The protocol in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | प्रोटोकॉल

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प्रोटोकॉल


जाड़े के दिनों में पेड़-पौधों को पानी की बहुत ज़्यादा ज़रूरत नहीं रहती। तापमान कम रहने से वातावरण की नमी जल्दी नहीं सूखती। बल्कि इस मौसम में खिलते फूलों को तो हल्की-हल्की गुलाबी धूप ही ज़्यादा सुहाती है।
इसलिए माली रामप्रसाद काम के तनाव में नहीं था। वह दो-चार खर-पतवार के तिनके इधर-उधर करके,पानी का पाइप क्यारियों में छोड़ता और हथेली पर खाज करता हुआ बरामदे में काम कर रहे लड़के धनराज के पास आ बैठता। सर्दियों में हाथ बार-बार सूखा -गीला करते रहने से हथेली की त्वचा ख़ुश्की से खुजलाने लग जाती थी। लगता था जैसे बदन पर से उम्र की परतें उतर रही हों।
धनराज कम उम्र का लड़का था, इसलिए उस पर मौसम का कोई असर नहीं था। वह मुस्तैदी से काम किये जा रहा था।
-तेरी उम्र कितनी है? रामप्रसाद ने पूछ ही लिया।
-क्यों? धनराज ने एकाएक हाथ रोक कर पूछा।
उसके सुर की तल्खी से रामप्रसाद सकपका गया। हड़बड़ा कर बोला-सरकारी नौकरी तो कम से कम अठारह साल में मिलती है न, तू हो गया ?
लड़का थोड़ा घूर कर अप्रसन्नता से रामप्रसाद को देखता रहा, फिर लापरवाही से एक ओर थूक कर बोला- किसको मिली है नौकरी?रामप्रसाद असमंजस में पड़ कर चुप हो गया और धनराज को दीवार पर टिकी छैनी पर हथौड़े का वार करते हुए देखने लगा।दरअसल माली रामप्रसाद की मोटी बुद्धि यही कहती थी कि इतने बड़े सरकारी बंगले में काम करने आया आदमी सरकारी नौकर ही तो होगा।
उसने सोलह-सत्रह साल के लड़के को काम करते देखा तो सहज ही पूछ लिया।
खुद रामप्रसाद को भी तो तनख़ा सरकारी खजाने से ही मिलती थी। ये बात अलग थी कि उसकी तैनाती बरसों से इसी बंगले पर थी। उसे नहीं पता था कि उसका वेतन कहाँ से आता है, कौन लाता है, कैसे लाता है, उसे तो बस हर महीने बंगले में रहने वाले साहब का कोई मातहत गिन कर पैसे पकड़ा जाता था और चील-कव्वे जैसे उसके दस्तखत ले जाता था।
अनपढ़ रामप्रसाद को बीज बोकर उसका दरख़्त बना देना तो आसान लगता था पर दस्तखत करने में पसीना आ जाता था।इन बरसों में उसके देखते-देखते कई साहब लोग बदल कर जा चुके थे। उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि कौन से साहब आये, कौन से गए।उसका काम तो बंगले को गुलज़ार रखने का था। उसमें वो कोई कोताही नहीं करता था।
कई बार ऐसा भी हुआ कि एक साहब के जाने और दूसरे के आने के बीच समय का लंबा अंतराल रहा। लेकिन रामप्रसाद ने खाली बंगले की भी कोई गुल-पत्ती कभी लापरवाही के चलते मुरझाने नहीं दी।
रामप्रसाद की शंका का समाधान दोपहर बाद जाकर हुआ। असल में बंगले में काम करने के लिए तो सरकारी कर्मचारी गिरधारी लाल की ड्यूटी ही लगी थी पर धनराज उस गिरधारी लाल का बेटा था। गिरधारी ने धनराज को पहले बंगले पर भेज दिया था ताकि वह दीवार में तोड़-फोड़ का काम करले।
धनराज तो विद्यालय में पढ़ता था पर आज स्कूल की छुट्टी होने से पिता के काम में हाथ बँटाने उसके साथ बंगले पर चला आया था। बंगले में ट्रांसफर होकर कुछ दिन पहले ही नए साहब आये थे। मेंटिनेंस सेक्शन के कारीगर गिरधारी लाल को बंगले के बरामदे में साहब की नेम-प्लेट लगानी थी।
नेम-प्लेट ग्रेनाइट के काले पत्थर पर पीतल के अक्षरों से बनी सुंदर सी पट्टिका थी। उसे दीवार में लगाना था। काम छोटा नहीं था। पहले दीवार में गड्ढा करके जगह बनानी थी, फिर उसमें सीमेंट से प्लेट लगाकर चारों ओर प्लास्टर करना था। और तब उसके बाद दीवार पर फिर से डिस्टेम्पर किया जाना था।
एक पिक-अप से जब गिरधारी लाल पत्थर की वह बेशकीमती नेम-प्लेट लेकर उतरा,तो उसके साथ ही दो-चार लोग और भी उतरे।
वे लोग वैसे तो बंगले में किसी न किसी अलग-अलग सरकारी काम से ही आये थे पर न जाने किस बहस में उलझे हुए वहीं घेरा बना कर खड़े हो गए।
उनके बीच किसी रोचक मज़ेदार मुद्दे को लेकर चर्चा चल रही थी, दूसरे दोपहर का समय होने से साहब-मेमसाहब भी बंगले पर नहीं थे। तब भला उन्हें किसका डर?
