the house of Lords in Hindi Motivational Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | भगवान का घर

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भगवान का घर



वैकुंठ लोक में भगवान श्री राम कुछ चिंतित मुद्रा में चहलकदमी कर रहे हैं । बगल में ही खड़े भ्राता लक्ष्मण व माता सीता उनसे कई बार उनकी चिंता का कारण पूछ चुके हैं लेकिन भगवान श्री राम उनकी तरफ कोई विशेष ध्यान दिए बिना सिर झुकाए चिंता में डूबे बस चहलकदमी किये जा रहे हैं ।

उनकी सेवा को तत्पर बैठे श्री हनुमानजी भी कई बार उनसे चिंतित होने का कारण पूछ चुके हैं लेकिन भगवान बिना कुछ कहे बस अपने ख्यालों में ही गुम हैं । इतने में कक्ष के बाहर से एक सेवक की आवाज आई ," प्रभु श्री रामचन्द्र जी की जय हो ! देवर्षि नारद जी आपसे मिलने की आज्ञा चाहते हैं प्रभु ! "
अब प्रभु श्री राम जी की तंद्रा भंग हुई लेकिन उनकी चिंता में कोई कमी नहीं हुई । उन्होंने सेवक से कहा ,"उन्हें ससम्मान कक्ष में ले आओ ! हम प्रतीक्षा कर रहे हैं ! "

कुछ देर बाद देवर्षि नारद जी ने कक्ष में प्रवेश किया और मुस्कुराते हुए ' नारायण नारायण ' के घोष के साथ ही अपने दोनों हाथ जोड़कर प्रभु श्री राम का अभिवादन किया ।

प्रभु श्री राम जी ने भी दोनों हाथ जोड़कर देवर्षि नारद जी का अभिवादन किया और प्रेम पूर्वक उनको आसन प्रदान किया ।
नारायण नारायण की अपनी सतत धुन के मध्य ही दोनों हाथ जोड़कर नारदजी प्रभु श्रीराम के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए आसन के समीप गए लेकिन उसपर विराजमान होने से पहले प्रभु श्रीराम को चिंतित मुद्रा में लीन देखकर पूछ बैठे ," नारायण नारायण ! प्रभु श्री राम चन्द्र जी की जय हो ! मैं तो आपको एक खुशखबरी देने आया था लेकिन आप पता नहीं किस चिंता में विचारमग्न हैं ? सम्पूर्ण ब्रम्हांड के पालनहार को इस तरह चिंतित देखकर मुझे भी चिंता हो रही है प्रभु ! "

नारद का कथन सुनकर हनुमान जी , लक्ष्मण जी व खुद सीता मैया भी प्रभु श्री राम का उत्तर सुनने के लिए प्रभु के करीब पहुँच गए , लेकिन श्री राम जी ने उनकी तरफ कोई ध्यान दिए बिना नारद जी से कहा ," देवर्षि ! आप तो भूत ,भविष्य व वर्तमान के ज्ञाता हैं ! आपसे भला क्या छिपा है ? आप तो सब जानते हैं ! खैर ये बताइये खुशखबरी क्या है ? "

मंद मंद मुस्कुराते हुए नारद जी ने पुनः दोनों हाथ जोड़ते हुए बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया ," नारायण नारायण ! प्रभु की जय हो ! बात तो आपने बिल्कुल सत्य कही भगवन ! लेकिन यह पूरा ब्रम्हांड जिसके इशारे पर चलता हो , ये सृष्टि जिसकी वजह से अनुग्रहित होकर समस्त जीवों को अपने में समाए आश्रय प्रदान करती हो , जो दुनिया नाम के इस विशाल रंगमंच का सर्वेसर्वा हो जिसकी लिखी पटकथा पर इस रंगमंच पर अवतरित समस्त जीव अपनी भूमिका का निर्वहन करते हों, जो ब्रम्हांड की समस्त क्रियाओं का कर्ता हो उसके लिए क्या भूत और क्या भविष्य ....! आप की लीला तो आप ही जानो प्रभु ! हम भला कैसे आपके मन की थाह लगा पाएँगे ? "

