Kailash Mansarovar - Those Amazing Unforgettable 16 Days - 2 in Hindi Travel stories by Anagha Joglekar books and stories PDF | कैलाश मानसरोवर - वे अद्भुत अविस्मरणीय 16 दिन - 2

Featured Books
  • The Devils Journalist Wife - 1

    राजीव जया को कहता है, "मौत सामने है  और ऐसी बाते  कर  रही हो...

  • रूहानियत - भाग 8

    Chapter -8मुस्कुराने को वजह अब तकसमीर नील को मनाते हुए," चलो...

  • Aapke Aa Jaane Se - 4

    अब तकरागिनी की मां ने जब रागिनी को स्कूल छोड़कर घर वापिस लौट...

  • प्रेम अगन - Ek Contract Love - 10

    अगले दिन...एक खूबसूरत लड़की छोटे से चट्टान पर बैठी हुए प्राक...

  • बेजुबान - 2

    उस रात वह बिस्तर में लेटा हुआ था।मोबाइल का जमाना था नही।मतलब...

Categories
Share

कैलाश मानसरोवर - वे अद्भुत अविस्मरणीय 16 दिन - 2

दूसरा पड़ाव

ल्हासा

ल्हासा का अर्थ होता है - देवताओं की भूमि ।

ल्हासा सचमुच ही देवताओं की भूमि-सी सुंदर जगह है। यह तिब्बत का एक सुंदर शहर है। पहले तिब्बती स्वतंत्र क्षेत्र था लेकिन अब यह चीन के अधिकार क्षेत्र में आता है।

आइए अब पहले तिब्बत के बारे में थोड़ा जान लेते हैं… फिर यात्रा पर आगे बढ़ते हैं -

तिब्बत में मुख्यतः बौद्ध धर्म प्रचलित है लेकिन फिर भी तिब्बत के हर मंदिर में हिंदू धर्म के भी अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं, खासकर देवियों में काली, तारा देवी, भैरवी, सरस्वती की मूर्तियाँ बहुत ही भव्य और सुंदर है ।

ऐसा पढ़ने में आता है कि तिब्बत में 650 ईस्वी में एक पराक्रमी राजा स्त्रोंग सान गाम्पो का राज था । उन्होंने अपने कार्यकाल में चीन पर आक्रमण किया था जिसमें उन्होंने संपूर्ण चीन पर विजय प्राप्त कर ली थी और वहाँ की राजकुमारी से विवाह कर लिया था । उन दिनों चीन में बौद्ध धर्म अपनी जड़े जमा चुका था । राजा स्त्रोंग सान गाम्पो ने अपनी इस रानी के साथ उसके बौद्ध धर्म को भी सम्मान देना शुरू किया । इसी दरमियान राजा ने अपने राज्य विस्तार के लिए जब नेपाल पर आक्रमण किया तो तत्कालीन राजा ने समर्पण करते हुए सुलह का हाथ आगे बढ़ाया साथ ही अपनी कन्या का विवाह राजा स्त्रोंग सान गाम्पो के साथ करवा दिया।

नेपाल की वह सुंदर राजकुमारी भी बौद्ध धर्म की अनुयाई थी । विवाह के बाद वह अपने साथ भगवन बुद्ध की एक बहुत बड़ी प्रतिमा तिब्बत ले आई और राजा पर दबाव डालकर उस प्रतिमा के लिए एक भव्य मंदिर बनवा लिया जो तिब्बत की राजधानी ल्हासा में स्थित है। मंदिर की स्थापना के बाद इसमें वह बहुमूल्य मूर्ति रखी गई। साथ ही राजा ने स्वयं भी बौद्ध धर्म अपना लिया और बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के साथ अपने कुछ राज दरबारियों को भारत भेजा ताकि वह भारत की पवित्र भूमि से ज्ञान अर्जित कर सकें और बौद्ध धर्म का प्रचार कर सकें ।

