रश्मि को आज तक न तो किसी ने पत्र ही लिखा था और न ही उसने कभी किसी के पत्र की उम्मीद ही की थी. शायद इसीलिए कुछ आश्चर्य, कुछ कौतूहल और और कुछ विस्मय से उसने वह पत्र लिया और एक ही सांस में सारा पढ़ डाला.
मटर छीलती मां उसके चेहरे के बदलते भावों को देखती रही. पत्र को मोड़ कर फिर से लिफाफे में डालकर जब वह अपने कमरे में जाने को मुड़ी तो मां ने पूछा, ‘‘रश्मि, किस का पत्र है, जो तुम यूं बैचैन सी हो गई हो?’’
‘‘ कोई खास नहीं मां, बस एक सहेली ने लिखा है.’’ अनमने भाव से जवाब दे रश्मि अपने कमरे को चल दी.
पत्र ने सचमुच रश्मि को झकझोर डाला था. पत्र का हर वाक्य एक कटु सत्य था. मां और पिता के अपराध में वह स्वयं को भी अपराधी महसूस करने लगी. पर साथ ही वह इतना भी खूब समझती थी कि यह सब मां-पिताजी की दृष्टि में कोईअन्याय न होकर सिर्फ़ अधिकार होगा. ऐसे में वह करे तो क्या करे. लेकिन कुछ न कुछ तो करना ही होगा, किसी ने उस पर विश्वास किया है. यही चिन्ता उसके रात-दिन का चैन ले बैठी. सोचा पिता से सीधे-सीधे कह दे, फिर मन में आया कि अनशन करके देखे. लेकिन कुछ भी जमा नहीं. आखिर में तय किया कि नहीं यह सब नहीं, मां- पिता को किसी तरह उनके अन्याय का अहसास कराना होगा.
अगले दिन रश्मि स्कूल से लौटी तो साथ कपड़ों का ढेर था. मां ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘ रश्मि ये कपड़े किसके है?’’
‘‘हमारी टीचर के हैं मां. इनमें फूल और बेल बूटे काढ़ने है.’’रश्मि ने जवाब दिया.
मां देखती रही और रश्मि स्कूल तथा घर का हर काम छोड़कर कढ़ाई के काम में तीन दिन तक जुटी रही.
उससे निबटी तो फिर दो दिन बाद चार मोटी-मोटी कापियां उठाए स्कूल से लौटी.
‘‘ यह क्या रश्मि? किसकी कापियां लाई हो? ’’ मां ने फिर पूछा.
‘‘ उसी टीचर की मां.’’ रश्मि ने जवाब दिया, ‘‘ उनके लिए नोट्स उतारने हैं उन्हेंएम.ए. की परीक्षा देनी है.’’
‘‘हूंह! बड़ी अजीब है तुम्हारी टीचर.’’ मां झुझलाकर .
‘‘ नहीं मां, वे मुझे बहुत प्यार करती है, तभी तो.’’ रश्मि रहस्यमयी मुस्कान के साथ बोली.
‘‘ खाक प्यार.’’ रसोई की तरफ जाते हुए मुंह बिचका गई. और इस के कुछ दिन बाद ही मौका देखकर एक दिन रश्मि ने पिताजी से एक किलो कागजी नींबू की फरमाइश की. कारण पूछे जाने पर रश्मि ने बताया टीचर ने नींबू के अचार के लिए कहा है. मां ने यह सुना तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर जा चढ़ा.
आपा खोकर वह चींखती हुई बोली, ‘‘ यह भी कैसी जोर जबरदस्ती है. तुम क्या उनकी घरेलू नौकर हो, जो वे जब तब तुमसे बेगारी कराती रहेगी.’’
‘‘ लेकिन मां मैं क्या करूं? मना करने से कहीं अगर नाराज होकर मुझे फेल कर दें तो...!’’
रश्मि ने दुखी स्वर से लाचारी व्यक्त की.
‘‘ परंतु बेटी यह एक अन्याय है. और अन्याय को सहन करना भी अन्याय और अपराध है. तुम्हें इस अन्याय का विरोध करना चाहिए.’’ यह दृढ़ स्वर पिताजी का था.
