इंस्पेक्टर सोहराब के सामने शैलेष जी अलंकार खड़ा पलकें झपका रहा था। यह ‘शोलागढ़ @ 34 किलोमीटर’ फिल्म का राइटर और डायरेक्टर था। उसे वहां पाकर इंस्पेक्टर सोहराब आश्चर्य में डूब गया। आखिर वह इतनी रात गए यहां क्या कर रहा है! सोहराब ने हड़बड़ाहट का मुजाहरा करते हुए मुंह में लगी बीड़ी फेंक दी और दोनों हाथ जोड़ दिए, “साहेब नमस्कार!” सोहराब ने आवाज को बदलते हुए कहा।
“कौन हो तुम?” शैलेष ने अपनी पतली आवाज को भारी बनाते हुए पूछा।
“साहेब हम जरूरतमंद हैं... हमें मोहन बाबू ने आपके पास भेजा है... रुकिए आपको उनकी चिट्ठी देते हैं....।” सोहराब ने सारी बातें एक सांस में कह डालीं और जेब से चिट्ठी तलाशने का अभिनय करने लगा। उसकी बातचीत का अंदाज भी थोड़ा बदला सा था।
“कौन मोहन बाबू?” शैलेष ने पूछा, फिर तुरंत ही कहा, “चिट्ठी छोड़ो मैं अंधेरे में चिट्टी कैसे पढ़ पाऊंगा। तुम काम बताओ?”
“साहेब... हम बेरोजगार हैं। मोहन बाबू कहे थे कि आप पूटिंग करते हैं। आप कहीं न कहीं हमें काम पर लगा लेंगे। हम पांचवीं तक पढ़े भी हूं।” सोहराब की आवाज में जरूरतमंदों वाला विनय और नर्मी थी।
“पूटिंग!” शैलेष ने चौंकते हुए कहा, फिर हंसने लगा। “ओह तुम शूटिंग कहना चाह रहे हो।”
“जी साहेब, वही... वही जो आपने कहा।” सोहराब ने जल्दी से जवाब दिया।
“आओ वापस चलते हैं।” शैलेष ने कहा।
दोनों आगे बढ़ गए। सोहराब को शैलेष जी अलंकार की सहजता आश्चर्य में डाले हुए थी। वह जब भी कोठी पर आया था तो उसने बहुत रूखेपन का प्रदर्शन किया था। इसके उलट आज उसका अंदाज दोस्ताना था। कहीं यह मोहन बाबू के नाम का तो असर तो नहीं है!
“हमारी मुलाकात तो पहली बार हो रही है, तुमने मुझे पहचाना कैसे? और फिर यहां तो अंधेरा भी है!” शैलेष ने आश्चर्य से पूछा।
“मोहन बाबू ने हमें आपकी तस्वीर दिखाई थी न... और अभी जब हम बीड़ी पी रहे थे तो आपका चेहरा देख लिए थे।”
“समझदार आदमी हो!” शैलेष ने कहा, फिर तुरंत ही आश्चर्य से पूछा, “लेकिन तुम इतनी रात को पैदल कहां से आ रहे हो?”
“मत पूछिए साहेब... बहुत बुरा सफर रहा। शाम चार बजे शहर से चले थे। एक ट्रक इधर आ रहा था... उसी पे लद लिए। किराया भी कम था और सोचा था कि आराम से पहुंचा देगा, लेकिन बीचै में ही ट्रक खराब हो गया। इतनी रात को किसी दूसरी गाड़ी ने मदद भी न की तो पैदल ही चल पड़े। वैसे भी साहेब, वहां ट्रक के पास खड़े होने से कोई फायदा तो था नहीं।” सोहराब ने अपनी पूरी फर्जी रूदाद उसे पूरे यकीन के साथ सुना दी।
“तुमने मुझसे मिलने के लिए काफी मेहनत की है। मैं तुम्हें काम जरूर दूंगा।” शैलेष ने कहा।
“साहेब इतनी रात को आप यहां...।” सोहराब ने जानबूझ कर बात अधूरी छोड़ दी कि कहीं शैलेष को यह सवाल नाराज न कर दे।
“मैं रोज सुबह पांच बजे पैदल टहलने निकलता हूं। आज दो घंटे पहले आ गया था। रात के अंधेरे में इस इलाके की लोकेशन देखना था। सोच रहा हूं कि फिल्म का कुछ हिस्सा यहां भी शूट करूं।” शैलेष ने कहा।
“सही सोचे हैं साहेब... बहुत अच्छी जगह है। एकदम बढ़िया। रात में ई सब पहाड़ तो गजबै भयानक लगते हैं।”
“तुम आदमी बढ़िया हो। कितना पढ़े-लिखे हो?”
