Utsuk kavu kunj - 2 in Hindi Poems by Ramgopal Bhavuk Gwaaliyar books and stories PDF | उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज - 2

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उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज - 2

उत्‍सुक काव्‍य कुन्‍ज 2

कवि

नरेन्‍द्र उत्‍सुक

प्रधान सम्‍पादक – रामगोपाल भावुक

सम्‍पादक – वेदराम प्रजापति मनमस्‍त, धीरेन्‍द्र गहलोत धीर,

ओमप्रकाश सेन आजाद

सम्‍पादकीय

नरेन्‍द्र उत्‍सुक एक ऐसे व्‍यक्तित्‍व का नाम है जिसे जीवन भर अदृश्‍य सत्‍ता से साक्षात्‍कार होता रहा। परमहंस सन्‍तों की जिन पर अपार कृपा रही।

सोमवती 7 सितम्‍बर 1994 को मैं भावुक मस्‍तराम गौरीशंकर बाबा के दर्शन के लिये व्‍याकुलता के साथ चित्रकूट में कामदगिरि पर्वत की परिक्रमा करता रहा। जब वापस आया डॉ. राधेश्‍याम गुप्‍त का निधन हो गया। श्‍मशान जाना पड़ा। उत्‍सुक जी भी श्‍मशान आये थे। वहां मुझे देखते ही कहने लगे ‘’आप गौरी बाबा के दर्शन के लिये तड़पते रहते हो मुझे सोमवती के दिन शाम को पांच बजे जब मैं बाजार से साइकिल से लौट रहा था, बाबा बीच सड़क पर सामने से आते दिखे। उनके दर्शन पाकर मैं भाव विभोर हो गया। साइकिल से उतरने में निगाह नीचे चली गई, देखा बाबा अदृश्‍य हो गये हैं।

उस दिन के बाद इस जनवादी कवि के लेखन में धार्मिक रचनायें प्रस्‍फुटित हो गईं थीं। ‘’उत्‍सुक’’ की कवितायें सामाजिक राजनैतिक विद्रूपता का बोलता आईना है। वर्तमान परिवेश की नासूर बनती इस व्‍यवस्‍था की शल्‍य क्रिया करने में भी कविवर नरेन्‍द्र उत्‍सुक की रचनायें पूर्णतया सफल सिद्ध प्रतीत होती हैं। कवितायें लिखना ही उनकी दैनिक पूजा बन गई थी। इस क्रम में उनकी रचनाओं में पुनरावृत्ति दोष का प्रवेश स्‍वाभाविक था।

प्रिय भाई हरीशंकर स्‍वामी की प्रेरणा से एवं उत्‍सुक जी के सहयोग से गौरीशंकर सत्‍संग की स्‍थापना हो गई। धीरे-धीरे सत्‍संग पल्‍लवित होने लगा। आरती में चार आठ आने चढ़ने से क्षेत्र की धार्मिक पुस्‍तकों के प्रकाशन की भी स्‍थापना हो गई।

इन्‍ही दिनों उत्‍सुक जी के साथ बद्रीनाथ यात्रा का संयोग बन गया। सम्‍पूर्ण यात्रा में वे खोये-खोये से बने रहे। लगता रहा- कहीं कुछ खोज रहे हैं। इसी यात्रा में मैंने उनके समक्ष प्रस्‍ताव रखा – ‘सत्‍संग में इतनी निधि हो गई है कि आपकी किसी एक पुस्‍तक का प्रकाशन किया जा सकता है। यह सुनकर वे कहने लगे – मित्र आपके पास पिछोर के परमहंस कन्‍हरदास जी की पाण्‍डुलिपि कन्‍हर पदमाल रखी है पहले उसका प्रकाशन करायें। उनके इस परामर्श से ‘कन्‍हर पदमाल’ का प्रकाशन हो गया है।

समय की गति से वे दुनिया छोड़कर चले गये। उनकी स्‍म़ृतियां पीछा करती रहीं। आज सभी मित्रों के सहयोग से उनके ‘काव्‍य कुन्‍ज’ का बानगी के रूप में प्रकाशन किया जा रहा है। जिसमें उनके गीत, गजलें, दोहे, मुक्‍तक एवं क्षतिणकाऐं समाहित किये गये हैं।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी की जीवन संगिनी श्रीमती दया कुमारी ‘उत्‍सुक’ ने उनके सृजन काल में उनके साथ रहकर एक सच्‍ची सह धर्मिणी और कर्तव्‍य परायणता का निर्वाह करते हुये स्‍तुत्‍य कार्य किया है।

