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अंतर्राष्ट्रीय -कला-संस्थान के हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट सुनकर सुगंधा की आँखों में पानी छलक आया | विश्वास होने, न होने की मानसिकता में झूलती सुगंधा को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि एशिया का एकमात्र कला-संस्थान उसके लिए इतने बड़े कार्यक्रम का आयोजन कर सकता है !लेकिन यह सच था, सब कुछ उसके सामने था |
संस्थान का वातावरण यूरोपियन शैली में सिमटकर रह गया था यद्ध्यपि वहाँ प्रत्येक राज्य की कला के प्रशिक्षण का संगम था | इस संस्थान में देश-विदेश के युवा कला के विभिन्न क्षेत्रों में शिक्षा प्राप्त करने आते थे | यहाँ प्रत्येक राज्य की भारतीय कलाओं के दर्शन होते थे | देश-विदेश के छात्र/छात्राएँ इस संस्थान में प्रवेश लेने के लिए पंक्ति में लगे रहते |
"डॉ. सुगंधा मिश्रा, प्लीज़ कम ऑन द स्टेज ---" संस्थान के डायरेक्टर ने उस ऊँचे मंच पर बैठकर सुगंधा को इशारे से वहाँ आकर बैठने को कहा | सभी गणमान्य लोग मंच पर विराजमान हो चुके थे, उसके शरीर में जैसे झनझनाहट होने लगी | इससे पूर्व भी एक बार मंच से उसका नाम पुकारा जा चुका था | न जाने वह कौनसे लोक में थी ?
अपने नाम के आगे डॉ. सुनकर उसे अजीब सी फीलिंग हो रही थी | अभी तो उसके पास मेल ही आया था, इस फंक्शन में ही उसे 'डॉ.' की मानिद उपाधि मिलने वाली थी |
डायरेक्टर के पास ही मेज़ पर सुगंधा के नाम की 'नेम-प्लेट' सुशोभित थी | वे खुद उसे पुकार रहे थे, उनके पास की सीट ख़ाली थी | सबकी बैठकों के सामने मेज़ पर उनकी नेम-प्लेट्स थीं |
"अरे ! तुम्हें स्टेज पर बुलाया जा रहा है ---"पास बैठी उसकी अति प्रिय सखी उत्तमा अय्यर ने कहा | सुगंधा की सफ़लता से शायद उत्तमा उससे भी अधिक प्रसन्न होगी | वह अपनी सखी की विशेषताओं व प्रबुद्धत्ता को भली प्रकार पहचानती व उसे उत्साहित करती रहती थी |
"डॉ.सुगंधा मिश्रा प्लीज़ ---" संचालक ने मंच पर से दूसरी बार उसका नाम पुकारा |
"सुगंधा कहाँ हो तुम ? दो बार तुम्हारा नाम एनाउंस हो चुका है---"ऑडिटोरियम में पीछे से किसी दोस्त की आवाज़ थी, शान्तनु मुखर्जी था | यह सुगंधा के गिने-चुने वास्तविक मित्रों में से था |
सुगंधा हड़बड़ाकर अपनी सीट से खड़ी हुई और लड़खड़ाते कदमों से मंच की ओर बढ़ी |
"वैलकम --वैलकम, प्लीज़ कम ऑन द स्टेज---" सुगंधा इतनी बोल्ड, संघर्षों से जूझने वाली लड़की हिलती-डुलती सी, मुश्किल से स्टेज पर चढ़ पाई, एनाउंस करने वाले लड़के ने उसे स्टेज पर चढ़ने में सहायता की, लड़खड़ाते पाँवों से वह ऊपर चढ़ सकी जहाँ एक बड़ी सी ट्रॉफ़ी व गोल्डन फ़्रेम में जड़ा पी.एचडी का मानिंद बहुमूल्य उपहार उसकी प्रतीक्षा कर रहा था |
सुगंधा के स्टेज पर चढ़ते ही सारा ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा |
देखा जाए तो यह दिन सुगंधा के उत्साह का दिन था, उसके गर्व का दिन था, उसकी सफ़लता का दिन था जो पूरा संस्थान मना रहा था किन्तु वह मौन थी, हकबकी थी | उसे अपनी इतनी बड़ी सफ़लता पर विश्वास ही नहीं हो रहा था | यद्ध्यपि संस्थान में सूचना तो बहुत पहले आ चुकी थी और उसके पास प्रशंसा का पत्र भी लेकिन उसके लिए संस्थान इतना बड़ा उत्सव मनाकर उसमें उसे सम्मानित करेगा, उसे स्वप्न में भी ख्याल नहीं था |
मंच पर डायरेक्टर के एक ओर इंग्लैण्ड की 'यूनिवर्सिटी ऑफ़ आर्ट एन्ड कल्चर ' के कला-विभाग से पधारे डॉ. स्टीवेन स्मिथ बैठे थे और दूसरी ओर संस्थान के शुरुआती दौर के तीन छात्रों में से एक छात्र व बाद में वहीं पर शिक्षक बने प्रो.अशोक चटर्जी अपनी वयोवृद्ध आयु व बीमारी के बावज़ूद इस ऐतिहासिक अवसर के साक्षी बनने यहाँ पर पधारे थे | वे संस्थान में डायरेक्टर के पद को भी सुशोभित कर चुके थे |
दरसल, यह संस्थान एक 'ऑटोनोमॉस बॉडी' था जिसको सरकार से ग्रांट तो मिलती थी लेकिन जिसके अपने नियम थे जिनमें छात्रों के प्रवेश से लेकर फ़ैकल्टी का चयन व काम करने के तरीके सब उनके अपने नियमानुसार चलते थे |
इंग्लैण्ड की इस यूनिवर्सिटी ने लगभग तीन साल से अपने विश्वविद्यालय का 'लोगो' बनाने के लिए संस्थान को एडवांस धन-राशि दी हुई थी और लगभग पाँच /छह लोगों ने इस पर पूरा परिश्रम करके देख लिया था किन्तु किसी के काम से भी यूनिवर्सिटी को संतुष्टि नहीं मिल पाई थी, कोई न कोई कमी रह ही जाती | एशिया का यह एकमात्र कला-संस्थान पूरे विश्व में विख्यात था | उसमें प्रवेश के लिए लोग न जाने कितना पैसा देने को तैयार हो जाते किन्तु यहाँ पर उनके नियमानुसार ही प्रवेश मिल पाता था |
कला-संस्थान से 'पास-आऊट' होकर फैकल्टी के रूप में सुगंधा का चयन हुआ था जिसमें उसे कितने पापड़ बेलने पड़े थे | न जाने कितने-कितने प्रैक्टिकल्स और लगभग तीन साक्षात्कार !जिनमें हर बार एक नई कमेटी के लोग ! लब्बोलुबाव यह कि घूस से काम न चल पाता, यह सब परीक्षार्थी की 'तुरत बुद्धि' पर ही निर्भर होता |