Search for your country (satire) in Hindi Comedy stories by Alok Mishra books and stories PDF | अपने देश की खोज(व्यंग्य)

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अपने देश की खोज(व्यंग्य)

अपने देश की खोज
पूरे देश में इस समय पाकिस्तान से कुम्भ के बहाने वीज़ा लेकर आए 80 परिवारों की चर्चा है। ये परिवार अब पाकिस्तान वापस नहीं जाना चाहते । वे भारत को अपना देश मानते है हालांकि वे पाकिस्तान के नागरिक है । इन परिवारों के बहाने ही सही हमें अपने देश को खोजने का अवसर प्राप्त हुआ है । बिहार और उत्तरप्रदेश से रोजगार के लिए बाहर निकले लोग त्यौहारों में जब अपने गाँव वापस होते है तो कहते है कि ‘‘ अपने देश जा रहे है। ’’ हम मुम्बई में गैर मराठियों के साथ वैसा ही व्यवहार कर रहे है जैसा कि पाकिस्तान में हिन्दुओं के साथ होता है । हमारे यहाँ ऐसे व्यवहार के समर्थक नेता लोकप्रिय हो जाते है ।
जम्मू और कश्मीर से विस्थापित हिन्दु भी आज तक अपने देश वापस नहीं जा पाए है । वे अपनी वापसी की इच्छाओं को दबा कर विस्थापन का दर्द झेलने को मजबूर है । बांग्लादेश और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों से भी अनेकों लोग हमारे यहाॅ रोजगार की तलाश में आते है। अक्सर तो वे अपने देश को भूल कर भारत को ही अपना देश मानने लगते है परन्तु रोजगार के अवसरों में कमी के चलते हम उन्हें परदेशी होने का आभास दिलाने से नहीं चूकते । बांग्लादेशियों की अवैध रुप से घुसपैठ अब जहाँ समस्या बनने लगी है ,वहीं कुछ लोगों की राजनीति का आधार भी बन गई है ।
भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में स्वदेशी और परदेशी का भेद-भाव दिखाई देता है। अमेरिका में काले परदेशियों को बड़ी मुश्किल से सम्मानजनक स्थान प्राप्त हो पाया है । ईसाई देशों में दूसरे धर्म के लोग परदेशी हो जाते है । यही स्थिति मुस्लिम राष्ट्रों की भी है । इस स्थिति से पाकिस्तान कैसे अछूता रह सकता है ? हिटलर की सारी ताकत आर्य और अनार्य के सिद्धांत पर ही आधारित थी । यह सिद्धांत जहाॅं उसे अपने देश में सिरमौर बनाता था वहीं शेष विश्व उसे फासिस्ट मानता था । इसी भेद ने सद्दाम हुसैन और बिन लादेन को भी सबक सिखया है । इतिहास इस तरह के अध्यायों से भरा पड़ा है ।
अब हम अपने देश को खोजने की कोशिश करें । हम एक विशाल देश में रहते है ,इतने विशाल कि जहाँ नागा और बोड़ो में ,मराठी और बिहारियों में और तो और हिन्दी भाषियों और गैरहिन्दी भाषियों में अंर्तविरोध है । यहाॅं बसे लाखों मुस्लिमों को आज भी बार -बार यह कहना पड़ता है कि भारत उनका भी उतना ही जितना किसी अन्य का । उन्हें अपने देशभक्त होने के प्रमाण देने पड़ते है । कुछ फासिस्ट लोग इन देश भक्तों को यह याद दिलाने की कोशिश करते रहते है कि वे आज भी विदेशी है । हम गाय और सुअर की मृत देह पर लड़ने और मरने को उतारु हो जाते है । हम देश में हो रहे अपराधों और आतंकी गतिविधियों में भी धर्म और सम्प्रदाय खोजने लगते है । दंगो जैसी आशंका के चलते जिस स्थान पर जो कमजोर है वो दहशत में जीने को मजबूर है । हम देश को अपने-अपने खानों में बांट कर देखते है । इस देश को समग्रता से लेने में हमारे अहम् को ठेस लगती है।
देश के अंदर भी नई जाति और साम्प्रदायगत व्यवस्था पनप रही है । हमारे लिए हमारे जाति,धर्म और सम्प्रदाय देश से बड़े हो गए है । हमें लगने लगा है कि जातियों से ही देश का भला है । अब हम फिर जातियों के खाने में बांट कर एक दूसरे को छोटा और स्वयम् को बड़ा समझने लगे है । राजनैतिक लोग इन परिस्थितियों का दोहन तो कर ही रहे है साथ ही अनेकों कुतर्कों और मनगढंत आकड़ों के द्वारा समाज और देश को गुमराह करने में लगे हुए है । वे जातिगत व्यवस्था के पोषक बन कर लाभ लेते हुए समाज और देश को भटकाने का प्रयास ही कर रहे है । सबसे अधिक आश्चर्य तो तब होता है जब कुछ समुदाय जिन्हें जातिवाद के कारण सबसे अधिक प्रताड़ित होना पड़ा आज लाभ के वातावरण को देख कर जातिवाद के समर्थन में खड़े दिखाई देते है । हम विदेशी विस्थापितों के दर्द को कितना समझते है, यह कहना तो कठिन है ही लेकिन देश के अंदर कितने विस्थापित है और उनका दर्द कौन समझता है, यह कहना भी आसान नहीं है । पूरे दे को खोजना हो तो अब फिर किसी फाह्यान को इन सब जाति और सम्प्रदायों के महासागर में गोते लगाना होगा ।

आलोक मिश्रा "मनमौजी"