अंतिम भाग 3 - पिछले अंक में आपने पढ़ा कि सुदीप और नंदा जब रांची गए तब एक प्रकाशक ने सुदीप की कुछ रचनाएं स्वीकार कर ली ....
कहानी - घर की मुर्गी दाल बराबर
“ और कुछ रचनाएँ जो समसामयिक नहीं हैं , उनके बारे में तुम्हें बता रही हूँ .दरअसल आजकल पाठक को सहज मनोरंजक रचनाएँ चाहिये .वैसे भी आजकल इतने मूवीज और टी वी सीरियल के आगे कम ही लोग हैं जो मैगज़ीन या किताबें खरीद कर पढ़ते हैं . वैसे भी हमारे यहाँ किताबों पर पैसे खर्च करने वालों की संख्या बहुत कम है . कंपनी वाले अब मैगज़ीन में अपनी उत्पाद या सेवाओं के प्रचार पर बहुत कम खर्च करते हैं बल्कि वे टीवी में एड देना बेहतर समझते हैं . उनका सोचना भी ठीक है क्योंकि आज टीवी घर घर में देखने को मिलेगा . ”
“ हाँ वो तो है .”
“ इसलिए कहानी में जरा रोमांस हो . सेक्स प्रधान कहानियां , रोमांचक कवितायें और सेक्सी मूवीज आजकल बिकाऊ है न कि लैला मजनूँ या शिरी फरहाद की पुरानी प्रेम कहानी या झाँसी की रानी की वीर गाथा . मेरा मतलब समझ रही हो न ? दाल भात के साथ थोड़ा अचार चटनी हो तो खाने का मजा और भी आता है .”
“ ठीक है , मैं सुदीप को बोल दूंगी .”
कुछ महीने बाद नंदा ने एक बेटी को जन्म दिया .सुदीप उसके नामकरण की बात सोच ही रहा था की आशा का फोन आया. सुदीप ने उसे बेटी होने की खबर दी तो वह बोली “ बधाई हो बेटी के लिए .तुम्हारी बेटी लक्ष्मी बन कर आयी है . तुम्हारी कहानी संग्रह छप भी गयी है और तीन दिनों में ही लगभग एक हजार प्रतियां बिक गयीं हैं और एक हजार और प्रतियां छापने का निर्देश आया है . साथ में मैं रॉयल्टी का चेक भेज रही हूँ . अभी इसे एडवांस ही समझें और चेक बाद में भेजूंगी .”
नंदा भी स्पीकर पर उनकी बातें सुन रही थी .वह बोली “ अब तो बेटी का नाम लक्ष्मी ही रखूंगी .”
कुछ दिनों बाद सुदीप ने अपनी कुछ नयी रचनाएं और कुछ पुरानी रचनाओं में सुधार कर रांची भेज दिया. प्रकाशक को वे रचनाएं पसंद आ गयीं और वह सुदीप के नाम से कहानी संग्रह छापने को तैयार था .चंद महीनों में सुदीप की कहानियां भी प्रकाशित हो गयीं .इस रचना की मांग भी अच्छी थी .देखते देखते सुदीप की कहानियां खूब बिकने लगीं .अब रांची के समाचार पत्रों में भी रविवार विशेषांक में उसकी एक लघु कथा या अन्य कोई न कोई आलेख छपने लगा था .अब वह इस क्षेत्र का जाना माना लेखक बन गया था .
सुदीप की गृहस्थी की गाड़ी ठीक ठाक चल पड़ी थी .एक बार उसने अपनी कुछ पेंटिंग्स भी प्रदर्शनी में भेजी . उस से कुछ खास आर्थिक लाभ तो उसे नहीं हुआ पर लोग लेखक के अलावा पेंटर के रूप में भी उसे जानने लगे .नंदा ने सुदीप को आशा की कही बातें याद दिलायीं . वह बोली “ पेंटिंग भी वही करो जो आजकल के समयानुसार बिकाऊ हो .”