नरेन्‍द्र उत्‍सुक जी की जीवन संगिनी श्रीमती दया कुमारी ‘उत्‍सुक’ ने उनके सृजन काल में उनके साथ रहकर एक सच्‍ची सह धर्मिणी और कर्तव्‍य परायणता का निर्वाह करते हुये स्‍तुत्‍य कार्य किया है।

गौरीशंकर बाबा की कृपा से डॉ. सतीश सक्‍सेना ‘शून्‍य’ एवं इ. अनिल शर्मा का सत्‍संग के इस पंचम पुष्‍प के प्रकाशन में विशेष सहयोग प्राप्‍त हुआ है। इसके लिये यह समिति उनकी आभारी रहेगी।

सुधी पाठकों के समक्ष स्‍व. नरेन्‍द्र उत्‍सुक का यह ‘काव्‍य कुन्‍ज‘ श्रद्धान्‍जलि के रूप में सार्थक सिद्ध होगा। पाठकीय प्रतिक्रिया की आशा में---

दिनांक -10-02-2021

रामगोपाल भावुक

घर घर में दीवार बन गई

धधक रही ज्‍वाला नफरत की, घर घर में दीवार बन गई।

बा‍त बात में बात बढ़ गई, यहां-वहां तलवार तन गई।।

अहंकार कैसा अंगड़ाया, मारा-मारा क्रोध फिर रहा।

कटुता बोई मन में हमने, भाषा भी अंगार जन गई।।

संसद में हंगामा होता, तू-तू मैं-मैं, हाथा पाई।

बहुमत रखा ताक में देखो, लगता बीच बजार ठन गई।।

केरोसिन डाला लालच ने, फूंक पराई बेटी डाली।

इच्‍छायें उर में, दहेज की, लौ ही घर संसार हन गई।।

’उत्‍सुक’ सैक्‍सी हुआ जमाना, बच्‍चा युवक वृद्ध हो चाहे।

आंख नशीली उठे हर तरफ दिल दुनियां बाजार बन गई।।

दोस्‍त बनकर भी

आज अपनी ही नजर में गिर गया है।

आदमी जिन्‍दा नहीं है मर गया है।।

जमीन उसका किस कदर धिक्‍कारता है।

हालात के आगे जो आकर डर गया है।।

ये भरोसे के ही अब काबिल नहीं।

दोस्‍त बनकर भी दगा देकर गया है।।

काम से कितनी चुराता आंख है ये।

दाम ये खोटा सभी कुछ चर गया है।।

’’उत्‍सुक’’ हृदय में ईर्श्‍यायें, पल रहीं।

द्वेष में आकंठ देखो भर गया है।

सम्‍बन्‍ध पावन हैं यहां

कुरबानियां दी थीं वतन पर, हमने जिस आन से।

लहरा रहा है ध्‍वज तिरंगा, देखिये किस शान से।।

स्‍वाधीनता कायम हमें रखना, है हिन्‍दुस्‍तान की।

नागरिक हैं हिन्‍द के, कहते हैं हम अभिमान से।।

बगावत के बीज जो भी, बोयेगा इस देश में।

वह यहां पर हाथ, धो बैठेगा, अपनी जान से।।

शरारत कोई भी हम, बरदाश्‍त कर सकते नहीं।

सामने आयेगा जो भी, जायेगा वह काम से।।

’उत्‍सुक’ ब‍हिन और भाई से, सम्‍बन्‍ध पावन हैं यहां।

कोई रिश्‍ते ही नहीं रहते यहां अनजान से।।

दल बचाना चाहता है

तारे धरा पर आसमां से, तोड़ लाना चाहता है।

हर असंभव कार्य को, करके दिखाना चाहता है।।

मुश्किलों से जूझने की, पड़ गई आदत सदा से।

मुश्किलों के तोड़ का, वह फन बताना चाहता है।।

लाल गुदड़ी के हैं, इनको मत मसलकर फेंकिये।

ज्ञान का भंडार ये कुछ कर दिखाना चाहता है।।

ऐलान युवकों ने किया है, अब सहन होगा नहीं।

अन्‍याय को वह कुर्सियों से, खींच लाना चाहता है।।

’उत्‍सुक’ कहीं ये ले न डूबें, देश की स्‍वाधीनता।

गर्त में गिरने से इनको दिल बचाना चाहता है।।

अवगुण अपने देख जरा

छोड़ पराये दोष देखना, अवगुण अपने देख जरा।

चेहरा तेरा सच बोलेगा, दर्पण में तू देख जरा।।

तन ये उजला उजला तेरा, मन तो कितना काला है।

खोल हृदय के नैन तनिक तू, मन को अपने देख जरा।।

