तीसरा पड़ाव
शिगात्से
अब हमें तिब्बत के ही एक और शहर शिगात्से जाना था।
ल्हासा से शिगात्से तक का सफर हमें बस से तय करना था । हम सब सुबह जल्दी उठ कर, नहा धोकर, नाश्ता कर बस में जाकर बैठ गए । बस चल पड़ी । ल्हासा से निकलते ही ब्रह्मपुत्र नदी के दर्शन हुए। हालांकि पानी मटमैला था क्योंकि बरसात का मौसम था लेकिन इतना अधिक विस्तार ली हुई नदी मैंने पहली बार ही देखी थी । ब्रह्मपुत्र तिब्बत की प्रमुख नदियों में से एक है । इसके जल ने ही तिब्बत को सींचा है ।
शिगात्से की ओर बढ़ती हमारी बस धीरे-धीरे चल रही थी। पुनीत जी के लगाए जयकारे "बम बम भोले" और किरण दीदी के "बोल सत साईं भगवान की जय" के साथ ही भजन की सीडी लगा दी गयी । हम सभी रास्ते के दोनों ओर की खूबसूरती देखते जा रहे थे । ऊँचे-ऊँचे पहाड़, उन पर रंग बिरंगी मिट्टी और उस पर बिछी घांस । दूर-दूर तक पठारी क्षेत्र लेकिन आश्चर्य की बात यह थी कि पूरे रास्ते में कहीं भी हमने एक भी बड़ा पेड़ नहीं देखा ।
दोपहर होते ही अशोक और सृजन ने बस में रखे खाने के बड़े-बड़े कनस्तर निकालें। सब ने एक जगह रुक कर खाना खाया । वहाँ हमें पहली बार कड़ाके की ठंड का एहसास हुआ । मैं अपनी खाने की प्लेट उठा दौड़ कर बस में आकर बैठ गई । जबकि मैंने जैकेट पहनी हुई थी फिर भी मैं ठंड से कांप रही थी । बाकि लोग भी अपनी-अपनी प्लेट लेकर धूप वाली जगह आकर खड़े हो गए थे। जब सबका खाना खत्म हुआ तो सब वापस आकर बस में बैठ गए और बस फिर धीमी गति से चलने लगी और यहीं से चीन का आधिपत्य दिखाई देने लगा।
हर 1000 मीटर की दूरी पर कैमरे लगे थे । हर 2 किलोमीटर पर पासपोर्ट चेक होते थे । बस की रफ़्तार 40 किलोमीटर प्रति घंटा से ज्यादा नहीं कर सकते थे । यदि बस की स्पीड थोड़ी भी ज्यादा हो जाती तो आगे के नाके पर हमारा ड्राइवर उतरता, चीनी अफसरों को पेनल्टी के पैसे देता । साथ ही हमारा गाइड "पेमसि" हमारे पासपोर्ट लेकर नीचे उतरता । सबके पासपोर्ट चेक होते । कोई एक चीनी अफसर बस के अंदर आता । हम सबकी सूरत देखता और वापस चला जाता । इस प्रक्रिया के बाद फिर हमारी बस आगे बढ़ जाती । यह बार-बार हो रहा था । इसी तरह धीरे-धीरे 8 घंटे का पहाड़ी सफर तय करते हुए हम शिगात्से पहुँचे । बारिश के दिन थे। लैंडस्लाइड हो रही थी फिर भी हम बिना डरे आगे बढ़ते जा रहे थे।
शिगात्से का वह होटल, जहाँ हमें उस रात रुकना था, बहुत ही कलात्मक ढंग से सजाया हुआ था । दीवारों और छत पर चमकदार लाल पीले रंगों से तरह-तरह के भित्ति चित्र बनाए हुए थे जो चीन की संस्कृति को उजागर करते थे । रिसेप्शन पर ही उनका प्रिय खाद्य पदार्थ "बार्ली की पाउडर" एक बहुत बड़े जहाज नुमा शोपीस में रखी हुई थी । बाईं ओर लिफ्ट थी और दाई और उन का राष्ट्रीय पशु - एक बहुत बड़ा-सा "याक" और याकगाड़ी के स्टैचू बने हुए थे । उस जगह गांव का एक सुंदर-सा दृश्य बनाया हुआ था।
हम कुछ देर रिसेप्शन पर बैठे तो जल्दी-जल्दी चाय, कॉफी, बॉर्नविटा मिल्क और पॉपकॉर्न हाजिर हो गए । वहीं से अल्पाहार करके हम अपने-अपने कमरों में चले गए ।
दोपहर में हम सब शिगात्से शहर घूमने निकले । हल्की गुनगुनी धूप थी लेकिन चलते हुए सांस लेने में परेशानी हो रही थी क्योंकि हम समुद्र तट से काफी ऊपर आ चुके थे । हालाँकि सृजन दिन में दो बार हम सबका ऑक्सीजन लेवल चेक कर रहा था लेकिन जब उसने बताया कि आगे जाने पर कहीं भी बाथरूम या टॉयलेट्स नहीं हैं, तो घबराहट-सी होने लगी। घबराहट न चढ़ाई की थी, न ऑक्सीजन काम होने की... घबराहट तो खुले में नित्य कर्म करने की थी।
हमारे होटल के पास ही एक बहुत सुंदर उद्यान था। हम सब दूर से उसकी खूबसूरती देखकर, आकर्षित हो उसकी ओर चल पड़े लेकिन वहाँ जाकर हमारे आश्चर्य का ठिकाना न रहा क्योंकि उस उद्यान के सभी पेड़-पौधे प्लास्टिक के बने हुए थे । उसके स्वागत द्वार पर तीन अलग-अलग रंगों की कैनोपी बनी हुई थीं । बीच में एक छोटा-सा कृत्रिम तालाब था। शुक्र है कि वह तालाब प्लास्टिक का नहीं था । उसमें पानी असली था । उस तालाब पर एक छोटा-सा ब्रिज बना था जहाँ से एक छोटे से मंदिर के लिए रास्ता था । इस तरह प्लास्टिक के फूल देखकर थोड़ा अजीब लगा लेकिन हो सकता है कि वहाँ की ठंड में असली फूल पनप नहीं पाते होंगे । हम काफी देर वहाँ बैठे रहे और फिर होटल वापस लौट आए । रात का खाना खाया और वह रात उसी होटल में गुजारी ।
सुबह उठे तो उनके रेस्टोरेंट में नाश्ते की व्यवस्था थी । पहले तो यही समझ न आया कि क्या खाया जाए क्योंकि अधिकतर नॉन वेजिटेरियन था । वहाँ उपस्थित एक इंग्लिश बोलने वाले व्यक्ति ने बताया कि ब्रेड पर बार्ली पाउडर लगाकर, उसमें शहद डालकर खाने से काफी ताकत मिलती है । मरता क्या न करता । आखिर ब्रेड, बार्ली पाउडर, शहद, किसा हुआ गाजर, प्याज, उबले हुए आलू खाकर ही नाश्ता पूरा किया । तभी कोई याक बटर मिल्क ले आया । पहले तो वह दूध पीने की हिम्मत न हुई क्योंकि कभी याक का दूध न पिया था। लेकिन फिर हिम्मत कर उस मिल्क का जैसे ही एक घूंट पिया ; हालत खराब हो गई । “हम गाय या भैंस का दूध पीने वाले लोग याक मिल्क नहीं पी पाते” , किसी के कहे ये शब्द मुझे याद हो आए ।
खैर वहाँ से तरोताजा होकर हम सब हमारे अगले पड़ाव के लिए बस के 12 घंटे के सफर पर चल पड़े।
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