Ek Duniya Ajnabi - 41 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | एक दुनिया अजनबी - 41

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एक दुनिया अजनबी - 41

एक दुनिया अजनबी

41-

"अरे ! अंदर आ जाओ न सुनीला , दरवाज़ा खुला ही है ---"

कॉरीडोर के दरवाज़े को ठेलते ही एक लंबी गैलरी सी दिखाई देने लगी |प्रखर के मन में उस लंबी गैलरी को देखने की उत्सुकता भर आई जो नीचे से दिखाई नहीं देती थी | वह अच्छी-ख़ासी लंबी -चौड़ी थी जिसके दोनों ओर महापुरुषों व योगियों की बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगाई गईं थीं, वे दूर से दिखाई दे रही थीं | सच में, एक अलौकिक अनुभव हो रहा था उसे लेकिन मंदा मौसी सबसे आगे के कमरे की खिड़की में से उन्हें ही देख रही थीं, उन्होंने आगे बढ़कर दरवाज़ा खोल दिया |

"मौसी ---" सुनीला जींस और सफ़ेद टी-शर्ट पहने एक अधेड़ स्त्री के गले जा चिपटी |

"कबसे फ़ोन कर रही हूँ ---अब फ़ुरसत मिली है तुम्हें मौसी से मिलने की? "

कहते हुए उन्होंने निवि को भी अपने पास बुला लिया था | दोनों के सिर पर हाथ फेरते हुए वह एक ममतामयी माँ सी प्रतीत हो रही थीं |

"आपकी शिक़ायत सही है मौसी ---बस ---"

"ये प्रखर ही है न ? " प्रखर की ओर स्नेह से देखकर मौसी ने पूछा |

उसे आश्चर्य हुआ, मौसी उसे भी जानती हैं ?

"आश्चर्य की बात नहीं है प्रखर, मौसी सब कुछ जानती हैं | बस, इतने दिनों से हम इनसे मिलने ही नहीं आ सके| " सुनील ने कहा |

" हाँ, मैं तो लगभग डेढ़ साल पहले आई थी-मौसी ! इतने दिनों में इतना कुछ बदल गया ? "

"हाँ, बेटा ---मेरा तो कोई प्लान नहीं था पर जब ऊपरवाला देने आता है तो वाक़ई छप्पर फाड़कर देता है, यह तो मुझे खूब अच्छी तरह अनुभव हो गया | "

"ऐसा क्या बदलाव हुआ मौसी? " सुनीला की आँखों में न जाने कितने प्रश्न उभर आए थे |
"अभी आए हो, बैठो --साँस तो लो ज़रा , चाय-नाश्ता करो सब बताती हूँ --"उन्होंने फ़ोन पर कई चीज़ों का ऑर्डर दे डाला फिर बोलीं;

"तुम लोग चाय लोगे या कॉफ़ी ---? "

"सबको कॉफ़ी ही पिलवा दीजिए मौसी---"सुनीला ने कहा |

मंदा मौसी प्रखर से उसके जीवन के बारे में बातें करने लगीं |

"जीवन के रँग हज़ार बच्चे ! और हमें खबर तक नहीं लगती कब? कैसे ? कहाँ ? जीवन करवट लेता है ? किससे जुड़ता, किससे टूटता है ? "

वातावरण गंभीर सा था किन्तु एक शुभ्र ज्योत्स्ना से आलोकित सा, मानो कुछ कहता सा, कुछ सुनता सा-- !

"ये इतना अलग कैसे है मौसी ? कैसे मैनेज होता है ? "प्रखर की विस्मय भरी दृष्टि उस बड़े कमरे के काँच के पारदर्शी दरवाज़े से लॉबी में लगी बड़ी-बड़ी तस्वीरों पर घूम रही थी जो किसी अलग तकनीक से बनाई गई थी |

कमरे से ही पूरी लॉबी दिखाई दे रही थी जो आगे जाकर किसी हॉल के दरवाज़े से मिलती दिखाई दे रही थी | प्रखर उसके आर्कीटेक्ट से सम्मोहित हो रहा था |