Utsuk kavy kunj - 3 in Hindi Poems by Ramgopal Bhavuk Gwaaliyar books and stories PDF | उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज - 3

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उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज - 3

उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज 3

कवि

नरेन्‍द्र उत्‍सुक

प्रधान सम्‍पादक – रामगोपाल भावुक

सम्‍पादक – वेदराम प्रजापति मनमस्‍त, धीरेन्‍द्र गहलोत धीर,

ओमप्रकाश सेन आजाद

सम्‍पादकीय

नरेन्‍द्र उत्‍सुक एक ऐसे व्‍यक्तित्‍व का नाम है जिसे जीवन भर अदृश्‍य सत्‍ता से साक्षात्‍कार होता रहा। परमहंस सन्‍तों की जिन पर अपार कृपा रही।

सोमवती 7 सितम्‍बर 1994 को मैं भावुक मस्‍तराम गौरीशंकर बाबा के दर्शन के लिये व्‍याकुलता के साथ चित्रकूट में कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा करता रहा। जब वापस आया डॉ. राधेश्‍याम गुप्‍त का निधन हो गया। श्‍मशान जाना पड़ा। उत्‍सुक जी भी श्‍मशान आये थे। वहां मुझे देखते ही कहने लगे ‘’आप गौरी बाबा के दर्शन के लिये तड़पते रहते हो मुझे सोमवती के दिन शाम को पांच बजे जब मैं बाजार से साइकिल से लौट रहा था, बाबा बीच सड़क पर सामने से आते दिखे। उनके दर्शन पाकर मैं भाव विभोर हो गया। साइकिल से उतरने में निगाह नीचे चली गई, देखा बाबा अदृश्‍य हो गये हैं।

उस दिन के बाद इस जनवादी कवि के लेखन में धार्मिक रचनायें प्रस्‍फुटित हो गईं थीं। ‘’उत्‍सुक’’ की कवितायें सामाजिक राजनैतिक विद्रूपता का बोलता आईना है। वर्तमान परिवेश की नासूर बनती इस व्‍यवस्‍था की शल्‍य क्रिया करने में भी कविवर नरेन्‍द्र उत्‍सुक की रचनायें पूर्णतया सफल सिद्ध प्रतीत होती हैं। कवितायें लिखना ही उनकी दैनिक पूजा बन गई थी। इस क्रम में उनकी रचनाओं में पुनरावृत्ति दोष का प्रवेश स्‍वाभाविक था।

प्रिय भाई हरीशंकर स्‍वामी की प्रेरणा से एवं उत्‍सुक जी के सहयोग से गौरीशंकर सत्‍संग की स्‍थापना हो गई। धीरे-धीरे सत्‍संग पल्‍लवित होने लगा। आरती में चार आठ आने चढ़ने से क्षेत्र की धार्मिक पुस्‍तकों के प्रकाशन की भी स्‍थापना हो गई।

इन्‍ही दिनों उत्‍सुक जी के साथ बद्रीनाथ यात्रा का संयोग बन गया। सम्‍पूर्ण यात्रा में वे खोये-खोये से बने रहे। लगता रहा- कहीं कुछ खोज रहे हैं। इसी यात्रा में मैंने उनके समक्ष प्रस्‍ताव रखा – ‘सत्‍संग में इतनी निधि हो गई है कि आपकी किसी एक पुस्‍तक का प्रकाशन किया जा सकता है। यह सुनकर वे कहने लगे – मित्र आपके पास पिछोर के परमहंस कन्‍हरदास जी की पाण्‍डुलिपि कन्‍हर पदमाल रखी है पहले उसका प्रकाशन करायें। उनके इस परामर्श से ‘कन्‍हर पदमाल’ का प्रकाशन हो गया है।

