Kailash Mansarovar - Those Amazing Unforgettable 16 Days - 7 in Hindi Travel stories by Anagha Joglekar books and stories PDF | कैलाश मानसरोवर - वे अद्भुत अविस्मरणीय 16 दिन - 7

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कैलाश मानसरोवर - वे अद्भुत अविस्मरणीय 16 दिन - 7

परिक्रमा का दूसरा व तीसरा पड़ाव

डोलमा ला पास, जुतुलपुक

हमारे समूह के अन्य सदस्य रात को डॉरमेट्री में ही रुक गए । सुबह शायद कैलाश का स्वर्णिम शिखर दिख जाए... इस आशा में सब जल्दी उठ गए लेकिन इस बार भी हमारी किस्मत में स्वर्णिम शिखर देखना नहीं था या कह लीजिये कि कैलाश जी ने कुछ अद्भुत दृश्यों को हमसे छुपा लिया था कि हम फिर से इस यात्रा पर आ सकें ।

सुबह अशोक और सृजन हर बार की तरह गर्म नाश्ते, चाय, कॉफी और बॉर्नविटा दूध लेकर डॉरमेट्री पहुँच गए । सबने नाश्ता किया और वे दो समूहों में बंट गए । पहले समूह में राजू जी, सुजाता जी, विद्या, लक्ष्मी और करकम्मा जी वापस दारचिन आ गए और दूसरा समूह प्रशांत की लीडरशिप में पुनीत जी, जयशंकर जी, रामशंकर केके जी और नंदा दीदी डोलमा ला पास, जो कि परिक्रमा का दूसरा पड़ाव था, के लिए निकल पड़े । यह परिक्रमा का सबसे कठिन पड़ाव था।

यह परिक्रमा उन्होंने सुबह करीब 8:00 बजे शुरू की। वे सभी पैदल परिक्रमा कर रहे थे । सुबह-सुबह ठंड बहुत ज्यादा थी । पुरे डोलमा ला पास के मार्ग पर बर्फ थी इसलिए यह सब पूरे गेयर के साथ चल रहे थे ।

प्रशांत, नंदा दीदी और पुनीत जी तो पहले भी कई बार यह परिक्रमा कर चुके थे लेकिन बाकी तीन पहली बार ही यहाँ आए थे । उन्हें कोई अनुभव न होने के कारण परेशानी ज्यादा हो रही थी । लगभग 4 घंटे तक चलने के बाद यह सब 18500 फीट की ऊंचाई पर कैलाश परिक्रमा के सर्वोच्च बिंदु पर पहुँच गए । वहाँ तिब्बती संस्कृति के अनुसार रंगीन पताका लगी हुई थीं । वहाँ 10 मिनट से ज्यादा रुकने की इजाजत नहीं थी । इसका कारण था बहुत अधिक ऊंचाई और ऑक्सीजन की कमी । इसलिए वहाँ प हुँचते ही तुरंत नीचे उतरना शुरू करना पड़ता है ।

हालाँकि उतरना चढ़ने से ज्यादा मुश्किल था । एक तो खड़ा उतार था । साथ ही नीचे की जमीन भुरभुरी और कहीं-कहीं बर्फ बिछा हुआ था । अपने शरीर को पीछे की ओर झुका कर... अपने पैरों में ब्रेक लगाते हुए उतरना था । क्योंकि गलती से भी शरीर आगे झुक गया तो गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से आपका गिरना निश्चित था और गिरना मतलब लुढ़कते हुए नीचे आना ।

एड़ी से पीछे की ओर बल लगाते हुए खुद को आगे बढ़ाना… बस उस समय इतना ही ध्यान था । 18500 फीट से लगभग 1 घंटे तक नीचे उतरते हुए सभी वहाँ बने टी स्टॉल पर पहुँचे तो थोड़ी राहत की सांस ली । यह तिब्बतन टी स्टॉल था जहाँ तिब्बतन चाय मिल रही थी। इसका स्वाद हमारे लिए नया था फिर भी थोड़ी राहत मिल गई थी । पहले की प्लानिंग के अनुसार यहाँ से टैक्सी करनी थी लेकिन पता चला कि टैक्सी और 3 किलोमीटर नीचे खड़ी है और रास्ते की कठिनाइयों के कारण ऊपर नहीं आ सकती । इतना सुनते ही सब हैरान परेशान… लेकिन मरता क्या न करता । एक बार फिर चलना शुरू किया । पैरों में बार-बार ब्रेक लगाने के कारण अब सीधे रास्ते पर चलना कठिन हो रहा था । ये 3 किलोमीटर 30 किलोमीटर जैसे लग रहे थे । सांस लेने में तकलीफ होने लगी थी । फिर भी हाथों में पकड़ी छड़ी और अपनी हिम्मत के दम पर और भोलेनाथ पर के अटूट विश्वास ने वह उतार भी पार करवा दिया । अब सभी परिक्रमा के तीसरे पड़ाव जुतुलपुक पर पहुँच चुके थे । यहाँ से जयशंकर और केके एम्बुलेंस (टेक्सी) से दारचिन की ओर रवाना हुए लेकिन प्रशांत, पुनीत जी और नंदा दीदी अभी-भी पैदल ही परिक्रमा पूरी कर रहे थे।