एक दूसरी प्रदर्शनी में उसने कुछ आदिवासी महिलाओं के चित्र भेजे .जैसा की आमतौर पर गरीब आदिवासी औरतें एक चार गज की छोटी साड़ी में अपने पूरे तन को छिपाने का असफल प्रयास करती हैं .एक पेंटिंग में वह अपने बच्चे को दूध पिलाती दिखी और स्तन का बड़ा भाग अनावरित दिख रहा था .लगता था अपनी सारी चित्रकारी और तूलिका के रंग उसके वक्षस्थल में ही खर्च कर दिए हों . बहरहाल जो भी हो उसे इस तरह के चित्रों की अच्छी कीमत मिल रही थी .
कुछ साल बाद रांची वाला प्रकाशक एक अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले में अमेरिका जाने वाला था .वह सुदीप की कहानियों की किताबें भी ले जाना चाहता था .इसके अतिरिक्त उसने सुदीप के मूल कहानियों को अंग्रेजी में अनुवाद कर साथ ले जाना चाहा .इसके लिए उसने सुदीप से अनुमति मांगी थी और सुदीप के ना कहने का सवाल ही न था .अमेरिका में किताबें पढ़ने की आदत शुरू से ही सभी को होती है, छोटे छोटे बच्चों को भी .इसके अतिरिक्त प्रकाशक अपने साथ सुदीप के कुछ अच्छे चित्रों के फोटो भी साथ ले गया .
प्रकाशक ने सुदीप की कहानियों की किताबें अमेरिका के कुछ शहरों के पुस्तकालयों में मुफ्त बांटीं .अमेरिका के हर छोटे बड़े शहरों में विश्व की प्रमुख भाषाओँ की किताबें उपलब्ध हैं , हिंदी की किताबें भी सभी शहरों के पुस्तकालयों में मिलती हैं .सुदीप के चित्रों के फोटो को भी कुछ कला प्रेमियों को दिखाया .सुदीप की ओरिजिनल कहानियों का अंग्रेजी अनुवाद एक अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशक को बहुत पसंद आया .इस प्रकाशक ने सुदीप से किताबें और चित्र बेचने के लिए सुदीप से पावर ऑफ़ अटॉर्नी भी ले लिया था , उसमें शर्त के अनुसार लाभ का 25 प्रतिशत प्रकाशक को देना था .सुदीप के चित्रों के लिए भी कुछ अग्रिम राशि प्रकाशक को मिली .उन चित्रों की ओरिजिनल पेंटिंग्स तीन महीने के अंदर अमेरिकी खरीदार को देनी थी .
सुदीप की कहानियों का अंग्रेजी अनुवाद भी तीन महीनों के अंदर ही छप गया .देखते देखते उसकी 20 हजार कापियां एक महीने में बिक गयीं और दुबारा 20 हजार कापियां छपीं जिनमें अधिकतर शीघ्र बिक गयीं और अब उनका तीसरा संस्करण निकलने वाला था.उधर उसके चित्र की भी अच्छी कीमत मिली .इतना ही नहीं विदेशी भाषाओँ की कहानियों में उसकी कहानी को सर्वोच्च स्थान मिला और अमेरिका की एक संस्था द्वारा उसे इनाम में अच्छी राशि मिलने वाली थी .
उस अवसर पर सुदीप अपने परिवार के साथ अमेरिका आमंत्रित था .वह नंदा और बेटी लक्ष्मी के साथ अमेरिका गया .उसे सम्मान में प्रशस्ति पत्र और अच्छी राशि मिली .उसके मन में ख्याल आया कि जिस रचना को देश में ठुकरा दिया गया विदेश में कितना सराहा गया .अनेकों बार ऐसा देखा गया है कि कुछ अच्छी भारतीय फिल्मों को यहाँ रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है और उन्हीं फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय समारोहों में पुरस्कार दिया जाता हैं . इसके बाद ही देश में उन्हें सही पहचान और सम्मान मिलता है - सच कहा गया है - घर की मुर्गी दाल बराबर .
समाप्त