“पांचवीं पास हैं साहेब... आगे की पढ़ाई के लिए दूर जाना पड़ता... इस वजह से पढ़ाई छूट गई। हमारे पास साइकिल नहीं थी न।” सोहराब ने झट से अपनी बात उसके सामने रख दी।
“पढ़े-लिखे होते तो मैं तुम्हें अपना असिस्टेंट बना लेता। मेरा असिस्टेंट तो अव्वल दर्जे का गदहा है।” शैलेष ने कहा।
कुछ देर बाद ही दोनों एक कोठी के सामने खड़े थे। शैलेष ने फोन पर एक नौकर को बुलाया। नौकर के आने के बाद उसने सोहराब के लिए दो चादर देने को कहा। नौकर थोड़ी देर में ही चादर लेकर लौट आया।
“चादर इन्हें दे दो और इनका ख्याल रखना। यह हमारे साथ काम करेंगे।” शैलेष ने नौकर से कहा।
“यह पहाड़ी इलाका है। गर्मी के मौसम में भी यहां रात को ठंड पड़ती है। एक चादर बिछा लो और दूसरी ओढ़ लेना। शाम को मुलाकात होगी।” शैलेष ने सोहराब से कहा। उसके बाद वह जाने के लिए पलट पड़ा, लेकिन फिर तुरंत ही लौटकर पूछा, “तुमने अपना नाम तो बताया नहीं अब तक!”
“साहेब, हेतराम।”
“बहुत बुरा नाम है... इसे बदलो....।” यह कहता हुआ शैलेष जी अलंकार पैदल ही अपने होटल की तरफ रवाना हो गया।
अभी रात का कुछ हिस्सा बचा हुआ था। सोहराब ने चादर को वहीं एक कोने में डाल दिया और कोठी के पीछे की तरफ बढ़ गया।
कैप्टन किशन सलीम को इस रूप में श्रेया के साथ पाकर उलझन में पड़ गया था। उसे इस बात पर भी गुस्सा आ रहा था कि वह बेवजह सलीम को यहां ढो लाया था। ‘अच्छा भला शूटिंग के लिए निकला था। अब यह नई मुसीबत। अब इनका अलग से ख्याल रखो। सरकारी मेहमान जो ठहरे। जाने कब तक पड़े रहेंगे हरामखोरी के लिए।’ होटल के कमरे में टहलते हुए कैप्टन किशन यही सोच रहा था।
उसने सोने का इरादा मुलतवी कर दिया। फैसला किया कि सुबह ही सलीम और श्रेया को यहां से रवाना कर देगा। भले अपनी कार से भिजवाना पड़े। वह सोफे पर बैठ गया और होटल के रिसेप्शन का नंबर डायल करने लगा। उधर से हैलो की आवाज आते ही उसने दो कप हार्ड कॉफी लाने के लिए कहा। इसके बाद जेब से मोबाइल निकाल कर किसी के नंबर डायल करने लगा।
विक्रम शेयाली की पेंटिंग सामने स्टैंड पर रखे खड़ा उसे एकटक निहार रहा था। कुछ देर बाद वह रंग और ब्रश उठा लाया और उस अधूरी पेंटिंग को पूरी करने की कोशिश करने लगा। वह काफी देर आंख बंद किए खड़ा रहा। वह शेयाली की पोज को याद करने की कोशिश कर रहा था, ताकि इस अधूरी पेंटिंग को पूरी कर सके। शेयाली की इस पेंटिंग को वह मास्टर पीस बनाना चाहता था, लेकिन शेयाली के बिना अब यह अधूरी रह गई थी।
विक्रम ने ब्रश उठाकर पेंटिंग को पूरी करने की कई बार कोशिश की, लेकिन वह नाकाम रहा। उसे यह काम मुमकिन नहीं लग रहा था। विक्रम काफी देर मगजमारी करता रहा। वह अधूरी पेंटिंग में एक लाइन भी नहीं खींच सका। उसने झुंझला कर ब्रश तोड़ दिया।