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45 km की परिक्रमा पूर्ण करने के बाद उसी दिन प्रशांत, पुनीत जी और नंदा दीदी रात मतलब अर्ली मार्निंग 4:00 बजे 35 km की और ऊपर की चढ़ाई वाली सप्तऋषि केव के लिए पैदल निकल पड़े । वहाँ घोड़े आदि की सुविधा नही है । दरअसल कैलाश पर्वत के अंदर  “सप्तऋषि केव” नाम की एक गुफा है जहाँ हमारे सप्तऋषियों (जिनसे हमारे गोत्र हैं) को साक्षात शिव ने वेद बताये थे । जहाँ उनके 7 पिलर बने हुए हैं, जहाँ वे सप्तऋषि बैठकर तपस्या करते और साक्षात भोलेनाथ के मुख से वेद सुनते थे । इसीलिए उसे सप्तर्षी केव कहा जाता है । वहाँ जाना कल्पनातीत है । वह स्थान बर्फ से ढँके कैलाश पर्वत के अंदर होने के कारण सारे ग्लेशियर पार करके जाना होता है । घुटनों तक बर्फ होती है । वहाँ रस्सियाँ डालकर चढ़ना होता है । इसे परिक्रमा का इनर कोरा कहते हैं । पर्वत के ऊपर से बर्फ के बड़े-बड़े टुकड़े टूट-टूटकर गिरते रहते हैं । हालाँकि नंदा दीदी काफी पीछे रह गयी थीं । वे गुफा तक नहीं पहुँच पाईं लेकिन फिर भी दो जांबाज़ पुनीत जी और प्रशांत वहाँ पहुँचे । उनमें से प्रशांत का चश्मा केव के सामने पहुँचकर टूट गया और वह अंदर नही जा पाया क्योंकि उसे स्नो ब्लाइंडनेस हो सकती थी सो उसे बाहर ही रुकना पड़ा । यह उसकी पांचवी यात्रा थी फिर भी सप्तऋषि केव के अंदर जाना इस बार भी उसकी किस्मत में नहीं था। इसे ही भाग्य कहत हैं शायद । (वहाँ बर्फ इतनी तेज चमकती है कि यदि आपने गॉगल नहीं लगाया तो आप कुछ समय के लिए अंधे हो सकते हैं )

तो ऐसी स्थिति में उन तीनों में से सिर्फ पुनीत जी ही केव के अंदर जा सके । वहाँ पहुंच उन्होंने पूजा की । पुरे रस्ते की रिकॉर्डिंग की और वापस आकर वह रिकॉर्डिंग अपने यूट्यूब चैनल पर डाली।

यहाँ मैं एक बात बता देना चाहती हूँ कि नंदा दीदी, जो सप्तऋषि केव तक भी पैदल चलकर गई थीं, वे कैंसर पेशेंट रह चुकी थीं और रिकवरी के बाद यह उनकी पांचवी कैलाश यात्रा थी, जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया ।

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पहला दल दोपहर करीब 1:00 बजे दारचिन पहुँचा और फिर दूसरा दल मतलब प्रशांत, पुनीत जी और नंदा दीदी 4:00 बजे करीब पहुँचे। हम सब ने इन दोनों ही दलों का तालियों से स्वागत किया । लेकिन उनके आने तक लंच का समय बीत चुका था फिर भी हम सभी उनका इंतजार कर रहे थे । जब वे सब होटल पहुँचे तब हम सब ने मिलकर खाना खाया, डोलमा ला पास के फोटो देखे और फिर सब अपने-अपने अनुभव एक दूसरे से बांटने लगे ।

राजू जी ने भी अपने एक मित्र की मानसरोवर यात्रा में हुए अनुभव बांटे तो उनकी पत्नी सुजाता जी ने नर्मदा परिक्रमा के अनुभव बताए ।

हमारा अगला पड़ाव मानसरोवर ही था शायद इसलिए मुझे खासकर राजू जी के मित्र की मानसरोवर यात्रा के अनुभव ने बहुत प्रभावित किया । उन्होंने बताया कि उनके एक मित्र जो प्रोफेसर रह चुके हैं, वे अपनी पत्नी के साथ 4 साल पहले मानसरोवर की यात्रा पर आए थे । मानसरोवर पर उस समय बहुत ज्यादा ठंड थी लेकिन फिर भी ब्रह्म मुहूर्त में होने वाली अनोखी घटनाओं को देखने के लालच ने उन्हें रात भर मानसरोवर के किनारे बैठने को मजबूर कर दिया । उस ठंड में उनकी पत्नी की वहाँ रुकने की हिम्मत न हुई और वे अपने कमरे में जाकर सो गईं लेकिन प्रोफेसर साहब वहीं बैठे रहे । तभी अचानक उनके सीने में बहुत तेज दर्द हुआ । वे समझ गए कि उन्हें हार्ट अटैक आया है लेकिन डर की जगह उनके मन में एक तरह की संतुष्टि थी कि यदि ये उनका अंतिम समय भी हुआ तो भी वे मानसरोवर और कैलाश की गोद में अंतिम साँस लेंगे । वे बार-बार कह रहे थे कि "भोलेनाथ, यदि यह मेरा अंतिम समय है तो मुझे यहीं से अपने चरणों में स्थान दीजिए ।"