तो सब उस ग्रुप-डिस्कशन में इस तरह उलझे हुए थे मानो सरकार ने किसी मुद्दे पर पूरी तहकीकात करने का जिम्मा उन्हीं को सौंपा हो।
उनकी उस गरमा-गर्म चर्चा का मुद्दा वही नेम-प्लेट थी जिसे अभी-अभी लेकर गिरधारी लाल आया था।
वास्तव में हमेशा वह नेम-प्लेट बंगले की चार-दीवारी अर्थात बाउंड्रीवाल के बाहर लगा करती थी किन्तु न जाने क्यों,इतने सालों में पहली बार अब उसे भीतरी बरामदे की दीवार पर लगाया जा रहा था।
-तो क्या इतने बड़े अफसर के बंगले पर बाहर अब कोई नाम-तख्ती नहीं होगी?
-शहर भर के लोग कैसे जानेंगे कि आखिर बंगला किसका है?
-क्या बाहर की दीवार की जगह सरकार ने भारी मुनाफे के लालच में किसी विज्ञापन कंपनी को बेच डाली?
-या फिर अब सरकारी लोक-लुभावन नारे वहां लिखे जायेंगे?
-लेकिन इतने सुन्दर और भव्य बंगले की शोभा बिगाड़ने का ये प्लान भला सरकार को क्यों सूझा ?
-बंगले में एक बार अंदर आ जाने के बाद किसी आगंतुक के लिए उसमें रहने वाले की नेम-प्लेट का भला क्या महत्त्व है?
यही वे चंद सवाल थे जिन पर मातहतों के बीच बात हो रही थी, वो भी किसी बहस-मुबाहिसे की शक्ल में !
रामप्रसाद माली ही नहीं, इधर-उधर काम कर रहे और भी लोग, आगंतुक, राह चलते लोग इस चर्चा के निपट तमाशबीन ही बन कर इर्द-गिर्द जमा होते जा रहे थे।
गिरधारी लाल का बेटा धनराज भी अब सुबह से पहनी बनियान के ऊपर अपनी टी-शर्ट डाल कर वहीं आ जुटा था। उसकी चिंता ये थी कि जब अब तक नेम-प्लेट को लगाने की जगह ही इतनी विवादास्पद है तो उससे नाहक इतनी मज़बूत दीवार में गड्ढा क्यों खुदवा लिया गया?
वह सुबह से हथौड़ा चला कर पसीना बहाता हुआ हलकान हुआ जा रहा था। उसने कातर दृष्टि से अपने पिता की ओर देखा, किन्तु पिता के चेहरे का विश्वास देख कर उसे यकीन हो गया कि उसने कोई गलती नहीं की है, नेम-प्लेट वस्तुतः वहीँ लगाई जानी है।वह चेहरे पर इत्मीनान लाकर वार्तालाप के मज़े लेने लगा।
एस्टेब्लिशमेंट सेक्शन के दफ्तरी दुर्गालाल ने अपनी गोपनीयता भरी वाणी में कोई रहस्योद्घाटन सा करते हुए कहा- शायद प्रधानमंत्री कार्यालय से आयी कुछ योजनाओं के बाबत बाहर की दीवार पर जानकारी लिखी जाएगी, इसी से नाम-पट्टिका भीतर लायी गयी है।
-अरे पर दीवार पर जगह की कोई कमी है क्या, नामपट्ट लगाने के लिए जगह ही कितनी चाहिए? गार्ड ने शंका जताई।
उसे ये काफी नागवार गुज़र रहा था कि बंगले के बाहर साहब का नाम क्यों नहीं लिखा जा रहा ?
