Urvashi and Pururava Ek Prem Katha - 4 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | उर्वशी और पुरुरवा एक प्रेम कथा - 4

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उर्वशी और पुरुरवा एक प्रेम कथा - 4






उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा

भाग 4


उर्वशी और पुरुरवा को साथ में समय व्यतीत करते हुए एक सप्ताह से भी अधिक समय बीत गया था। किंतु दोनों को ऐसा लगता था कि जैसे वो अभी कुछ क्षणों पहले ही मिले हैं। जितना वह दोनों एक दूसरे के साथ समय बिताते थे उतना ही अधिक दोनों की साथ रहने की इच्छा बलवती होती जा रही थी।
महाराज पुरुरवा अनुभव कर रहे थे कि जिस प्रेम की व्याख्या उनकी रानी औशीनरी ने की थी वह उर्वशी के प्रति उसी प्रकार के प्रेम की अनुभूति कर रहे हैं। उर्वशी उसी प्रकार से उनके जीवन का अभिन्न अंग बन गई थी जैसे फूल में सुगंध। वह यह जानते थे कि उर्वशी एक अप्सरा है। उसे वापस इंद्रलोक जाना पड़ेगा। किंतु यह विचार मन में आते ही उनका मन विचलित हो जाता था। अतः वह हर क्षण उर्वशी के साथ रहते थे।
उर्वशी का भी ऐसा ही हाल था। जीवन में पहली बार वह इस प्रकार एक पुरुष की तरफ आकर्षित हुई थी। पुरुरवा एक वीर पुरुष था। किंतु उसके चैड़े विशाल वक्ष के भीतर एक बहुत ही कोमल ह्रदय था। कठोरता और कोमलता का ऐसा अनोखा संगम उर्वशी ने पहली बार देखा था। पुरुरवा के साथ मृगया के लिए जाना, चौसर खेलना, उसके लिए नृत्य करना उसे बहुत अच्छा लगता था। पुरुरवा के साथ व्यतीत किया गया समय उसके लिए एक सुखद स्वप्न की तरह था। वह भी जानती थी कि उसे इस सुखद स्वप्न से बाहर आना पड़ेगा। वह भी इसी बात से चिंतित थी। वह पुरुरवा से विलग नहीं होना चाहती थी।
सर्वत्र चांदनी बिखरी हुई थी। उर्वशी और पुरुरवा दोनों एक शिला के ऊपर बैठे हुए थे। दोनों ही शांत थे। पुरुरवा की गोद में एक मेष शावक था जिसे वह प्यार से सहला रहे थे। दूसरा मेष शावक उर्वशी के पास था। अचानक ही वह उर्वशी की पकड़ से निकल कर भागने लगा। उर्वशी भी उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे भागी। किंतु चंचल मेष उसकी पकड़ में नहीं आ रहा था। पुरुरवा कुछ देर तक बैठ कर यह संघर्ष देखते रहे। किंतु जब मेष शावक उर्वशी के वश में नहीं आया तो वह उठे और सधे कदमों से चलते हुए शावक के पास गए। इससे पहले कि वह सावधान होता उन्होंने उसे पकड़ लिया। उन्होंने जिस तरह शावक को पकड़ा उसे देख कर उर्वशी ने आश्चर्य से कहा,

"आपने कितनी चतुराई से इस चंचल शावक को पकड़ लिया।"

पुरुरवा ने मेष शावक उर्वशी को देते हुए बड़े दार्शनिक भाव से कहा,

"मनुष्य कितना भी चतुर और फुर्तीला हो किंतु समय की बहती धार को नहीं रोक सकता है। वह तो अपनी ही गति से आगे बढ़ता जाता है।"

उर्वशी ने शावक को अपनी गोद में बैठा लिया। पर वह पुरुरवा की बात का आशय समझ नहीं पाई थी। पुरुरवा ने समझाया,

"उर्वशी मैं तुमसे कितना अधिक प्रेम करता हूँ यह शब्दों में समझा पाना मेरे लिए कठिन है। तुमसे बिछड़ने का विचार मेरे ह्रदय को बाण की भांति चुभता है। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि तुम सदा के लिए मेरी होकर यहीं रह जाओ ?"

पुरुरवा के मन की बात सुनकर उर्वशी मौन हो गईं। वह भी पुरुरवा के साथ रहना चाहती थी। लेकिन वह अपनी विवशता जानती थी। उसने अपनी व्यथा बताते हुए कहा,

"महाराज आप मेरी विवशता को समझिए। मैं चाह कर भी यहाँ नहीं रह सकती हूँ। मैं एक अप्सरा हूँ। मेरा कार्य देवताओं का मनोरंजन करना है। मुझे देवराज इंद्र की सेवा में प्रस्तुत होना ही पड़ेगा। मुझे एक मानवी की भांति प्रेम करने अथवा घर बसाने का अधिकार नहीं है।"