उसी समय उनके एक परम मित्र, जो मानसरोवर से हज़ारों किलोमीटर दूर अपने घर पर सो रहे थे, उन्हें एक सपना आया कि उनका मित्र इस समय मानसरोवर के किनारे जिंदगी और मौत के बीच झूल रहा है । उनकी नींद खुल गई और उन्होंने तुरंत प्रोफेसर साहब को फोन लगाया । फोन प्रोफेसर साहब की पत्नी के पास था । उन्होंने जैसे ही कॉल उठाया उन्हें उन परिचित की आवाज सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ लेकिन फोन का कारण जानने के बाद वे दौड़ती हुई मानसरोवर के किनारे आईं और प्रोफेसर साहब को एम्बुलेंस से तुरंत नीचे बेस कैंप लाया गया ।

यह किस्सा सुनकर मानसरोवर जाने की मेरी इच्छा और बलवती हो गई । वैसे भी हमारा अगला पड़ाव मानसरोवर ही था ।

साथ ही सुजाता जी द्वारा बताई गयी नर्मदा परिक्रमा के वर्णन ने मन में कहीं भविष्य की योजना भी साकार होने लगी । बस, यूँ ही अनुभवों को सुनते हुए बातों-बातों में रात हो गई । हम सब खाना खाकर अपने-अपने कमरों में चले गए लेकिन इस बार का दारचिन का निवास थोड़ा कष्टप्रद रहा । जब हमारा पहला दल वापस आया था तब हमें एक निर्माणाधीन होटल में रहना पड़ा क्योंकि उन दिनों दो लामा वहाँ पधारे हुए थे और उनके कारण सारे होटल बुक थे।

वह रात वहाँ काट कर हमें दूसरे होटल में भेजा गया । वहाँ का कमरा पहले से भी बदतर था । छोटे-से कमरे में बाथरूम, जिसमें भारतीय शैली का कमोड, वहीं वॉशबेसिन जिसका पाइप वहीं खुले में लटका हुआ था । खासकर हमारे कमरे में कमोड उल्टा लगा हुआ था जिसे देखकर उबकाई-सी आ रही थी । दिन जैसे-तैसे कटा तो शाम को फिर रूम बदलना पड़ा । यह रूम उससे भी बुरा था । किसी-किसी कमरे में 5-5 पलंग लगे थे तो किसी में चार । मुझे और किरण दीदी को एक कमरा मिला जिसमें दो पलंग लगे थे । कमरा बहुत ही छोटा था । यह ऊपर की मंजिल पर था । जैसे ही हम अपने सामान उठाकर ऊपर आए तो एक बहुत ही तीखी सीलन की बदबू नाक में घुसी । दीवारों का रंग पूरा उतरा हुआ था । छत चू रही थी । हम जैसे तैसे "ॐ नमः शिवाय" करते हुए कमरे में गए ।

चूँकि मुझे क्लस्ट्रोफोबिया है तो छोटे-से सीलन भरे कमरे में जाते ही मुझे घबराहट होने लगी और मैं रोने लगी । तुरंत हमारा ग्रुप लीडर प्रशांत वहाँ आया । उसने मुझे ढांढस बंधाया । उसने कहा किसी से अपना कमरा बदल लो लेकिन तब तक वसुधा दीदी ने कमरे में कपूर छिड़क दिया और खिड़की खोल दी जिससे शुद्ध हवा अंदर आई और तभी मेरी नजर खुली खिड़की के सामने के दृश्य पर पड़ी ।

खिड़की के ठीक सामने कैलाश का साउथ फेस अपनी पूरी भव्यता के साथ खड़ा मुस्कुरा रहा था । वह देख मैंने उसी कमरे में रुकने का निश्चय कर लिया ।

वह रात खिड़की से बाहर देखते हुए गुजारी और सुबह जल्दी उठ गई । ब्रश करने के लिए जैसे ही नल खोला पूरा गन्दा पानी उस खुले पाइप से बाथरूम में भर गया । जैसे-तैसे मुँह धोया लेकिन उल्टा लगा कमोड देखकर वहाँ नहाने का मन ही न हुआ। बस गीले टिशू पेपर से स्पंजिंग की और नाश्ते के लिए चल पड़ी । तब तक बाकि सब सह यात्री भी नाश्ते के लिए आ चुके थे।

अब हम सब तैयार थे मानसरोवर की यात्रा के लिए...

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