आखिर उसकी शान तो दिनभर गन हाथ में लेकर गेट पर नाम के साथ खड़े होने में ही थी। हर आता-जाता देखे तो सही, वह किसका सुरक्षा-गार्ड है। शहर के वीआईपी इलाके से गुज़रने वाले लोग तो बड़े लोगों की नेम-प्लेट देखते हुए ही गुज़रते हैं।
-नाम-पट्टिका तो पूरी दो बाई दो फिट की है, छोटी थोड़े ही है, जीएडी के चपरासी ने अपना पेंच रखा।
तो क्या, अब उसकी वैल्यू ही क्या रह जाएगी बरामदे में टांगने से?शोर-शराबा सुन कर बंगले के बैठक-कक्ष में डस्टिंग कर रही महिला भी बाहर निकल आई। उसे बड़ा अचम्भा हुआ, जब उसने देखा कि इतने सारे लोग घर के बाहर खड़े साहब लोगों की नेम-प्लेट पर छींटाकशी कर रहे हैं।
घर की वह नौकरानी साहब लोगों के थोड़ी मुंहलगी भी थी और काफी पुरानी भी। इसी से वह फैमिली मेम्बरों की तरह ही घर पर अपना कुछ अधिकार भी समझती थी। वह लगभग झिड़कने के से स्वर में ही बोली- मेम साहब ने ही बोला है तख्ती भीतर टांगने को।
-क्यों? तीन-चार लोग लगभग एक साथ बोल पड़े।
-अरे बाबा, तुमको दीखता नहीं? पट्टी पर दोनों साहब का नाम है। साहब का भी और मेम साहब का भी।
यह सुनते ही गिरधारी लाल के हाथ में पकड़ी नेम-प्लेट को सब पॉलीथिन का कवर हटा कर देखने लगे।
सच में वहां श्री और श्रीमती पंड्या दोनों का नाम लिखा था। रश्मि पंड्या,आई ए एस ऊपर था,और सिद्धार्थ पंड्या, पी सी एस उसके नीचे।
अब खुसर-फुसर की दिशा बदल गयी। साहब पी सी एस हैं ? उनका तबादला भी तो आठ दिन पहले यहाँ हुआ है। एक कर्मचारी ने मानो राज खोला।
तो क्या मैडम साहब से बड़े ओहदे पर हैं? दफ्तरी को मानो विश्वास नहीं हुआ।
-हैं तो क्या ? इसी से तो मेमसाहब ने नाम पट्टी इधर टांगने को बोला, बाहर से सब शहर का लोग देखेगा नहीं कि मेमसाहब साहब से बड़े ओहदे पर हैं, इधर का जिला अधिकारी ? साहब का फालतू में हेठी होगा। नौकरानी ने शान से ये रहस्य खोल कर सब पुरुषों को मानो मात ही दे डाली हो।
उसकी आवाज़ ऐसे खनक रही थी जैसे उसकी मालकिन नहीं, बल्कि वह खुद इस शहर की जिला अधिकारी हो और ये सारे उसके मातहत।
वह इतना ही बोल कर नहीं रुकी, उसने एक रहस्य और खोल दिया, बोली- मालूम है, दो महीना पहले साहब का माँजी आया था तब वो भी साहब को बोला कि इधर ट्रांसफर मत कराना , नहीं तो बहू के रुतबे में रहना पड़ेगा। और ज़्यादा दिमाग चढ़ेगा उसका। नौकरानी ने झटपट मुंह पर हाथ रखा, ... बाबा ये क्या बोल गयी सब लोग के सामने?
अच्छा तभी ?...जीएडी के बाबू ने घोर आश्चर्य से कहा।
- पहले ये प्लेट गलत बन गयी थी। ऊपर साहब का नाम था, नीचे मेम साहब का।
गलत नहीं बनी थी, मैडम ने खुद अपने हाथ से लिख कर दिया था, साहब का नाम ऊपर और अपना नीचे, मैं ही देने गया था डिपार्टमेंट के पेंटर को। ड्राइवर बोला।
-फिर?
