उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा भाग 2.
संध्या का समय था। महाराज पुरुरवा अपनी रानी औशीनरी के साथ राज उद्यान में टहल रहे थे। दोनों ही मौन अपने विचारों में लीन थे। महाराज पुरुरवा का मन एक अजीब से प्रश्न में उलझा हुआ था। उन्होंने रानी औशीनरी से वह प्रश्न किया,
"रानी क्या आप बता सकती हैं कि प्रेम क्या है।"
पुरुरवा का यह विचित्र प्रश्न सुनकर रानी कुछ अचरज में पड़ गईं। वह सोचने लगीं कि महाराज यह किस प्रकार का प्रश्न कर रहे हैं। किंतु स्वयं को नियंत्रित कर बोलीं,
"प्रेम वही है जो मैं आपसे करती हूँ और आप मुझसे।"
पुरुरवा रानी औशीनरी के इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए। वह इससे भी अधिक विस्तृत उतर की अपेक्षा कर रहे थे। पुरुरवा ने अपनी रानी के चेहरे की तरफ देख कर कहा,
"हाँ किंतु उसे परिभाषित कैसे किया जा सकता है।"
रानी औशीनरी ने कहा,
"आर्य प्रेम कोई वस्तु तो है नहीं जिसके आकार और रूप रंग को शब्दों में वर्णित किया जा सके। प्रेम तो एक भावना है। जिसकी अनुभूति ह्रदय में की जा सकती है।"
"आप ठीक कहती हैं रानी औशीनरी। क्या आप प्रेम की अनुभूति के बारे में बता सकती हैं।"
"आर्य यह अनुभूति भी हर एक व्यक्ति के लिए अलग प्रकार की हो सकती है। जैसे यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य केवल मनुष्य से प्रेम करे। वह प्रकृति से प्रेम कर सकता है। धरती पर रहने वाले अन्य जीव जंतुओं से प्रेम कर सकता है।"
दोनों उद्यान में टहलते हुए बातें कर रहे थे। रानी औशीनरी टहलते हुए थक गई थीं। अतः राज उद्यान में लगे झूले पर बैठते हुए आगे बोलीं,
"मनुष्य का मनुष्य से प्रेम भी अलग अलग प्रकार का होता है। जैसे माता पिता से प्रेम, भाई बहन से प्रेम, सखा से प्रेम आदि। अपनी जन्मभूमि से प्रेम करना प्रेम का आदर्श रूप है।"
पुरुरवा अपनी रानी के पास बैठते हुए बोले,
"एक स्त्री एवं पुरुष के बीच प्रेम की भावना को आप कैसे समझाएंगी ?"
अपने पति का प्रश्न सुनकर रानी औशीनरी के नेत्रों में मादकता और चेहरे पर लज्जा की हल्की सी लालिमा छा गई। उन्होंने मद भरे अपने नेत्र उठाकर महाराज पुरुरवा को देखकर कहा,
"आर्य मेरे अनुसार तो एक स्त्री एवं पुरुष के बीच का प्रेम संसार की सबसे मोहक भावना है। इसमें श्रृंगार रस है। एक दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पण है। यह एक ऐसी मादकता है जिसमें व्यक्ति हर पहर डूबा रहता है।"
रानी औशीनरी के मादक नेत्रों का असर हुआ। पुरुरवा ने रानी का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा,
"इस प्रेम में एक नशा तो है। किंतु क्या यह मदिरा के नशे की तरह हैं जो चढ़ता है और फिर उतर जाता है।"
रानी औशीनरी ने समझाते हुए कहा,
"यह तो प्रेम की सच्चाई पर निर्भर है आर्य। यदि प्रेम सच्चा हो और गहरा हो तो यह नशा कभी नहीं उतरता है। वियोग की स्थिति में भी व्यक्ति अपने प्रियतम को नहीं भूल पाता है। वह अपने प्रियतम के लिए उसी प्रकार तड़पता है जिस तरह जल के बिन मीन।"
पश्चिम दिशा में सूर्य अस्त हो रहा था। पुरुरवा और औशीनरी राजमहल लौट आए।