समय की गति से वे दुनिया छोड़कर चले गये। उनकी स्‍म़ृतियां पीछा करती रहीं। आज सभी मित्रों के सहयोग से उनके ‘काव्‍य कुन्‍ज’ का बानगी के रूप में प्रकाशन किया जा रहा है। जिसमें उनके गीत, गजलें, दोहे, मुक्‍तक एवं क्षतिणकाऐं समाहित किये गये हैं।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी की जीवन संगिनी श्रीमती दया कुमारी ‘उत्‍सुक’ ने उनके सृजन काल में उनके साथ रहकर एक सच्‍ची सह धर्मिणी और कर्तव्‍य परायणता का निर्वाह करते हुये स्‍तुत्‍य कार्य किया है।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी की जीवन संगिनी श्रीमती दया कुमारी ‘उत्‍सुक’ ने उनके सृजन काल में उनके साथ रहकर एक सच्‍ची सह धर्मिणी और कर्तव्‍य परायणता का निर्वाह करते हुये स्‍तुत्‍य कार्य किया है।

गौरीशंकर बाबा की कृपा से डॉ. सतीश सक्‍सेना ‘शून्‍य’ एवं इ. अनिल शर्मा का सत्‍संग के इस पंचम पुष्‍प के प्रकाशन में विशेष सहयोग प्राप्‍त हुआ है। इसके लिये यह समिति उनकी आभारी रहेगी।

सुधी पाठकों के समक्ष स्‍व. नरेन्‍द्र उत्‍सुक का यह ‘काव्‍य कुन्‍ज‘ श्रद्धान्‍जलि के रूप में सार्थक सिद्ध होगा। पाठकीय प्रतिक्रिया की आशा में---