‘‘ पापा क्या अन्यायी को अन्याय का अहसास कराने से वह अन्याय छोड़ देगा?’’ रश्मि के प्रश्न में अब भी संशय था.
-‘‘ठीक है, तब कल ही मैं और तुम्हारी मां अध्यापिका से मिलने चलेंगे तुम उन्हें बता देना.’’
-‘‘ठीक है पिताजी.’’
जानबूझ कर रश्मि ने छुट्टी के बाद ही मां- पिताजी को शीला दीदी से मिलवाया.
शीला दीदी इन सबके लिए पहले से ही गंभीर बनी बैठी थी. मां को बोलने का मौका दिए बिना ही वे पहले बोल पड़ी, ‘‘ माफ कीजिए, संतराम क्या आपके यहां रोज काम पर आता है?’’
इस अप्रासंगिक प्रश्न पर मां चौंकी और झल्लायी भी, पर सभ्यता का ख्याल कर बोली-
‘‘ जी हां.’’
‘‘ कब से कब तक के लिए.’’ दीदी ने दूसरा प्रश्न किया.
‘‘ सुबह आठ से नौ और शाम पांच से सात. लेकिन वह सब आप......’’
‘‘ क्या वह आपका घरेलू नौकर है?’’ मां के प्रश्न की परवाह किए बिना दीदी ने पिताजी की तरफ घूम कर उनसे पूछा.
‘‘ जी नहीं, वह मेरे दफ्तर का चपरासी है.’’ पिताजी ने शांत भाव से जवाब दिया.
‘‘ क्या आप उसे कुछ वेतन देते हैं उसके परिश्रम के बदले.’’ दीदी ने दूसरा प्रश्न उछाला.
‘‘ नियमित तो नहीं पर....
‘‘ रोटी, दाल, खाना और पुराने कपड़े आदि देते रहते हैं.’’ मां ने पिताजी का अधूरा वाक्य पूरा किया.
- संतराम क्या आपका काम खुशी से करता है?’’
इस पर मां पिता दोनों मौन रहे.
-अगर वह इसे अन्याय मान कर इसके खिलाफ आवाज उठाए तो जैसे कि अपनी लड़की के खिलाफ चल रहे अन्याय के विरूद्ध शिकायत लेकर आप आए हैं.’’
मां पिताजी दोनों अवाक रह गए. आश्चर्य अध्यापिका खुद अपने किए को अन्याय घोषित कर रही है.
पिताजी कुछ कहते इससे पहले ही शीला बोल पड़ी-‘‘ मैं अब आपको सारी बात बताती हूं. दरअसल यह सब एक नाटक खेला गया. आपकी बेटी रश्मि को आज से एक माह पूर्व एक पत्र प्राप्त हुआ एक अनजान लड़की से. उस लड़की ने अपने पत्र में आप दोनों के प्रति शिकायत लिखी थी कि आप लोग उसके पिता से नाजायज रूप से घर का काम कराते हैं, जबकि वे दफ्तर के चपरासी हैं. उसके पिता इसका सीधे -सीधे विरोध नहीं कर सकते, क्योंकि इससे नौकरी पर भी बात आ सकती है. अत: रश्मि को उसने सहायता के लिए पत्र लिखा. रश्मि ने उस लड़की की भावना को समझा और आप दोनों को अन्याय का बोध कराने के लिए यह सब नाटक खेला जिसमें मुझे भी यह भूमिका करनी पड़ी. रश्मि ने मेरे काम से जो पैसे प्राप्त किए वे संतराम की बेटी को भेज दिए हैं, शायद मुआवजे के रूप में.
अब तक चुपचाप मां भी और चुप न रह सकी, वे बोली, ‘‘ रश्मि को नहीं मुआवजा तो हमें चुकाना है. संतराम की बेटी के पढ़ने का पूरा खर्चा अब हम उठाएंगे, जहां तक भी वह पढ़ना चाहे. और संतराम की भी बेगारी खत्म.’’
पिताजी गर्व से रश्मि की पीठ थपथपाते हुए बोले- ‘‘ शाबाश बेटी! आखिर अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना तुमने सीख ही लिया.’’
और रश्मि ने कृतज्ञता पूर्ण नेत्रों से शीला दीदी का आभार माना.