माया का परदा आंखों पर, मोह छल रहा है हर पल।

कभी हृदय में झांका तूने, कितना गंदिल देख जरा।।

हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा, यही सोचना है हमको।

परिवर्तन कितना आता है, जीवन में फिर देख जरा।।

’उत्‍सुक’ छाया ही छलती है, तू इतना न जान सका।

अधजल गगरी छलक रही है, उर में अपने देख जरा।।

आक्रोश ही आक्रोश है

आलस भरा तमाम है, इस मकान में।

अभिमान ही अभिमान है, इस मकान में।।

सन्‍तोष नहीं, इसको क्रोधी है यह बहुत।

ईर्ष्‍या घुली है दोस्‍तो, इस मकान में।।

रखता है द्वेष हरदम निर्मोही है जनाब।

जाले लगे हैं स्‍वार्थ के, इस मकान में।।

ज्ञान के आलोक से, वंचित है लग रहा।

जैसे न कोई रहता हो, इस मकान में।।

’उत्‍सुक’ बना दिया क्‍यों आतंक का ये घर।

आक्रोश ही आक्रोश है, इस मकान में।।

अनगिन है नाम उसके

मालिक है सबका एक, चमत्‍कार अनेक हैं।

अनगिन हैं नाम उसके, अविष्‍कार अनेक है।।

आत्‍मायें अंश उसकी, योनियां विभिन्‍न हैं।

बन्‍दे सभी हैं उसके, तलबगार अनेक हैं।।

दरिया दिली तो देखो, दो हाथ से लुटाये।

उसके जहां में सब पर, उपकार अनेक हैं।।

सन्‍यासी साधू संत और, सूफी महात्‍मा।

सरकार इक वही है, तावेदार अनेक हैं।।

मर्जी है उसकी ‘उत्‍सुक’ क्‍या सौंप दे किसे,

करामात है उसी की, दावेदार अनेक हैं।।

जीवन को विस्‍तार दिया है

संगीत दिया शब्‍दों को तुमने, भावों को श्रृंगार दिया है।

गजलकार सचमुच में तुमने, जीवन को विस्‍तार दिया है।।

मर्म भेदी अक्षर अक्षर हैं, छू लेते हैं सहसा मन को।

शेरों में ढाला है ऐसा, मन में जोश खुमार दिया है।

मूर्तिमान चित्रत हो देखा, चित्र खिंचा रह गया हृदय में,

प्रेमघटा उमड़ी है उर में, इतना निर्मल प्‍यार दिया है।

सरस्‍वती के आराधक हैं, प्रकृति प्रेयसी है सपनों की।

सृजक तूलिका देकर तुमने, जीवन ही उजियार दिया है।।

’उत्‍सुक’ कविता हृदय हो गया, मन खोजता है गजलों में।

कलम निरन्‍तर चलती रहती, लिखने का अधिकार दिया है।।

नचाती हैं रोटियां

बहाते हैं पसीना, तभी आती हैं रोटियां।

दिन-रात ख्‍वाब में भी लुभाती हैं रोटियां।।

इन रोटियों की खातिर, क्‍या क्‍या न सहा हमने।

फांके भी दोस्‍त हमको कराती हैं रोटियां।।

दो जून कैसे पेट को, भरते हैं हम जनाब।

सहते तमाम जुल्‍म, नचाती हैं रोटियां।।

दर-दर पे काम के लिये, भटका रहीं हमें।

क्‍या–क्‍या न रूप हमको, दिखाती हैं रोटियां।।

’उत्‍सुक’ न मिलती रोजी, लाले हैं पेट के।

कितनों को भूखे पेट, सुलाती हैं रोटियां।।

नफरत मिटाइये

हिलमिल के साथ रहिये, हिम्‍मत बढ़ाइये।

मत व्‍यर्थ क्रोध करिये, किस्‍मत जगाइये।।

प्रेम से दिल जीतकर, देखा न किसी का।

प्रेम की होती नहीं मुद्दत बताइये।

हमदर्द बन सभी को सुख चैन बांटिये।

मत व्‍यर्थ ही परस्‍पर, तोहमत लगाइये।

बन करके रहिये मित्र से, सबके जनाब आप।

यूं मित्र हर दिलों से नफरत मिटाइये।।

’उत्‍सुक’ परेशां हाल जो, दिल में है शत्रुता।

ये बैर भूल जाने की आदत बनाइये।।