उर्वशी और पुरुरवा
एक प्रेम-कथा
भाग 1
देवराज इंद अपनी परम प्रिय अप्सरा उर्वशी के साथ चौसर खेल रहे थे। जानबूझ कर वह उर्वशी से हार रहे थे। हर बार जब भी उर्वशी जीतती थी तो अपने बड़े बड़े काले नयनों में विजय का गर्व भर कर देवराज इंद्र की तरफ देखती थी। उसका उन्हें इस तरह देखना देवराज को मोहित किए दे रहा था।
वैसे तो देवराज के दरबार में एक से बढ़ कर एक अप्सराएं थीं। सभी नृत्य और गायन कला में निपुण थीं। रूपवती इतनी थीं कि देव, गंधर्व, मानव सभी को अपने आकर्षणपाश में बाँध लें। तपस्वियों का तप भंग कर दें। किंतु सबके होते हुए भी उर्वशी देवराज के उर में बसी थी। वह उसे सबसे अधिक प्रेम करते थे।
"क्या बात है देव आज आपका मन चौसर खेलने में नहीं लग रहा है या आज मैं कुछ अधिक ही कुशल खिलाड़ी बन गई हूँ। अन्यथा आप तो किसी से नहीं हारते हैं।"
उर्वशी ने मदिरा के प्यालों के समान अपने नेत्रों में और अधिक मद भरते हुए कहा।
उर्वशी की बात सुनकर देवराज तनिक हंस कर बोले,
"सुंदरी दोनों ही बातें सही हैं। तुम्हारे सामने होते भला मेरा चित्त तुम्हारे अतिरिक्त किसी वस्तु में कैसे रम सकता है। रही कुशलता की बात तो तुम्हारे यह मद भरे नयन जो पासे फेंकते हैं वह तो किसी को भी परास्त कर दें। मैं तो पहले ही इनके मद में डूबा हूँ।"
अपने रूप की प्रशंसा सुनकर उर्वशी मन ही मन प्रसन्न हुई। किंतु ऊपरी तौर पर रोष दिखाते हुए बोली,
"अच्छा तो देव अपनी पराजय का दोष भी मुझे दे रहे हैं।"
"क्यों रुष्ट होती हो प्रिये? मैं तो बस तुम्हारे इस अनुपम सौंदर्य की प्रशंसा कर रहा था।"
तभी देवर्षि नारद का इंद्रलोक में आगमन हुआ। देवराज इंद्र तथा उर्वशी दोनों ने ही उन्हें प्रणाम किया।
"आइए देवर्षि नारद। कहिए क्या समाचार लेकर पधारे हैं।"
देवराज ने आसन देते हुए कहा। देवर्षि नारद अपने आसन पर बैठकर बोले,
"अभी तो तीनों लोकों में मंगल है देवराज। मै तो आपके मित्र पुरुरवा का समाचार लाया हूँ। देवासुर संग्राम में उन्होंने कई बार आपकी सहायता की है। आजकल पृथ्वी पर उनका यश दिनों दिन बढ़ता जा रहा है।"
पुरुरवा के विषय में सुनकर उर्वशी ने जिज्ञासा भरे नेत्रों से देवराज को देखा। उसने आज से पहले पुरुरवा के बारे में नहीं सुना था। देवराज उसकी उत्सुकता को समझ कर बोले,
"सुंदरी पुरुरवा पृथ्वीलोक के राजा हैं। प्रयाग में गंगा नदी के किनारे उनकी राजधानी प्रतिष्ठानपुर है। वह मेरे मित्र हैं। देवासुर संग्राम में देवों के पक्ष से उन्होंने कई बार युद्ध किया है।"
यह विवरण सुनकर उर्वशी का कौतुहल और बढ़ गया। उसने पूँछा,
"क्या पुरुरवा बहुत अधिक शक्तिशाली राजा हैं ?"