-फिर क्या, प्रोटोकॉल वाले उसे कैंसल कर गए, दोबारा बनी। इस मामले में उन्होंने जिला अधिकारी के हाथ का लिखा भी काट दिया। ड्राइवर ने खुलासा किया।
पर मैडम ने ऐसा क्यों लिखा, क्या उनको मालूम नहीं है कि जिला अधिकारी का नाम किसी विभाग के अंडर सेक्रेटरी के नीचे नहीं लिखा जा सकता ?
...ड्राइवर मुंह फेर कर अपनी व्यंग्यात्मक हंसी रोकने की कोशिश करते हुए बोला- मुझे साहब के ड्राइवर ने सब बताया था, खुद साहब ने ही मेमसाहब को बोला था कि मेरा नाम ऊपर डालना, बेचारी मेमसाहब क्या करती ? कलेक्टर है तो क्या ,ऊपर तो साहब ही रहेंगे। ... औरत है न बेचारी।
नौकरानी के ऐसा बोलते ही एकदम चुप्पी छा गयी।
सब तितर-बितर होने लगे। कौन जाने कल ही साहब के पास इस मीटिंग की खबर पहुँच जाए,और लाइन हाज़िर होना पड़े.....
सब लोग सारा माजरा समझ गए, लेकिन साथ में ये भी समझ गए कि साहब लोगों के पास अगर उनकी शिकायत पहुंची तो एक-एक की ख़ैर नहीं।
घर की नौकरानी ने जब अनजाने ही ये राज खोल दिया कि साहब और मेमसाहब के बीच ओहदे को लेकर तनातनी रहती है तो सबको ये भी पता चल गया कि नौकरानी काफ़ी पुरानी है और उसके तरकश में और भी कई तीर हैं।
सब समय मिलते ही आते-जाते हुए उसे और कुरेदने की कोशिश करते।
उसने भी इसी बहाने सब चपरासियों, ड्राइवरों और नीचे तबके के इन लोगों पर सिक्का जमाने को अपना शगल बना लिया।
गेट पर तैनात, कलेक्टर साहिबा का एक संतरी दो-एक बार इन लोगों को हड़का भी चुका था।
लेकिन माली रामप्रसाद के मन में उस दिन से मेमसाहब का रुतबा और भी बढ़ गया। वह दिल से उनका सम्मान पहले से भी ज़्यादा करने लगा। वह रोज़ चुनिंदा फूलों का एक शानदार गुलदस्ता तैयार करता और घर के विज़िटर्स रूम में उस मेज पर सजाता, जहाँ मैडम सुबह के समय आगंतुकों से मिल कर उनकी समस्याएं सुना करती थीं।
भीतर के बरामदे में साहब ने भी एक टेबल लगवाई थी जहाँ शाम को कभी-कभी वह दारू पीने बैठा करते थे। फ्लॉवरपॉट वहां भी था, पर माली रामप्रसाद ने कभी वहां भूल कर भी एक पत्ती तक नहीं सजाई थी।
एक बार नौकरानी ने माली को टोका भी,कि अंदर की मेज पर भी फूल रखा करे।
रामप्रसाद उस दिन बड़े बेमन से क्यारी में नीचे गिरे गेंदे के कुछ फूल समेट कर ठूँस गया। जबकि मेमसाहब की मेज़ का गुलदस्ता वह ताज़ा खिले गुलाबों से सजाता था।
एक दिन बाहर के लॉन में सुबह घर के सब लोग बैठे चाय पी रहे थे, तब माली एक सुंदर सा ताज़ा खिला गुलाब लेकर मेमसाहब के सामने पहुँच गया और उन्हें भेंट करके उसने साहब की ओर कनखियों से देखते हुए मैडम को एक ज़ोरदार सैल्यूट मारा। मैडम मुस्करा कर रह गयीं।
लेकिन साहब के मानस-महल में मानो माली के व्यवहार से भयानक टूटफूट सी हो गयी। उन्होंने चिढ कर अख़बार उठा लिया।
साहब की माताजी ने तो प्याले में चाय अधूरी छोड़ दी और उठ कर भीतर अपने कमरे में चली गयीं।
असल में रामप्रसाद के इस व्यवहार के पीछे भी एक कारण था। उस गरीब के तीन बेटियां थीं, जिन्हें उसने किसी तरह हाथ-पैर जोड़ कर ब्याह तो दिया था, मगर वे सभी अपने-अपने घर में अपने शौहरों के जुल्म सह रही थीं।
बड़ी बेटी तो दसवीं तक पढ़ कर पंचायत में आशा-सहयोगिनी के पद पर नौकरी भी कर रही थी। मगर उसका निखटटू पति सारा दिन बेकार घूम कर समय काटता था। उसका पूरा घर पत्नी की कमाई से ही चलता था पर पत्नी से घर में कोई सीधे-मुंह बात तक नहीं करता था। बीमारी तक में उसे इस डर से छुट्टी नहीं लेने देते थे कि कहीं पैसे न कट जाएँ। घर के काम में कभी कोई मदद न करता।
उधर मझली अपने लंबे चौड़े परिवार के कारण हलकान थी। उसे अनपढ़ होने के ताने मिलते।
तीसरी तो आये दिन पीहर में ही आ बैठती थी। घर के झगड़े उस से सहन नहीं होते थे।