राजमहल में लौटने के बाद भी पुरुरवा प्रेम के विषय में ही सोंचते रहे। रानी के अनुसार सच्चा प्रेम गहरे रंग की तरह होता है। जो लाख उतारने पर भी नहीं उतरता है। पुरुरवा रानी के लिए अपने प्रेम को इस कसौटी पर कसने का प्रयास कर रहे थे। वह अपनी रानी को चाहते थे। उनके साथ समय व्यतीत करना उन्हें अच्छा लगता था। वह विचार कर रहे थे कि क्या वह वैसा सच्चा प्रेम है जैसा रानी ने बताया था।
पुरुरवा ने विचार किया कि अक्सर वह राज्य के कार्य से या मृगया के लिए रानी से दूर जाते हैं। तब उस वियोग में उन्हें वैसी छटपटाहट तो अनुभव नहीं होती है जिसका वर्णन रानी ने किया था। वह रानी को एक पत्नी के नाते प्यार करते हैं। अपना पति धर्म निभाने में कोई कमी नहीं रखते। किंतु एक प्रियतम के समान उनके प्रेम में रानी के लिए तड़प नहीं है। तो इसका अर्थ यह हुआ कि उनका प्रेम सच्चा नहीं है। या फिर रानी ने प्रेम के जिस रूप का वर्णन किया है वह केवल कवियों की कल्पना की देन है। यदि रानी के द्वारा बताया प्रेम सही है तो फिर क्या उन्हें कभी ऐसा प्रेम किसी से होगा।
रानी औशीनरी ने रात्रि के भोजन के लिए सभी पकवान पुरुरवा की रुचि के अनुसार ही बनवाए थे। किंतु पुरुरवा भोजन में रुचि नहीं दिखा रहे थे। उन्हें चिंताग्रस्त देख कर रानी औशीनरी ने कहा,
"क्या बात है आर्य आज आप भोजन में रुचि नहीं दिखा रहे हैं। कोई बात है जो आपको व्यथित कर रही है।"
पुरुरवा रानी को अपने मन की व्यथा बता कर परेशान नहीं करना चाहते थे। चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लाकर बोले,
"बस कुछ थकान सी लग रही है। कई दिन हो गए राज कार्य में व्यस्त रहा। इसी कारण मृगया के लिए भी नहीं जा सका। सोंचता हूँ कि कुछ समय मृगया के लिए चला जाऊँ।"
"तो अपना मन बहला आइए। वैसे भी इस समय राज्य में कोई समस्या नहीं है।"
रानी की बात सुनकर महाराज पुरुरवा हल्के से मुस्कुरा दिए। उसके बाद वह चुपचाप भोजन करने लगे। लेकिन उनका मन भोजन में नहीं लग रहा था। थोड़ा सा भोजन करके वह उठ गए।
रात्रि को शयन कक्ष में लेटी हुई औशीनरी पुरुरवा की उद्विग्नता के बारे सोच रही थीं। उन्हें अनुभव हो रहा था कि संध्या के समय से ही महाराज का चित्त उदास था। किंतु इसका कारण क्या हो सकता है वह समझ नहीं पा रही थीं। महाराज ने जो कारण बताया था रानी औशीनरी उससे संतुष्ट नहीं थीं।
अपने वैवाहिक जीवन के दौरान उन्होंने कभी भी महाराज पुरुरवा को इस मनोदशा में नहीं देखा था। आज संध्या के समय वह जिस तरह प्रेम को लेकर चर्चा कर रहे थे वह उन्हें बहुत विचित्र लगा था। वह समझ नहीं पा रही थीं कि अचानक महाराज प्रेम के विषय में इस प्रकार बात क्यों कर रहे थे। वह तो महाराज पुरुरवा को अपने ह्रदय की गहराई से प्रेम करती हैं। तो क्या महाराज पुरुरवा उनके प्रेम को समझ नहीं पाए ? यदि ऐसा होता तो प्रेम को समझने के लिए महाराज पुरुरवा को इस प्रकार प्रश्न ना करने पड़ते।
वह यह सोचकर दुखी थीं कि उनका प्रेम महाराज पुरुरवा के ह्रदय में स्थान नहीं बना पाया।
महाराज पुरुरवा भी उद्विग्न थे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि उनके मन की यह स्थिति क्यों हो रही है ? प्रेम को लेकर उनके मन में यह विचित्र से प्रश्न क्यों उठ रहे हैं ? उन्हें लग रहा था कि वास्तव में कुछ समय अवकाश लेने की आवश्यकता है।
महाराज पुरुरवा ने मृगया पर जाने का मन बनाया।