स्मित हास्य उभर आई प्रभु के मुखमंडल पर , लेकिन अपने स्वर में फिर भी गंभीरता बनाये रखते हुए प्रभु श्री राम बोले ," देवर्षि ! पहेलियाँ क्यों बुझा रहे हो ? बताते क्यों नहीं कि आप क्या खुशखबरी लाये हैं मेरे लिए ? "

उनकी गंभीर मुद्रा को देख थोड़ा सहमते हुए नारद जी बोले ," प्रभु ! आप तो अंतर्यामी हैं और मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप से कोई भी घटना छिपी नहीं है । फिर भी आपको यह खबर देने के पीछे मेरा मंतव्य मात्र इतना है कि देवलोक में सभी को प्रमुख खबरों से अवगत कराने का अपना दायित्व मैं पूर्ण कर सकूँ ! भगवन ! मृत्युलोक में भारतवर्ष में त्रेतायुग में जहाँ आपने अवतार लिया था उस अयोध्या प्रदेश में आपके भक्त आपका भव्य मंदिर बनाने जा रहे हैं ।
मैंने तो सुना है कि वहाँ सरयू किनारे आपकी भव्य मूर्ति भी बनाई जानेवाली है । "

यह सुनकर प्रभु की मुखमुद्रा और गंभीर हो गई ! चिंता के भाव स्पष्ट उनके चेहरे पर नजर आ रहे थे । गंभीर स्वर में प्रभु बोले ," मेरी चिंता की वजह यही खबर है देवर्षि ! मुझे पता है मेरे कुछ भक्त मेरा भव्य मंदिर बनाना चाह रहे हैं ! लेकिन ये वो चंद लोग हैं जो सुखी व साधनसम्पन्न हैं जिन्हें रोजी रोटी की कोई दिक्कत नहीं । मुझे तो चिंता तो मेरे उन भक्तों की पीड़ा से है जिनके सिर पर छत नहीं , पेट में दाने नहीं , कोई रोजगार नहीं । उनके पास बीमारी से जूझ रहे अपने लोगों को मरते हुए देखते रहने के अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं ! और ये तो आप भी जानते हैं कि मैं अपने भक्तों के सुख से सुखी व उनके ही दुःख से दुःखी होता हूँ । "

" नारायण नारायण ! क्षमा करें भगवन ! " अपनी पलकें झपकाते हुए नारद जी ने दोनों हाथ जोड़कर निवेदन किया ," मैं आपके दुःखी होने की वजह तो समझ गया भगवन ,लेकिन इसका मंदिर निर्माण से क्या संबंध है यह नहीं समझ पाया ! क्षमा कीजियेगा मैं तो यही जानता हूँ कि आपके लिए असंभव कुछ भी नहीं । अपने इन भक्तों का दुःख आप पलक झपकते ही दूर कर सकते हैं । "

नारद जी की तरफ स्थिर नजरों से देखते हुए प्रभु श्री राम बोले ," आपकी बात से सहमत हूँ देवर्षि ! लेकिन मेरी चिंता को समझने के लिए आपको इस सृष्टि के निर्माण की वजह पर दृष्टि डालनी होगी । अगर हम ऐसे ही सबके दुःखों को दूर करते रहे तो सृष्टि के विधान का क्या होगा जिसका मूल सिद्धांत है कि सभी जीवों को अपने कर्म अनुसार फल मिलता है । अपने ही बनाए सिद्धांतों से परे अगर हम अपनी इच्छानुसार बिना वजह के ही सबकी मदद करते रहे तो क्या होगा सृष्टि के विधान का ? क्या इससे सृष्टि में अकर्मण्यता का वर्चस्व नहीं बढ़ जाएगा ? सभी जीव अपना कर्म भूलकर आलस का वरण नहीं कर लेंगे ? पूरी सृष्टि की व्यवस्था तहस नहस हो जाएगी । न पंछियों का कलरव सुनाई देगा न पशुओं की गर्जना । इंसान भी पंगु बनकर रह जाएगा । सृष्टि निर्माण के साथ ही सभी जीवों का कर्म भी निर्धारित कर दिया गया था और उसी के अनुरूप सबको अपने कर्मों के अनुसार फल प्रदान कर हम पूरी सृष्टि का संतुलन बनाए रखते हैं । सृष्टि के विधानानुसार किसी का मरण किसी के लिए जीवन की वजह बनती है लेकिन हमने यह तो विधान नहीं बनाया न कि शेर शेर को ही मार कर खा जाए ? बकरी शेर की तरह हिंसक हो जाए ? फिर ये इंसान ऐसा कैसे हो गया ? इंसान इंसान के ही प्रति इतना असंवेदनशील , इतना अन्यायी कैसे हो गया ? .." कहते हुए प्रभु श्री राम काफी उद्विग्न से नजर आए ।