वह लड़की थी तो क्या, अपने घर में छोटी होने से लाड़-प्यार में पली थी।
लाड़ क्या सिर्फ अमीर लोग ही करना जानते हैं? अपने पिता की हैसियत-भर ठाट से तो वो भी रही ही थी।
तो अब ससुराल में ये उसे ज़रा भी नहीं सुहाता था कि उसे सब घर की नौकरानी समझें और दिन भर उसे घर के कामों में उलझाये रखें।
इसलिए मौका मिलते ही पिता के घर चली आती थी।
माली रामप्रसाद की आँखों में आंसू आ जाते थे जब बिटिया उससे पूछती थी कि आपने बेटे क्यों नहीं पैदा किये, कम से कम दूसरों की बेटियों को लेकर तो आते।
माली रामप्रसाद के अंतर के जख्मों को एक तरह से मरहम सा लग जाता था जब वह देखता कि उसकी बेटियां ही नहीं,बल्कि शहर की जिलाअधिकारी तक महिला होने का मोल चुका रही है।
धीरे-धीरे माली रामप्रसाद के मन में मैडम के प्रति सम्मान और स्नेह बढ़ता ही चला गया।
वह जब भी ड्यूटी पर होता काम करते-करते हमेशा इसी बाबत सोचता रहता कि कैसे उसकी बेटियाँ सुखी रह सकें।
वह कितना भी पिछड़ा सही, अब उसकी तीन नहीं, बल्कि चार बेटियां थीं। वह अब मैडम को भी अपनी चौथी बेटी मानने लगा था।
वह निराई,गुड़ाई,सिंचाई,रोपाई करते हुए भी हरदम यही सोचता रहता था कि उसे दुनियां को हरा-भरा खुशहाल रखने वाली फ़सल उगानी चाहिए।
उसका काम यही है कि वह ज़मीन को नुक्सान पहुँचाने वाले खर -पतवार को उखाड़ कर फेंकता रहे और ऐसे पौधे बोता-उगाता रहे जिनसे सबका भला हो।
उसे इसी बात की तनख़्वाह तो मिलती थी।
वह जानता था कि वह एक अदना सा मुलाज़िम है और पैसे-रुतबे के हाथ की कठपुतली इस दुनिया में उसकी हैसियत कुछ भी नहीं है। लेकिन साथ ही एक अनुभवी इंसान के रूप में वो ये भी जानता था कि दुनिया अच्छी तभी रहेगी जब उसे अच्छा रखने की कोशिश की जाएगी। और ये कोशिश कोई भी कर सकता है।
एक कई गज़ लंबी चादर जब फटने लग जाती है तो बित्ते -भर की सुई उसे सिल सकती है।
कुछ दिन बीते और बात आई-गयी हो गयी। सब अपने-अपने कामों में लगे रहे और समय अपनी चाल से चलता रहा।
आज होली का त्यौहार था। शहर-भर रंगों की मस्ती और उल्लास के शोर-शराबे में डूबा हुआ था। जगह-जगह पर झुण्ड बना कर लोग होली खेल रहे थे।
वैसे तो बड़ों की होली बड़ों के साथ और छोटों की छोटों के साथ ही जम रही थी पर साहब लोगों के बंगले पर हर छोटा-बड़ा आ रहा था।
साहब और मेमसाहब बार-बार बाहर आकर हर-एक से मिलते थे। बड़े लोग उनसे गले मिलते,रंग खेलते और मुंह मीठा करते, तथा छोटे लोग उन्हें हाथ जोड़ते, पाँव छूते और आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ जाते।
इतने बड़े त्यौहार पर हर मुलाज़िम अपने अफसर की देहरी छूना चाहता था।
माली रामप्रसाद भी घर से निकल कर पहले बंगले पर ही आया। वहअच्छी तरह जानता था कि साहब के बंगले पर उस जैसे छोटे कर्मचारी के लिए रंग-रोगन का कोई काम नहीं है,उसे तो बस साहब लोगों को सलाम बजा कर ही आना है, उसने फिर भी थोड़ा सा रंग अपनी जेब में डाल लिया।
ये रंग भी कोई ऐसा-वैसा रंग नहीं था,बल्कि गहरा काला बदबूदार रंग था जिसे गली के लड़कों ने वार्निश और तारकोल से तैयार किया था। एक बार कहीं लग जाये तो महीनों इसके छूटने के आसार नहीं थे।
पिछले साल तक तो वह खुद लड़कों को ऐसे रंग से न खेलने की चेतावनी और समझाइश देता रहा था मगर इस बार स्वयं एक लड़के से मांग कर ये रंग एक फॉयल वाले छोटे पाउच में रख लाया।
आम दिनों साहब के बंगले पर बाहर खड़ा संतरी हर आने-जाने वाले की तलाशी लेता था, मगर आज तो होली का त्यौहार था। आज तो झुण्ड के झुण्ड लोग साहबों की एक नज़रे-इनायत की लालसा में वहां आ-जा रहे थे।
वैसे भी माली रामप्रसाद तो उसी बंगले का कामगार भी था, उसे कौन रोकता-टोकता?