इस बार उसकी जिज्ञासा का उत्तर देवर्षि नारद ने दिया।
"पुरुरवा एक अद्भुत व्यक्तित्व के स्वामी हैं। एक महान योद्धा जिसकी भुजाएं पर्वतों के दर्प को भी चूर चूर कर दें। किंतु ह्रदय इतना कोमल जिसमें सभी के लिए दया और करुणा का सागर हिलोरे मारता है। वह एक न्यायप्रिय राजा हैं। वह संगीत व कला के भी पुजारी हैं।"
पुरुरवा के अनोखे व्यक्तित्व के बारे में सुनकर उर्वशी मन ही मन उसके प्रति आकर्षित हो गई। वह पुरुरवा के विषय में तरह तरह के प्रश्न करने लगी। देवराज इंद्र को अपनी परमप्रिय अप्सरा का किसी और में रुचि दिखाना अखर गया। वह रुष्ट होकर बोले,
"तुम तो वर्णन सुनकर ही इस तरह आकर्षित हुई जा रही हो। तनिक स्वयं को संभालो। वह पृथ्वीलोक का एक साधारण मनुष्य है और तुम एक अप्सरा।"
देवराज इंद्र की ईर्ष्या को उर्वशी भलीभांति समझ गई। हंसकर बोली,
"आकर्षण नहीं है देव मात्र जिज्ञासा है। देवर्षि नारद से उसी का शमन करने का प्रयास कर रही थी।"
उर्वशी की बात सुनकर देवराज का मन कुछ सीमा तक शांत हो गया। उनके मुख पर आए संतोष को देखकर उर्वशी को भी शांति मिली। पर अभी भी उसके मन में पुरुरवा का ही विचार उमड़ रहा था। वह जानती थी कि यदि यहाँ ठहरी तो पुरुरवा के बारे में और अधिक प्रश्न करेगी। जो देवराज इंद्र को अच्छा नहीं लगेगा। अतः उसने देवर्षि नारद को प्रणाम किया और देवराज से अपने कक्ष में जाकर विश्राम करने की आज्ञा मांगी।
अपने कक्ष में लेटी उर्वशी देवर्षि नारद द्वारा बताए गए वर्णन के आधार पर मन ही मन पुरुरवा की छवि बनाने का प्रयास कर रही थी। उसके मानस पटल पर जैसे जैसे वह छवि उभर रही थी वह उस पर मोहित हुई जा रही थी। वह इस तरह अपने विचारों में उलझी थी कि उसे पता ही नहीं चला कि कब उसकी सखी चित्रलेखा आकर उसके पास खड़ी हो गई। चित्रलेखा ने छेड़ते हुए कहा,
"वह पृथ्वीवासी तो बड़ा मायावी लगता है। वहीं से बैठे बैठे उसने तुम्हें अपने वश में कर लिया। देखना कहीं तुम्हारे ह्रदय पर भी अपना साम्राज्य स्थापित ना कर ले।"
अपनी सखी की बात सुनकर उर्वशी ने सफाई देते हुए कहा,
"तुम कब आईं ? यह किस पृथ्वीवासी की बात कर रही हो तुम ?"
"उसकी जिसके विचारों में तुम खोई हुई हो।"
"मैं किसी के विचारों में नहीं खोई हुई हूँ।"
उर्वशी ने थोड़ा क्रोध दिखाते हुए कहा। किंतु चित्रलेखा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसने वैसे ही छेड़ते हुए कहा,
"किसे बहलाने का प्रयास कर रही हो। मैं इतनी देर से तुम्हारे कक्ष में खड़ी हूँ। किंतु तुम्हें पता ही नहीं चला।"
उसकी बात सुनकर उर्वशी के चेहरे पर मुस्कान खिल गई। इस बात से उत्साहित होकर चित्रलेखा बोली,
"पकड़ी गई ना चोरी। वैसे जब देवर्षि नारद उस पृथ्वीवासी का वर्णन कर रहे थे तब मैं भी स्तंभ के पीछे खड़ी सब सुन रही थी। उसके व्यक्तित्व के गुणों ने तो मुझे भी मोह लिया था।"
उर्वशी ने जिज्ञासा प्रकट करते हुए कहा,
"किंतु चित्रलेखा क्या पृथ्वी का कोई मनुष्य सच में इतना रूपवान और गुणवान हो सकता है।"
चित्रलेखा समझ गई कि उसकी सखी उर्वशी के मन में पुरुरवा के बारे में जानने की इच्छा है। उसने कहा,
"क्यों नहीं हो सकता है। मैंने सुना है कि मनुष्य में बहुत साहस होता है। वह असंभव को भी संभव कर सकता है। तभी तो उसने पृथ्वी के हर कोने पर अपने होने के निशान छोड़े हैं।"
चित्रलेखा की बात सुनकर उर्वशी ने कहा,
"सही कहती हो सखी। मैं जब कभी मन बहलाव के लिए पृथ्वी पर गई हूँ वहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य एवं मनुष्य द्वारा की गई उन्नति ने मेरा मन मोह लिया है। बस पृथ्वीलोक की एक बात मुझे अच्छी नहीं लगती है। वहाँ कुछ भी स्थाई नहीं है।"
उर्वशी की बात पर कुछ क्षण विचार करने के बाद चित्रलेखा बोली,
"किंतु तनिक सोंच पर देखो सखी। यह अस्थाइत्व ही मानव जीवन का सबसे बड़ा आकर्षण नहीं है। यहाँ स्वर्गलोक में यौवन, सुख सभी स्थाई है किंतु इससे उकता कर ही तो हम अप्सराएं पृथ्वी पर भ्रमण करने के लिए जाते हैं।"
चित्रलेखा की बात में सच्चाई थी। उर्वशी ने कहा,
"सही कह रही हो सखी। मैं भी स्वर्ग से उकता कर कई बार मन बहलाने के लिए धरती पर गई हूँ। मैं सोंच रही थी कि क्यों ना कुछ समय फिर से पृथ्वी पर बिता कर आऊँ।"
"तुम पृथ्वी पर मन बहलाने के लिए जाना चाहती हो या अपने चितचोर से मिलने के लिए।"
चित्रलेखा ने एक बार पुनः उर्वशी को छेड़ा। लेकिन इस बार उर्वशी उसका बुरा मानने की जगह मुक्त कंठ से हंस पड़ी।