सभी साँस रोककर उनकी बात को बड़ी ध्यान से सुन रहे थे । उनका समर्थन करते हुए नारद जी बोले ," ये बात तो आपने खरी खरी कही प्रभु ! इंसानों के कुकृत्यों को देखकर तो कभी कभी ऐसा प्रतीत होता है कि ये इंसान तो उन असुरों से भी चार कदम आगे बढ़ गए हैं अन्याय , निर्दयता और पाशविकता के मामले में जिनके आसुरी कृत्यों के चलते आपने भिन्न भिन्न अवतार लेकर उनका विनाश किया था । "

चेहरे पर कुछ राहत के भाव लिए हुए प्रभु मुस्कुराए और बोले ," बिल्कुल , सही समझा है अब आपने देवर्षि ! मेरी चिंता यही तो है कि हमने सृष्टि के विकास के क्रम में इंसान को क्या बनाकर धरती पर भेजा और वो क्या बन गए ! जब रक्षक ही भक्षक बनने पर आमादा हो जाए तो कोई क्या कर सकता है ? ये तो सृष्टि का सम्पूर्ण विधान ही उलटफेर करने पर आमादा हैं । हमने इन्हें बुद्धि दी जिसके जरिये ये समझ पाने में सक्षम हैं कि इंसानी जीवन के लिए जल , वायु व पर्यावरण का क्या महत्व है । लेकिन ये तो अपनी बुद्धि का गलत इस्तेमाल कर प्रकृति को ही चुनौती दे रहे हैं और विनाश को आमंत्रण दे रहे हैं । अभी जो महामारी जग भर में फैली है यह इनके दुष्कृत्यों का छोटा सा परिणाम है । मैं तो भयभीत हूँ इनके बनाए हुए उन घातक हथियारों से जिनके प्रयोग से कभी भी धरती के एक बड़े हिस्से को जीव विहीन किया जा सकता है । तनिक कल्पना करो कि यदि ऐसा कभी हो गया तो क्या स्थिति होगी ? इंसान ये विनाशक हथियार बनाता ही क्यों है ? ...!" कुछ कहते हुए अचानक रुक गए थे प्रभु श्री राम और चिंतित नजर आने लगे थे ।

उनकी चिंता को महसूस करते हुए नारद जी स्मित हास्य के साथ बोले ," नारायण नारायण प्रभु ! क्या आप अपना ही दिया हुआ उपदेश विस्मृत कर बैठे हैं ? आप ने ही महाभारत के रण में कृष्ण के रूप में अर्जुन को उपदेश दिया था ' हे इंसान ! तू फल की चिंता किए बिना सिर्फ अपना कर्म किये जा । तू जैसा कर्म करेगा तुझे वैसा ही फल प्राप्त होगा । और अगर आज इंसान अपना ही बोया हुआ काट रहा है तो इसमें आपके विधान का कहाँ उल्लंघन हो रहा है ? "