तिब्बत में पहले गोम्पा अर्थात मठ आधारित शिक्षा व्यवस्था थी। यहाँ के मुख्य शिक्षा पीठ ड्रेपुंग, सेरा व्थे, गन्देंन गुफाएं हैं । इस शिक्षा प्रणाली में 3 नाम प्रमुख हैं - त्रापा, दाबा और लामा।

जन्म के पश्चात बच्चों को किसी शिक्षा मठ में अथवा घर पर शिक्षा दी जाती थी । यदि बच्चा किसी कारणवश मठ नहीं का सकता था तो उसके प्रारंभिक शिक्षा की जिम्मेदारी मठाधीश को लेनी पड़ती थी या गांव में रह रहे कोई लामा इनकी जिम्मेदारी लेता था। लामा का अर्थ महात्मा होता है। ये लामा गे-गान कहलाते हैं तथा शिक्षा के इस प्रथम सोपान को गे-थ्रुक। परीक्षा के उपरांत गे-गान मठाधीश के अधीन जो विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे… ये त्रापा कहलाते। यही इनका मुंडन किया जाता था और गेरुआ वस्त्र पहनाया जाता । ये त्रापा गुरु की सेवा करते। थोड़े और बड़े होने पर इनकी फिर परीक्षा ली जाती और उत्तीर्ण होने पर ये गे-नियेन कहलाते। इस समय इनके व्यवहार, आचरण अदि पर ध्यान दिया जाता और ४ वर्ष बाद फिर इनकी परीक्षा ली जाती। सारी परीक्षाएं उत्तीर्ण करने पर उन्हें पुरोहित कहा जाता।

सभी परीक्षाएं उत्तीर्ण आने के बाद ये पुरोहित कहलाते । 20 वर्ष तक की आयु तक ये त्रापा और उसके बाद लामा कहलाते जिन्हें सारी सरकारी सुविधाएँ उपलब्ध होती थीं लेकिन लामा कहलाने के लिए इन्हे कठिन व्रत का पालन करना पड़ता… जिसमें मांसाहार, प्राणीहत्या, व्यभिचार, सुरापान आदि निषेध था साथ ही सारे व्यसन त्याग कर साधु का जीवन जीना पड़ता था। यहाँ से उनके सामने 2 मार्ग होते - निर्वाण प्राप्त के लिए कठिन तप अथवा गृहस्थ जीवन। यहाँ के सभी मठों को गुम्फा कहते थे ।

जोखांग टेंपल और पोटला पैलेस

ल्हासा तिब्बत के यातायात का प्रमुख शहर था लेकिन चीन के अधिपत्य के बाद और निखर आया । ल्हासा में ही राजा स्त्रोंग सान गाम्पो द्वारा बनवाया गया जोखांग मंदिर है जिसमें बुद्ध की मूर्ति विराजमान है । इस मंदिर में भगवान बुद्ध का बालरूप विद्यमान है। इस सुंदर से मुख्य मंदिर के परिसर में कई और छोटे-बड़े मंदिर हैं जिनमें हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियाँ हैं । जोखांग मंदिर की प्रतिमा को जागृत माना जाता है । इस मंदिर का इतिहास में अपना अलग ही महत्व है ।

कहा जाता है कि जोखांग टेंपल में एक काली माता का भी मंदिर है जो पूरे ल्हासा का रक्षण करती हैं परंतु हमारी यात्रा के दौरान हम इस मंदिर को नहीं देख सके लेकिन हाँ... वहाँ 2 मंदिर और थे जो वहाँ की मान्यता के अनुसार उन 2 राजकुमारियों के मंदिर हैं जो चीन और नेपाल से बौद्ध धर्म को साथ लेकर ल्हासा आई थीं और राजा स्त्रोंग सान गाम्पो की प्रिय रानियाँ बनीं ।

---------

अब बात करते हैं पोताला पैलेस की । वैसे तो इस पैलेस की नींव भी राजा स्त्रोंग सान गाम्पो ने ही रखी थी लेकिन इसका नवनिर्माण 17वीं शताब्दी में पंचम दलाई लामा ने करवाया था । यह दलाई लामा का निवास स्थान था । इसकी ऊंचाई समुद्र तट से 3700 मीटर है।