यह बात विक्रम भी समझता था कि सिर्फ याददाश्त के जोर पर किसी पेंटिंग को पूरा करना मुमकिन नहीं है। मौजूदा हालात में उसके पास कोई चारा भी नहीं था कि वह कुछ कर सकता।
वह शेयाली की न्यूड बनाना चाहता था, लेकिन शेयाली न्यूड मॉडलिंग के लिए कभी राजी नहीं हुई। विक्रम के खान की पहचान भी न्यूड पेंटिंग को लेकर ही थी। इंग्लैंड में बनाई उसकी पेंटिंग दो मिलियन डॉलर में बिक जाना आम बात थी।
एक दिन अचानक उसने इंग्लैंड छोड़ दिया और अपने मुल्क आ गया। उसके इस फैसले से इंग्लैंड के उसके फैंस काफी आश्चर्य में थे। एक पेंटर के तौर पर उसका वहां बेहतरीन करियर था। डिमांड थी, बल्कि वह एक बड़ा सेलिब्रटी था। अपने नाम, काम और जीने के अंदाज से लड़कियां उस पर यूं ही फिदा हो जाती थीं। कद-काठी तो खैर अच्छी थी ही। छरहरा लंबा जिस्म, गोरा रंग, घुंघराले सुनहरे से बाल, लंबी नाक और बड़ी-बड़ी आंखें। उसकी आवाज में काफी बेस था। जब वह बोलता तो कोई भी उसको सुनने लगता था। उसी विक्रम के खान की यहां मिट्टी पलीद हो रही थी।
श्रेया की हंसी रुक ही नहीं रही थी। वह सार्जेंट सलीम को देख-देख कर हंसे जा रही थी। उसने पहली बार भरपूर रोशनी में सार्जेंट सलीम को देखा था। वाकई उसका पूरा हुलिया ही बदला हुआ था। सफेद स्पोर्ट्स शूज पर घुटनों तक किसी जानवर की खाल के अलावा उसके बदन पर और कोई कपड़ा नहीं था। ऊपर से बढ़ी हुई दाढ़ी, उलझे हुए बाल। यकीनन वह पूरा जंगली ही लग रहा था। यही वजह थी कि कैप्टन किशन का नौकर भी उसे अजीब नजरों से देख रहा था।
श्रेया को इस तरह से हंसते देख कर सार्जेंट सलीम झेंप गया और वह अपने कपड़े उठा कर सीधे वाशरूम में घुस गया। श्रेया की हंसी अब रुक गई थी और वह सोफे पर बैठ गई। उसके छालों में अब भी दर्द था, बल्कि पूरा जिस्म ही फोड़े की तरह दुख रहा था। उसका खुद का भी हुलिया बिगड़ा हुआ था।
यह एक बड़ा सा हाल था। इसके बीचों बीच बड़ा सा बेड पड़ा हुआ था। एक तरफ डायनिंग टेबल थी और दूसरी तरफ सोफे पड़े हुए थे। हाल की छत काफी ऊंची थी। उससे एक झूमर लटक रहा था। दीवारों में एक आतिशदान भी था। गर्मी का मौसम होने की वजह आतिशदान खाली पड़ा था। हाल से अटैच बड़ा सा वाशरूम भी था।
सार्जेंट सलीम गर्म पानी से नहा कर फ्रेश हो गया था। जब वह वाशरूम से बाहर निकला तो काफी अच्छा महसूस कर रहा था। उसे ऐसा लगा जैसे उसने मनों थकान उतार फेंकी हो। श्रेया बैठे-बैठे ही सो गई थी। उसने श्रेया को जगाते हुए कहा, “तुम भी नहा लो जाकर। बढ़िया गर्म पानी है।”
श्रेया उसे देख कर फिर हंसने लगी। इस बार भी उसे हंसने की वजह मिल गई थी। सार्जेंट सलीम के लिहाज से कपड़े काफी छोटे थे। ऐसा लगता था कि कुर्ते-पाजामे में उसे ठूंस दिया गया हो।
