swatantr saksena ki kavitayen - 9 in Hindi Poems by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | स्‍वतंत्र सक्‍सेना की कविताएं - 9

Featured Books
Categories
Share

स्‍वतंत्र सक्‍सेना की कविताएं - 9

स्‍वतंत्र सक्‍सेना की कविताएं

काव्‍य संग्रह

सरल नहीं था यह काम

स्‍वतंत्र कुमार सक्‍सेना

सवित्री सेवा आश्रम तहसील रोड़

डबरा (जिला-ग्‍वालियर) मध्‍यप्रदेश

9617392373

सम्‍पादकीय

स्वतंत्र कुमार की कविताओं को पढ़ते हुये

वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’

कविता स्मृति की पोटली होती है| जो कुछ घट चुका है उसमें से काम की बातें छाँटने का सिलसिला कवि के मन में निरंतर चलता रहता है| सार-तत्व को ग्रहण कर और थोथे को उड़ाते हुए सजग कवि अपनी स्मृतियों को अद्यतन करता रहता है, प्रासंगिक बनाता रहता है |

स्वतंत्र ने समाज को अपने तरीके से समझा है| वे अपने आसपास पसरे यथार्थ को अपनी कविताओं के लिए चुनते हैं| समाज व्यवस्था, राज व्यवस्था और अर्थव्यवस्था की विद्रूपताओं को सामने लाने में स्वतंत्र सन्नद्ध होते हैं|

अपने कवि की सीमाओं की खुद ही पहचान करते हुए स्वतंत्र कुमार लेखनकार्य में निरंतर लगे रहें, हमारी यही कामना है| सम्‍पादक

11 अम्बेडकर

दलितों में बनके रोशनी आया अम्‍बेडकर

गौतम ही उतरे जैसे लगता नया वेश ध्‍र

नफरत थी उपेक्षा थी थे अपमान भरे दंश

लड़ता अकेला भीम था थे हर तरफ विषधर

सपने में जो न सोचा था सच करके दिखाया

हम सबको चलाया है उसने नई राह पर

ये कारवॉं जो चल पड़ा रोका न जाएगा

नई मंजिलों की ओर है मंजिल को पारकर

हर जुल्‍म पर हर जब पर सदियों से है भारी

गौतम का है पैगाम ये रखना सहेज कर

मनु को पलट कर तू ने दी एक नई व्‍यवस्‍था

शोषित को न देखें कोई ऑंखें तरेर कर

भारत का कोहिनूर तू गुदड़ी का लाल है।

समता का उगा सूर्य अंधेरे की बेधकर

12 झरोखे पर

बाल खोले झरोखे पर देखा तुम्‍हें

चांदनी रात होने का भ्रम हो गया

मस्‍त नजरें तुम्‍हारी जो क्षण को मिलीं

जाम पर जाम लगता था कई पी गया

बहके मेरे कदम भूल मंजिल गई

ऑंखें मुँद सी गईं सांस थम सी गईं

शब्‍द विस्‍मृत हुए वाणी थम सी गई

तुम ही तुम रह गए और मैं खो गया

धड़कने दिल की न मेरे बस में रहीं

चेतना ही न जाने कहॉं खो गई

ऑंखों ने ऑंखों से कितनी बातें कहीं

भूले सपनों का फिर से जनम हो गया

चॉंदनी रात ...................

दूर धरती कहीं पर गगन से मिले ,

गंध कोई बासंती पवन में घुले

रंग जैसे ऊषा की किरण में खिले

नेह का आस्‍था से मिलन हो गया

चाँदनी रात .............

जेठ में उमड़ी कोई घटा हो घिरी

तप्‍त धरती पर अमृत की बूँदे गिरी

आँखें जैसी मेरी बन गई अंजुरी

सारी तृष्‍णा का ही तो शमन हो गया

चॉंदनी रात होने का ...............

13 अर्जुन तुम गांडीव उठाओं

अर्जुन तुम गांडीव उठाओं

तेरे तीर लक्ष्‍य बेधेंगे

जो सिंहासन थामे बैठे

वे क्षण में धरती सूघेंगे

रूचि ही जब विकृत हो जाए

अनाचार स्‍वीकृत हो जाए

पक्षपात ही न्‍याय बने जब

निंदा ही स्‍तुति हो जाए

है अधर्म तब मौन धरना

ऐसे में तुम शंख बजाओ

अर्जुन तुम गांडीव उठाओ

भारत के सब जन उत्‍पीडि़त

नव युवकों के मन हैं कुंठित

सच्‍चे जन सारे ही वंचित

भारत रह न जाए लुंचित

है अधर्म तब कदम रोकना

ऐसे में तुम शौर्य दिखाओ

अर्जुन तुम गांडीव उठाओ

निर्धन अब करते हैं क्रंदन

छाया ओं का भय प्रद नर्तन

मुक्ति मंत्र या दासता बंधन

जयकारा मिश्रित है चिंतन

है अधर्म शुभ शकुन सोचना

ऐसे में तुम भुजा उठाओं

अर्जुन तुम गांडीव उठाओ

14 देश की अस्मिता

देश की अस्मिता रख दी गई है गिरवी

हम पर थोप दी गई है

फिर एक बार गोरों की मर्जी

कब तक चलेगी ये व्‍यवस्‍था फर्जी

पतन के कहा जा रहा है उत्‍कर्ष

घृणित षणयंत्रों को कह रहे हैं संघर्ष

किसी को कोई भ्राँति नहीं है

ये और कुछ हो सकता है

क्रान्ति नहीं है

सेठों का धन

भ्रष्‍टाचारी मन

और गुंडों के बल पर

बटोरे वोट

बार बार करते हैं जनतंत्र पर चोट

तुम्‍हारी आस्‍था है प्रभुओं की भकित में

नहीं है विश्‍वास जनता की शक्ति में

बदलो अपना मन

छोड़ो यह झूठे भाषण

बहुत दे चुके आश्‍वासन

सिर्फ चमचों को ही नहीं

, हमें भी दिलवाओ रोजगार

जुगाड़ पाये शाम तक राशन

अब तो धैर्य खो रहे हैं।

भारत के जन

15 प्रिये ओठ खोले

तुमने अपने हैं जो बाल खोले प्रिये

नाव के जैसे हैं पाल खोले प्रिये

ओठ कितने जतन से भले सी रखो

नैनों ने मन के हैं हाल खोले प्रिये

बात इनकार से पहुंची स्‍वीकार तक

कंगनों ने मधुर ताल बोले प्रिये

गात में यू बासंती पुलक भर गई

मुस्‍करा कर मधुर बोल बोले प्रिये

साथ को क्षण मिला और सुधि खो गई

सांस की तेज पतवार होली प्रिये

कान में कोई रस आज घोले प्रिये

प्राण में कोई मधुमास डोले प्रिये