" असल चिंता तो यही है न ब्रम्हर्षि कि हमने जो सोचा था वह न होकर आज सृष्टि में सभी विरोधाभासी कृत्य हो रहे हैं । करता कोई है और भरता कोई है । अब प्रदूषण का मामला ही ले लो ! दिन रात विषैली वायु वमन करनेवाले बड़े बड़े कारखाने किसने बनाये ? हरे भरे पेड़ों को कटवाकर ऊँची अट्टालिकाएँ कौन खड़ी करवा रहा है ? गंदे नालों का मुख पवित्र नदियों की तरफ मोड़कर नदियों के स्वच्छ जल को कौन प्रदूषित कर रहा है ? अगर गहराई से सोचो तो सबका एक ही उत्तर मिलेगा और वह है कि ये सारे विध्वंसक व आत्मघाती कदम सिर्फ कुछ पूँजीपति उठाते हैं और इसके दुष्परिणामों सभी आम लोगों को भुगतना पड़ता है । जब अकाल पड़ता है ,या भूकंप आता है तो ये पूँजीपति तो अक्सर सुरक्षित रह जाते हैं लेकिन दीन हीन व्यक्ति को जरूर भुगतना पड़ता है । आज जिस महामारी का रोना सब रो रहे हैं उससे सबसे अधिक पीड़ित कौन है ? आज बेघर बेबस लाचार कौन लोग हैं ? क्या गलती है इनकी जो ये सड़कों पर भटकते हुए दम तोड़ रहे हैं ? दूसरी तरफ देखो जो दूसरी तरह के इंसान हैं आज घरों में बंद होकर जिंदगी के मजे ले रहे हैं और इस काल को रामराज्य की संज्ञा दे रहे हैं । बताओ ऐसे घटिया हास्य की परिकल्पना भी इंसान आखिर कैसे कर सकता है ? थोड़ा संतोष मिलता है जब कुछ अच्छे इंसान अपनी पूरी क्षमता से इन जरूरतमंदों की हर तरह से सहायता करते हुए दिख जाते हैं ,नहीं तो अधिकांश तो अपने अपने स्वार्थ में ही लिप्त दिखाई दे रहे हैं ........!"

कहते कहते प्रभु एक पल को गहरी साँस लेते हुए रुके ही थे कि नारदजी बोल पड़े ," नारायण नारायण ! बात तो आपने बिल्कुल उचित कही प्रभु ! वाकई सब कुछ विधि के विधान के अनुसार नहीं हो रहा है ,लेकिन इन सब बातों का आपके मंदिर निर्माण से क्या संबंध है यह तनिक भी समझ में नहीं आया । भक्तों की भावना को समझते हुए आपको तो प्रसन्न होना चाहिए और मंदिर निर्माण के लिए प्रयासरत लोगों पर अपना वरदहस्त बनाये रखना चाहिए । "

" आप भी इंसानों के माया जाल में उलझ गए प्रतित हो रहे हैं ब्रम्हर्षि ! " मंद मंद मुस्कुराते हुए प्रभु श्री राम बोले ," तभी तो आप भी उनकी ही तरह सोच रहे हैं । आप जानते हैं व मानते भी हैं कि हम सर्वव्यापी हैं ! इंसान भी यह कहता है कि कण कण में भगवान ! लेकिन जब उसी बात को हृदय से प्रमाणित करने व मानने की बात सामने आती है तो स्वार्थ वश अपनी ही मान्यताओं से मुकर जाता है । कण कण में व्याप्त ईश्वर को वह मंदिरों में कैद मान लेता है । ये कैसी विडंबना है ब्रम्हर्षि कि हम जो पूरी सृष्टि के पालनहार हैं हमें एक मंदिर जैसी जगह में सीमित करने का प्रयास किया जा रहा है । जरूरतमंद असहाय लोगों की मदद करने की बजाय श्रद्धा व आस्था के नाम पर संसाधनों की खूब लूट हो रही है । इस विपदा काल में जब लोगों की सारी शक्ति सारे संसाधन जनकल्याण के कार्यों में लगने चाहिए लोग उससे घोर आडंबर व दिखावा करके हमें प्रसन्न करना चाह रहे हैं । ऐसा करते हुए ये सब यह क्यों भूल जाते हैं कि हमने कभी भी कहीं नहीं कहा कि जनकल्याण का कार्य छोड़कर हमारी पूजा अर्चना करो । दीन दुखियों व जरूरतमंदों की सेवा ही हमारी सच्ची सेवा है ......." एक क्षण बाद प्रभु ने फिर कहना शुरू किया ," मंदिर के नाम पर मेरा घर बनवा के अपने हाथों अपनी पीठ ठोंकने का प्रयास करनेवालों पर हँसी भी आ रही है और उनकी समझ पर क्रोध भी आ रहा है । आप ही बताइए , मेरी स्तुति करते हुए ये भक्त स्वीकार करते हैं कि मेरे लिए कुछ भी असंभव नहीं और पूरी सृष्टि का पालनहार भी मुझे ही मानते हैं तो फिर ये मुझे इतना बेबस व लाचार क्यों साबित करना चाह रहे हैं कि मैं इनके बनाये निवास में ही रह लूँगा ? इनके बनाये कानूनों के मुताबिक अपने लिए न्याय की प्रतीक्षा करूँगा ? मैं तो सर्वव्यापी हूँ ,किसी मंदिर की कैद में कैसे रह सकता हूँ ? ये सब करते हुए ये इंसान यह क्यों भूल जाते हैं कि मैं किसी मंदिर में नहीं बल्कि दया धर्म व करुणा से भरे अपने भक्तों के दिल में ही रहना पसंद करता हूँ ! भक्तों की खुशी के लिए तो मैं कहीं भी रह सकता हूँ , चाहे जीर्णशीर्ण मंदिर हो अथवा भव्य मंदिर ! "