अपनी बात कह कर वह पुरुरवा के वक्ष में मुंह छिपा कर रोने लगी। पुरुरवा समझ गए कि उनके सुखद सपने के टूटने का समय आ गया है।


उर्वशी वापस इंद्रलोक चली गई। महाराज पुरुरवा भारी मन से अपनी राजधानी में लौट आए। परंतु उनका मन किसी भी बात में नहीं लगता था। उनकी इस अवस्था का राज्य के कार्यों पर भी असर पड़ रहा था। जब वह राजसभा में बैठते थे तो उनका ध्यान उर्वशी पर ही रहता था।
महाराज पुरुरवा की इस मनोदशा के कारण सभी चिंता में थे। विशेषकर उनके महामंत्री लतव्य। उनकी चिंता थी कि यदि महाराज की यही दशा रही तो राज्य के सुचारु संचालन में बाधा पड़ेगी। अतः वह यह समस्या लेकर रानी औशीनरी के सामने प्रस्तुत हुए। रानी औशीनरी ने पूँछा,

"कहिए मुख्यमंत्री जी आपका मेरे सम्मुख आने का क्या कारण है ?"

लतव्य ने गंभीर स्वर में कहा,

"महारानी महाराज पुरुरवा जब से मृगया से लैटे हैं तब से ही उनका चित्त उदास रहता है। राजकार्यों में वह अधिक ध्यान नहीं दे पाते हैं। इसका राज्य संचालन पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।"

लतव्य ने हाथ जोड़ कर महारानी से निवेदन किया।

"कृपया आप महाराज से उनकी इस मनोदशा का कारण जानने का प्रयास कीजिए।"

लतव्य अपनी विनती करके चले गए। उनके जाने के बाद रानी औशीनरी विचारमग्न हो गईं। उन्होंने भी महाराज पुरुरवा से उनकी उदासी का कारण जानने का प्रयास किया था। किंतु महाराज ने कुछ भी स्पष्ट रूप से नहीं बताया। वह स्वयं भी महाराज की इस दशा को लेकर बहुत चिंतित थीं। उन्होंने तुरंत महाराज के प्रधान सेवक मानवक को उपस्थित होने का संदेशा भिजवाया।
महारानी का संदेशा पाकर मानवक समझ गया कि उसे क्यों उपस्थित होने के लिए कहा गया है। वह महाराज पुरुरवा का प्रमुख सेवक व सलाहकार था। मृगया के लिए भी वह महाराज पुरुरवा के साथ गया था। मृगया के दौरान जो कुछ हुआ वह सब जानता था। उसने अपनी सीमा में रहते हुए महाराज को समझाने का प्रयास भी किया था। किंतु महाराज उर्वशी के विरह में व्याकुल थे। उन्होंने उसकी सलाह को अनसुना कर दिया। महारानी के पास जाते हुए मानवक ने महारानी को सारी बात कैसे बतानी है इसकी रूपरेखा तैयार कर ली थी। महारानी के सामने पहुँच कर मानवक ने कहा,

"महारानी की सेवा में मानवक का प्रणाम। कहिए आपने मुझे क्यों स्मरण किया।"

"मानवक तुम तो महाराज के प्रमुख सेवक हो। सदैव उनके साथ रहते हो। महाराज जब से मृगया से वापस आए हैं तब से बहुत उदास हैं। तुम तो महाराज के साथ गए थे। तुम्हें अवश्य पता होगा कि वहाँ क्या हुआ ?"

मानवक पहले से ही अपना उत्तर सोंच कर आया था। उसने पूरे सम्मान के साथ कहना आरंभ किया।

"महारानी यदि किसी की कोई प्रिय वस्तु खो जाती है तो वह उदास हो जाता है। महाराज भी इसी कारण उदास हैं।"

उसकी बात सुनकर रानी औशीनरी ने आश्चर्य से कहा,

"महाराज की ऐसी कौन सी वस्तु खो गई है जिसकी वजह से वह उदास हैं।"

"महारानी मृगया के दौरान महाराज को उर्वशी नाम की अप्सरा से प्रेम हो गया था। दोनों एक दूसरे के साथ बहुत प्रसन्न रहते थे। किंतु अप्सरा उर्वशी को इंद्रलोक वापस जाना पड़ा। यही महाराज के दुख का कारण है।"

मानवक द्वारा बताए गए कारण को जानकर महारानी औशीनरी और अधिक चिंता में पड़ गईं। एक पत्नी होने के नाते उन्हें महाराज पुरुरवा का अन्य स्त्री के लिए इस प्रकार व्याकुल होना अच्छा नहीं लगा। महारानी की मनोदशा समझ कर मानवक ने आगे कहा,

"महारानी मैंने अपनी मर्यादा में रहते हुए महाराज को इस अवस्था से निकालने का प्रयास किया। किंतु सफल नहीं हो सका। अब महारानी को ही यह कार्य करना होगा।"

महारानी औशीनरी ने मानवक को जाने के लिए कहा और उसके दिए गए परामर्श पर विचार करने लगीं।