उन दिनों पोताला पर्वत पर दूर-दूर से लोग तपस्या करने आया करते थे । यह पोताला पर्वत पंचम दलाई लामा का पसंदीदा स्थान था । उन्होंने अपने मंत्रियों को बुलवाकर बताया कि वह इस पर्वत पर एक विशाल प्रासाद बनवाना चाहते हैं। उस प्रासाद की पूरी रूपरेखा और कारीगरी दलाई लामा की उपस्थिति में की गई । तिब्बत के निवासियों ने इस प्रसाद के निर्माण के लिए अपने पास का धन सहर्ष दान कर दिया । इस 13 मंजिले प्रासाद में लगभग 1000 कमरे बनवाने का काम चालू हो गया । अभी दूसरी मंजिल ही बनकर तैयार हुई थी कि दलाई लामा का स्वास्थ्य बिगड़ गया और कुछ ही दिनों बाद उनकी मृत्यु हो गई परंतु जाने से पहले उन्होंने अपने विश्वसनीय मंत्रियों को बुलाकर कहा था कि यदि प्रासाद का काम पूरा होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो जाए तो भी निर्माण कार्य चलते रहना चाहिए ।

उनकी मृत्यु के बाद, उनके मंत्रियों ने आपस में मंत्रणा कर, चुपचाप दलाई लामा की मृत देह प्रासाद की दूसरी मंदिर पर ही दफन कर दी और बाहर किसी को खबर तक न होने दी । उनकी अस्वस्थता के समाचार के साथ ही प्रासाद का निर्माण होता रहा क्योंकि उन्हें डर था कि अभी यदि उनकी मृत्यु का समाचार बाहर फैल गया तो जनता उस प्रासाद को बनाने में धन से सहायता नहीं करेगी और दलाई लामा का सपना अधूरा रह जाएगा ।

अंततः 13 वर्षों की कठिन मेहनत के बाद यह 13 मंजिला प्रासाद अपनी पूरी भव्यता के साथ पोताला पर्वत पर खड़ा हो गया ।

इस प्रासाद में एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने के लिए सीढियाँ चढ़ना-उतरना पड़ता है । पहाड़ काटकर बनाए जाने के कारण यहाँ कुछ भी समतल नहीं है । कमरे छोटे-छोटे और बहुत कम ऊंचाई के हैं । अंदर बहुत दबा-दबा सा माहौल है । इन कमरों में से एक कमरे में राजा स्त्रोंग सान गाम्पो की मूर्ति और उसके दोनों रानियों की भव्य मूर्तियाँ हैं । साथ ही दलाई लामा की समाधि भी है ।

जब यह प्रासाद पूरा बनकर तैयार हो गया था तब पांचवे दलाई लामा के शव को बाहर निकाल कर उनकी विधिवत समाधि बनाई गई । यहाँ की अन्य समाधियों पर खालिस सोने का पत्र चढ़ा हुआ है। बाकि मूर्तियों पर सोने का पानी और पत्र हैं लेकिन मुख्य समाधि 1 टन सोने से बनी है जो आँखें चौंधिया देती है ।

----------

जब हमारा कारवां पोताला पैलेस पहुँचा तो हमें एक तिब्बतन गाइड दिया गया जिसने हम सब के गले में एक-एक डिवाइस लटका दिया और कान में उसकी लिड लगा दी । अब वह जो भी बोलता… हम सब एक साथ सुनते । बस से उतरते ही भव्य पोताला पैलेस लाल और सफेद रंग की दीवारों के बीच हमारे सामने खड़ा था । उसकी तलहटी में सुंदर फूलों के बाग लगे थे । हम सब ने मन भर कर फोटो खींचे और फिर शुरू हुई पोताला पैलेस की सीढियाँ चढ़ने की कवायद ।

