कहते हैं कि हर चीज़ का कभी ना कभी अंत हो जाता है लेकिन ख्वाहिशों..इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। एक इच्छा के पूरी होने से पहले ही दूसरी बलवती हो..सिर उठा अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने को झट से आमादा हो उठती है। ऐसी ही कुछ इच्छाऐं जो लंबे समय से अपने पूर्ण होने की बाट देख रही हैं, उन्हीं छोटी बड़ी ख़्वाहिशों की कहानी है योगिता यादव जी के उपन्यास 'ख्वाहिशों के खाण्डववन" की। यहाँ खाण्डववन से तात्पर्य एक ऐसा शहर जिसमें वास्तविकता से साथ छद्म का मेल हो।
इसमें कहानी है दिल्ली महानगर के उस तथाकथित सौंदर्यीकरण एवं सुधार की। जिसे 'इसकी टोपी उसके सर' की तर्ज़ पर ऐसा संवारा गया या संवारने का आधा अधूरा प्रयास किया गया कि एक ओर 'ना माया मिली..ना ही मिले राम' वाली बात हो गयी और दूसरी तरफ़ दिल्ली के बाहरी इलाकों और गांवों की हद याने के परिधि का क्षेत्रफल सिकुड़ कर झुग्गियों और जे.जे.कॉलोनियों की चपेट में आ गया। ना पॉश इलाके ढंग से साफ़ सुथरे हो पाए और ना ही गांव देहात के लोग चैन और सुकून से रह पाए मगर हाँ.. अफ़सरान के मन में ये ज़रूर भ्रम बना रहा कि..कुछ अच्छा हो रहा है। अच्छे भले शहर का बेड़ागर्क करने में रही सही कसर सुरसा के मुँह के माफ़िक दिन दूनी रात चौगुनी गति से पनपने..फैलने और बढ़ने वाली अनाधिकृत कॉलोनियों ने पूरी कर दी।
इस उपन्यास में कहानी है गांव देहात की दिक्कतों..परेशानियों और शहर में लगातार बढ़ते प्रदूषण की। साथ ही इसमें बात है प्रदूषण के नाम पर दुकानों और गांव देहात में लगी छोटी छोटी फैक्ट्रियों के सील होने और उससे उत्पन्न होती बेरोज़गारी की। इसमें बात है खुली आँखों से छोटी छोटी ख़्वाहिशों को पूरा करने हेतु देखे गए हर छोटे बड़े सपने के टूटने और बिखरने की।
इस बात है छोटी जाति वालों के साथ होते भेदभाव भरे पक्षपात की। इसमें बात है मौका देख रंग बदलने वाली पंचायत रूपी राजनैतिक गिरगिटों और बदनीयत से उनके द्वारा लिए गए मौकापरस्त फैसलों की।
इस बात है उस बहन की जिसे उसके ससुराल में कभी दहेज के नाम पर तो कभी छोटी छोटी बातों पर महज़ इसलिए सताया जाता रहा कि उसकी बड़ी बहन ने, उसके ब्याह से पहले, उनके घर का याने के उसी के पति का रिश्ता ठुकरा दिया था। इसमें बात है उस बेटी..उस युवती की जिसे अपने घर से तो पूरा समर्थन मिला मगर अपने समूचे गांव की आँख में किरकिरी बन चुभती रही।
इसमें बात है तमाम बंदिशों के बावजूद सिर उठा.. शनै शनै पनपती नारी शिक्षा और उसके माध्यम से उनमें फ़लीभूत होती जागरूकता और उनके बढ़ते आत्मविश्वास की। इसमें बात है शिक्षा के ज़रिए पतन से उत्थान की ओर बढ़ते छोटे छोटे कदमों से लंबी दूरी नापने के दृढ़निश्चयी मंसूबों की।
इसमें बातें हैं ग्राम पंचायतों में मनमाने ढंग से होते एकतरफ़ा फैसलों के पक्षपातपूर्ण निर्णयों की। इसमें बातें हैं शहरी परिवेश में होने वाली दिक्कतों..परेशानियों और उनसे जुड़े स्थानीय मुद्दों की। इसमें बातें हैं चुनावी टिकटों में होती धांधली एवं डंके की चोट पर होती उनकी बिक्री की।
इसमें बात है मूक रह कर प्यार के इज़हार और इकरार की। इसमें बात है सहारा बने दोस्तों और संबल बन समर्थन देते घर परिवार की।
रोचक शैली..धाराप्रवाह भाषा और कहीं कहीं हरियाणवी शब्दों के संगम से लैस यह उपन्यास संग्रहणीय की श्रेणी में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में पूरी तरह सक्षम है। 128 पृष्ठीय इस उम्दा उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है सामयिक प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है मात्र 150/- जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।