वह सीधे बरामदे तक पहुँच गया और साहब-मेमसाहब को आदर से हाथ जोड़कर एक ओर खड़ा हो गया। और भी लोग थे जो साहब को होली मुबारक कह रहे थे।
थोड़ी ही देर में लोगों का झुण्ड पलट कर वापस गेट की ओर चल दिया,और साहब-मेमसाहब भी मुस्कराते हुए बंगले में वापस लौट गए।
थोड़ी देर के लिए बरामदे में सन्नाटा हो गया। अब वहां माली रामप्रसाद के अलावा और कोई न था।
संतरी भी दूर गेट के बाहर की ओर निकला हुआ था। उसके भी कुछ यार-दोस्त और मिलने वाले होली खेलने आ गए थे।
जिस बंगले में माली रामप्रसाद वर्षों से काम कर रहा था, उसी में किसी चोर की तरह कांपते हाथों से उसने जेब से रंग का वह पाउच निकाला और दूसरे हाथ से पास में पड़ा एक पत्थर भी उठा लिया। जो रामप्रसाद पौधों को भी मुलायम हाथों से सहलाता हुआ सहेजता था उसने दाँत भींच कर पत्थर से साहब लोगों की नेम-प्लेट पर किसी उद्दंड शरारती युवक की तरह फुर्ती से तीन-चार वार किये। वार इतने ज़बरदस्त थे, मानो रामप्रसाद आज भाँग खाकर आया हो। देखते-देखते पीतल के चार-पांच अक्षर टूट कर नीचे गिर गए। एक-दो टूट कर टेढ़े-मेढ़े होकर वहीँ लटक गए।आनन-फ़ानन में माली रामप्रसाद ने जेब से काले रंग की पुड़िया निकाली और हाथ में रंग लेकर तख्ती के नाम पर मल दिया। गाढ़ा रंग मानो कभी न छूटने के लिए नेम-प्लेट पर चिपक गया।
किसी चीते की सी फुर्ती से रामप्रसाद वापस पलटा और शान से धीरे-धीरे गेट की ओर जाने लगा। उसने नाम-पट्टी के साथ ये होली इतनी सफ़ाई के साथ खेली थी कि केवल साहब के नाम के ही सारे अक्षर टूट कर गिरे थे। रंग भी इस तरह पोता कि साहब का नाम पूरी तरह मिट गया था।
अब वहां केवल मैडम का नाम शान से जगमगा रहा था।
माली रामप्रसाद को लग रहा था कि जैसे उसने इस होली में अपनी सब बेटियों के साथ हुई ज़्यादती का बदला ले लिया था।
वह गेट के दरवाजे से इस तरह सर उठा कर निकला मानो स्वयं भगवान नरसिंह हरिणकश्यप को चीर कर वापस लौट रहे हों। संतरी भी हैरत से माली रामप्रसाद को जाते देखता रहा।
आज जाते समय रामप्रसाद ने रोज़ की तरह संतरी को सलाम भी नहीं किया था।
मगर आज संतरी ने भी इसका बुरा नहीं माना। जाने दो, होली के दिन भला कैसा "प्रोटोकॉल"?
(समाप्त)