अपने दोनों हाथ जोड़ कर नमन करते हुए नारद जी बोले ," नारायण ! नारायण ! सत्य वचन प्रभु ! अब मुझे आपकी पीड़ा का अहसास हो रहा है । आपकी चिंता बिल्कुल सही है । यदि लालच स्वार्थ व झूठी शान का परित्याग कर इंसान दया प्रेम व करुणा का अंगीकार कर ले तो जग में कोई दुःखी न रहे व धर्म के मार्ग पर चलते हुए सही मायने में रामराज्य लाया जा सकता है और जिस दिन ऐसा हो गया वह दिन आपके लिए अवश्य सबसे खुशी का दिन होगा प्रभु क्योंकि मैं जानता हूँ आप भक्तों के सुख से ही सुखी होते हैं ! "
हल्की सी मुस्कान के साथ प्रभु श्री राम ने नारद जी की तरफ देखा और बोल पड़े ," अब आप सही समझे हैं ब्रम्हर्षि ! "

राजकुमार कांदु
✍️मौलिक

विशेष : श्री राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण की शुरुआत हम सभी सनातन धर्मीय लोगों के लिए एक स्वप्न की पूर्ति जैसा गौरवशाली है लेकिन मंदिर निर्माण की जिस तरह आनन फानन शुरुआत की गई यह अपने आप में एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लिए हुए है ! जिस जंग को जीतने में पाँच सौ वर्ष लगे हों , 150 साल मुकदमेबाजी झेलनी पड़ी हो , कई भक्तों व संतों को अपना प्राणोत्सर्ग करना पड़ा हो उस जंग की परिणीति राजनीतिक स्वार्थ में उलझ कर रह जाए इससे दुःखद और कुछ नहीं हो सकता ! जिस उत्सव में विश्व के कोने कोने से करोड़ों भक्तों का आना अपेक्षित था , देश के सभी आम और खास लोगों का समर्थन व भागीदारी भी अपेक्षित थी ,उस महा उत्सव को जगद्गुरु की उपाधि से विभूषित शंकराचार्य सहित कई संतों के विरोध को भी दरकिनार कर भाद्रपद के महीने में , चंद लोगों की उपस्थिति में आनन फानन शिलान्यास कर एक साधारण उत्सव बना दिया जाना अपने आप में एक बड़ा सवालिया निशान है । एक यादगार महा उत्सव के संभावित आयोजन को मात्र खानापूर्ति कर रफा दफा कर दिया गया यह आयोजकों की आस्था पर भी एक प्रश्न है कि क्या वाकई हमारी संस्कृति के आधार युगपुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम इस कदर उपेक्षित आयोजन के अधिकारी थे ? कृपया सभी इस नजरिए से भी सोचें । आज के हालातों को लेकर भगवान श्री राम जी क्या सोच रहे होंगे इसे व्यक्त करने का प्रयास किया है !
🚩जय श्री राम 🚩