टिकट लेने के बाद हमने चढ़ना शुरू किया । पत्थर की बड़ी-बड़ी घुमावदार सीढ़ियाँ । वह शायद हमारे कैलाश पर्वत चढ़ने का ट्रायल था । ऊपर पहुँचते-पहुँचते सांस फूलने लगी थी । पैलेस के प्रवेश द्वार पर पहुँचकर हम सब सीढ़ियों पर ही बैठ गए । वहाँ से पूरा ल्हासा शहर किसी मायानगरी-सा दिख रहा था । तभी गाइड की आवाज कानों में पड़ी- "सामने एक बड़ी पहाड़ी है जिसे औषधि पहाड़ कहा जाता है। यहाँ तरह-तरह की औषधियों के पेड़ पौधे प्रचुर मात्रा में लगे हैं । पीछे की पहाड़ी पर ल्हासा का मेडिकल कॉलेज है।" यह सुनकर रोमांच हो आया कि यहाँ भी लोग आयुर्वेद को मानते हैं।

वहाँ कुछ देर आराम करने के बाद हमने पैलेस के अंदर प्रवेश किया । बहुत ही संकरी सीढ़ियों पर बार-बार चढ़ना-उतरना बहुत कठिन और थकाने वाला था । लेकिन गाइड ने बताया था कि हम विजिटर्स को सिर्फ 2 घंटे का समय ही उपलब्ध है जबकि यहाँ पर आने के लिए हमें करीब डेढ़ घंटा क्यू में खड़े होकर इंतजार करने में लगा था। उस दिन वहाँ करीब 500 लोग पैलेस देखने आए हुए थे क्योंकि उस दिन तिब्बत का कोई त्यौहार था।

पैलेस में अदर जानेके लिए मख्य दवार पर दो अलग-अलग सीढ़ियाँ थीं । एक आम जनता के लिए और एक लामाओं के लिए । एक और मजेदार बात थी कि वहाँकाला चशमा लगाना मना था ।

हम सब इस महल में घुसने के बाद अजीब-सा अनुभव कर रहे थे। इतना बड़ा महल लेकिन घुटन-सी हो रही थी। वहाँ कई दलाई लामाओं की मृत्यु हुई थी और उन्हें इसी प्रासाद में दफनाकर उनकी समाधि बनाई गयी थी। हर समाधि के पास मोम के कुंड थे जहाँ मोम के दीप जलते रहते थे । वहाँ ऐसी मानता है कि वे मोम के दीप ही हमारे इस लोक को परलोक और आत्माओं से जोड़ते हैं ।

हम सब गंभीर हो घूम रहे थे कि तभी हमारे गाइड की आवाज कान में पड़ी । उसने एक और अनोखा किस्सा बताया । वह किस्सा ऐसा था कि जो छठे दलाई लामा थे, उन्हें मदिरा पीने का शौक था । वे छोटे-छोटे गिलास में मदिरा पिया करते थे लेकिन जब उनके दर्शन को लोग आते तो वे कहते कि मेरे हाथ में मदिरा का ग्लास नहीं बल्कि पुस्तक है और लोगों को वह ग्लास पुस्तक जैसा दिखने लगता था।

वहीं पास में सातवें दलाई लामा के हाथ की बनी एक भव्य मूर्ति थी जो हमारे श्री कृष्ण के विशाल अवतार की तरह थी । वहाँ तथागत के मुख्य शिष्यों की मूर्तियाँ भी थीं । सारी मूर्तियों पर सोने के पत्र लगे थे फिर भी अंदर की हवा दमघोटूं थी । जैसे-तैसे हम छत पर पहुँचे तब खुली हवा में सांस लेकर सुकून मिला ।

पोताला पैलेस में एक लाल और एक सफेद महल है। लाल महल में शौचालय थे लेकिन सफेद महल में एक भी नहीं क्योंकि सफेद महल को मंदिर की तरह और लाल महल को रहवासी क्षेत्र की तरह माना जाता है।

पोताला पैलेस से वापस आने पर अनुभव हुआ कि पैर पत्थर से कड़क हो गए हैं । लेकिन यह तो मात्र शुरुआत थी । अभी तो पूरी 55 किलोमीटर की कैलाश परिक्रमा करनी बाकी थी।

--------------