दिनांक -10-02-2021

रामगोपाल भावुक

मेरी है हसरत मित्रों

श्रम साधना रत्‍ती-रत्‍ती, मेरी है वसीयत मित्रो।

सृजन व्‍यर्थ न मेरा जाये, मेरी है हसरत मित्रो।।

शब्‍द पिरोये बड़े जतन से, हृदय उड़ेला है इनमें।

जीवन की सचमुच यह पूजा, मेरी है अस्‍मत मित्रो।।

छन्‍द आत्‍मा का दर्शन है, मुक्‍तक गीत हैं प्राण मेरे।

गजल गीतिका दर्द हृदय का, मेरी है किस्‍मत मित्रो।।

परिवार में नहीं किसी को, अनुराग कविताओं से।

जिम्‍मेदारी दे पुत्रों को, इनको रखो सुरक्षित मित्रो।।

भावुक, राय, अनिल चहवरिया का उर से आभारी हूं।

’उत्‍सुक’ उर मनमस्‍त समाये तुम से हूं सहमत मित्रो।।

तुम्‍हारा अभिनंदन है

उर करता शत-शत वन्‍दन है।

कलम तुम्‍हारा अभिनन्‍दन है।।

दुख-सुख में तुम साथ रही हो।

हृदय तुम्‍हें कर रहा नमन है।।

आंसू तुमने दिये न बहने।

अनुकम्‍पा इतना चिन्‍तन है।।

बिना कलम के निर्धन है कवि।

कलमकार का तू ही धन है।।

’उत्‍सुक’ सरस्‍वती अनुकम्‍पा।

मेरे दिल की हर धड़कन है।।

कविता तू है जीवन मेरा

कविता तू है जीवन मेरा।

चिरजीवी है यौवन तेरा।।

नहीं थकावट होती अनुभव।

एक तू ही है दर्शन मेरा।।

गर्व सदा तुझ पर है मुझको।

जैसे तू है चन्‍दन मेरा।

तू सहचरी जिंदगी मेरी।

ऋणी हृदय से तन मन मेरा।।

’उत्‍सुक’ की उत्‍सुकता तू है।

तू ही जीवन दर्पण मेरा।।

देश रहा झकझोर थामिये

हिंसायें चहुंओर थामिये।

व्‍याभिचारों का शोर थामिये।।

छीना झपटी, नंगे पन का।

लूट मार का जोर थामिये।

आदत रिश्‍वतखोर हो गई।

घूस चले घनघोर थामिये।।

जनसंख्‍या विस्‍फोट हो रहा।

देश रहा झकझोर थामिये।।

‘उत्‍सुक’ क्रोध में हम बौराये।

उठते कदम कठोर थामिये।।

जग सुधरेगा भीतर देखो

बाहर क्‍या भीतर देखा।

अवगुण अपने भीतर देखो।।

झांक रहे दामन औरों का।

कालिख खुद में भीतर देखा।

मंडराता है स्‍वार्थ शीष पर।

कपट भरा भीतर देखो।।

जीवित होकर भी मुरदा हो।

कर विचार कुछ भीतर देखो।।

प्रथम स्‍वयं सुधरों ‘’उत्‍सुक’’

जग सुधरेगा भीतर देखो।।

सिसकते हैं इस तरह

पानी बिना मीन तड़पती, है इस तरह।।

तमाम सिर कटी सी, लाशें हैं इस तरह।

रिश्‍तों में ही रिसाव, होने लगा जनाब।

अपनों की भावना बदली है इस तरह।

सांप ही सांप हैं, आस्‍तीनों में श्रीमंत।

गिर गई है जिन्‍दगी इन्‍सानियत से इस तरह।।

जमील कब्रिस्‍तान में, दफन सा कर दिया।

आदमी सड़कों पर उतर, आया है इस तरह।।

’उत्‍सुक’ मजबूर इतने, कैसे करें बयां।

मुफलिसी पर अपनी, सिसकते हैं इस तरह।।

विजय करे वंदन तेरा

काम क्रोध मद लोभ अश्‍व हैं, मन पार्थ रथ तन तेरा।

मधुसूदन सारथी तुम्‍हारे, कुरूक्षेत्र पथ मन तेरा।।

शोकाकुल किसलिये हो रहा, असमंजस में कैसा है।

तू है किसका कौन तुम्‍हारा, क्षण भंगुर ये धन तेरा।।

कर्तव्‍य कर पार्थ न हट तू, कायरता मत दिखा यहां।

जीवन है संग्राम जगत में, न्‍याय युद्ध जीवन तेरा।।

झूठे हैं- सम्‍बन्‍ध जगत के, इनमें ममता मोह न रख।

मानवता ही धर्म तुम्‍हारा और कर्म है प्रन तेरा।।

’उत्‍सुक’ पावन गीता सन्‍मुख, खुलें हृदय के द्वार सहज।

धर्मयुद्ध कर निर्भय होकर, विजय करे वंदन तेरा।।

अब तौलते हमें

कट जाती आधी जिन्‍दगी, तब सोचते हैं हम।

नादानियों में अपनी अब, झेलते हैं गम।।

बचपन में कट गई कुछ, बहकी जवानी में।

जो शेष बुढ़ापे में, वह ठेलते हैं हम।।

झूमते थे अहंकार में, शोला थे हम जनाब।

घुटते हैं मन ही मन में, कम बोलते हैं हम।।

सोने सा समय खोया, नादानी की जनाब।

दुख बैठ बुढ़ापे में अब तौलते हैं हम।।

’उत्‍सुक’ गवाहीं देतीं, तवारीखें आज तक।

दीनों के ही जज्‍बात सब खेलते हैं हम।।

ईश की आभा से

ईश की आभा से, बढ़ता है हमारा घर।

आत्‍म ज्‍योति से निखरता हे, हमारा घर।।

श्रम ही है मित्र इसका, देता हमें तसल्‍ली।

ऊर्जायें तमाम अर्जित, करता है हमारा घर।।

एकाकी चिर प्रवासी, यह दोस्‍त बटोही है।

नित स्‍वप्‍न मंजिलों के, देखता है हमारा घर।।

आलस का सताया है, मारा है क्रोध का।

कितने ही राज उर में, रखता है हमारा घर।।

माया का पड़ा पर्दा, दरारें हैं मोह की।

’उत्‍सुक’ खंडहर पुराना, लगता है हमारा घर।।