“कितने अजीब लग रहे हो!” श्रेया ने हंसते हुए कहा। सार्जेंट सलीम ने कोई जवाब नहीं दिया और वहीं से एक लंबी छलांग लगा कर सीधे बेड पर आ गया। उसने सर से पैर तक चादर तान ली। यह एक बड़ा सा बेड था। इसे दो डबल बेड जोड़ कर बनाया गया था। काफी मुलायम गद्दा पड़ा हुआ था।
श्रेया उसकी तरफ अजीब नजरों से देख रही थी। उसके बाद उसने अपने कपड़े उठा कर देखे। घाघरा और चोली थी। उसने खुद पर नाप कर देखा। कुछ बड़ा था।
“स्टुपिड!” श्रेया ने कहा और वाशरूम की तरफ चली गई।
श्रेया जब फ्रेश होकर बाहर निकली तो सलीम के खर्राटे गूंज रहे थे। उसने कमरे का दरवाजा बंद कर दिया और लाइट बुझा दी। बिस्तर पर लेटते ही उसे भी गहरी नींद आ गई।
श्रेया को सोए हुए अभी कुछ ही देर हुई थी कि एक दूसरे दरवाजे से चार लोग कमरे में दाखिल हुए। उन्होंने चेहरे पर नक़ाब लगा रखा था। वह चारों बहुत सावधानी से धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। उनमें से सबसे मजबूत कदकाठी वाले ने आते ही श्रेया के मुंह पर बड़ी फुर्ती से एक चौड़ा टेप चिपका दिया। इसके बाद उसके दोनों हाथों को जोड़कर भी टेप लपेट दिया गया। तुरंत ही उसने उसे अपने कांधों पर उठाया और मुख्य दरवाजे की चिटकिनी खोलकर बाहर निकल आया। एक आदमी उसके साथ था। उसने दरवाजे को भेड़ दिया। बाकी दोनों आदमी जिधर से आए थे उधर से ही वापस चले गए।
श्रेया की घुटी-घुटी सी आवाज निकल रही थी। वह आजाद होने के लिए अपने हाथ-पैर भी चला रही थी। वह दोनों श्रेया को लेकर सीढ़ी की तरफ जा रहे थे। कुछ देर बाद पीछे छूट गए वह दोनों आदमी भी उनके साथ हो लिए। चारों श्रेया को लेकर बैठक से होते हुए कोठी के बाहर आ गए। अब उनका रुख कोठी के पिछले हिस्से की तरफ था।
रात का आखिरी पहर था। बाहर ठंडक थी और तेज हवा चल रही थी। दूर कहीं से किसी उल्लू के चीखने की आवाज आ रही थी। झींगुरों के हारमोनियम की आवाज भी अब कमजोर पड़ने लगी थी। वह चारों तेज कदमों से श्रेया को लिए हुए कोठी के पीछे वाले हिस्से की तरफ जा रहे थे।
कोठी के पिछले हिस्से में भी एक छोटा सा लॉन था। बाहर की तरफ की दीवार में एक गेट भी था। उनमें से एक ने बढ़ कर गेट खोल दिया और चारों बाहर आ गए। यह गेट जंगल की तरफ खुलता था। दूर-दूर तक पेड़ ही पेड़ थे। पेड़ों से टकराकर हवा सांय-सांय कर रही थी।
तभी ऐसा लगा जैसे अचानक वहां भूचाल आ गया हो।
वह चारों श्रेया को कहां ले जा रहे थे?
सार्जेंट सलीम ने सुबह श्रेया को न पाकर क्या किया?
इंस्पेक्टर सोहराब यहां क्या करने आया था?
इन सवालों के जवाब पाने के लिए पढ़िए जासूसी उपन्यास ‘शोलागढ़ @ 34 किलोमीटर’ का अगला भाग...