस्‍तान की।।

कौम कोई भी न क्‍यों हो, परस्‍पर मिलते गले।

कद्र होती है जहां पर, सिर्फ एक इंसान की।।

मस्जिदें गिरजे जहां, शान से मंदिर खड़े।

एक से हैं जिस्‍म, रूहें एक सीं इंसान की।।

पार्थ को गीता सुनाई, कृष्‍ण ने जिस भूमि पर।

बात ही कुछ और है, कुरूक्षेत्र के मैदान की।।

बिस्मिल, भगत, शेखर ने, सींचा खून से ‘उत्‍सुक’ इसे।

हिन्‍द की माटी पे जां, अश्‍फाक के कुरबान की।।

सबका हिन्‍दुस्तान

हिल-मिल रहते सभी यहां पर, है सबका सम्‍मान।

हिन्‍दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, स‍बका हिन्‍दुस्‍तान।।

भेद-भाव की दीवारें जो, बना रहे गद्दार हैं।

काला मुंह कर देंगे, उनका, जन-जन का ऐलान।।

हिन्‍द न बंट सकता है हरगिज, लाख जतन कर लो।

माटी है माथे का चंदन, भारत का ईमान।।

खून बहाया यहां सभी ने, एक साथ कुरबान हुये।

साथ-साथ खेलें और खायें हैं, सबका अरमान।।

मानवता ही धर्म यहां ‘उत्‍सुक’ हर इस कौम का।

एक रहे हैं एक रहेंगे, है यह हिन्‍दुस्‍तान।।

दस्‍तावेज बनती है गजल

बहकता है मन शब्‍द निकलती है गजल।

एक दस्‍तावेज सी बनती है गजल।।

गहराईयों में डूबती संवेदना।।

फिर हिमालय सी पिघलती है गजल।।

अक्षरों को आंसुओं से सींचकर।

जिन्‍दगी का स्‍वप्‍न बनती है गजल।।

यह दिलों की है दास्‍तां दर्द की।

शूल सी चुभती और ढलती है गजल।।

यह है दरिया इल्‍म का ‘उत्‍सुक’ यहां।

चेतना की धार पर चलती है गजल।।

खोल उर के द्वार

प्रेम के घूंट पी मन में मगन हो।

असंभव कुछ भी नहीं यदि लगन हो।।

खोल उर के द्वार आने दे हवा।

सच्‍चाई का हो पंथ-चिन्‍तन मनन हो।।

आचरण की गंध से महके चमन।

शांति का हो पाठ घर-घर हवन हो।।

’उत्‍सुक’ मिलाओ हाथ अपना वक्‍त से।

पाठ गीता का करो मन चमन हो।।

हमसफर की तरह

आमदी हो रहो, आमदी की तरह।

उम्र को काट लो, हम सफर की तरह।।

वक्‍त से मत, बकावत यहां कीजिये।

कर्म को कीजिये, कर्म ही की तरह।।

प्रेम बांटो मिले शांति, मन को तभी।

जिंदगी की जियो, जिंदगी की तरह।।

मत करो ईर्ष्‍या द्वेष, आपस में तुम।

हंस हो तो चुनो मोतियों की तरह।।

’उत्‍सुक’ क्रोध, अपयश का पर्याय है।

शांति से रहो, साधुमन की तरह।।

प्रेम की टकसाल में जो है ढले

भाषा तराशकर, बनाई है गजल।

जी तोड़कर इसमें, लगाई है अकल।।

अक्षर महकने लग गये हैं बज्‍म में।

अक्षरों की कैसी, बनाई है शकल।।

प्रेम की टकसाल में, जो हैं ढले।

वे शब्‍द चुन-चुनकर, बनाई है गजल।।

खुद-व-खुद जिसमें दिखाई दे शकल।

आयना ऐसा, बनाई है गजल।।

’उत्‍सुक’ पसीना, पसीना हो गया।

बंजर जमीन में, उगाई है गजल।।

दमके प्रभू गणतंत्र हमारा

प्रेम परस्‍पर बढ़े हमारी, अभिलाषायें हैं।

जुड़े एक ही सूत्र हृदय की अभिलाषायें हैं।।

बुद्ध प्रेरणा, गांधी चिन्‍तन, महावीर उपदेश।

सत्‍य, अहिंसा, मनुष्‍यता, की अभिलाषायें हैं।।

जगमग-जगमग दमके प्रभु गणतंत्र हमारा।

हर भारतवासी की ऐसी अभिलाषायें हैं।।

राम राज्‍य बापू का सपना, पूरा हो जावे।

कर्म-धर्म गीता सम्‍बल की अभिलाषायें हैं।।

’उत्‍सुक’ एक रहें आपस में, मानवता आवे।

बहे प्रेम की गंग, हमारी अभिलाषायें हैं।।