Ek Duniya Ajnabi - 40 in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | एक दुनिया अजनबी - 40

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एक दुनिया अजनबी - 40

एक दुनिया अजनबी

40-

मौसम सुहाना था, उसका ध्यान उन खूबसूरत कलात्मक चिकों पर अटक गया --प्रखर मन में स्थान का ज़ायज़ा ले रहा था | शाम का समय होने से लगभग सारी मेज़ें भरी हुई थीं जिन पर सफ़ेद एप्रिन, कैप और दस्ताने पहने लड़के ग्राहकों के ऑर्डर्स लेकर बड़ी शांति से लेकिन तीव्रता से हाथों में ट्रे पकड़े आते-जाते दिखाई दे रहे थे |

कई मेज़ों के पास सफ़ेद कमीज़ में खड़े, हाथों में पैन व पैड लेकर ऑर्डर की प्रतीक्षा में लड़के खड़े थे| कमाल की कलात्मकता थी, फ्यूज़न ---जैसे भारतीय व पश्चिम की खूबसूरती को एकाकार करने का सफ़ल प्रयत्न किया गया था | कुल मिलाकर एक अनुशासन और माधुर्यता का वातावरण देखकर प्रखर आश्चर्यचकित हो रहा था |

वातावरण में एक मीठा, मधुर 'फ्यूज़न' गीत बहुत कोमल सुर में तैर रहा था और वातावरण को मानो एक पवित्र अहसास से भर रहा था| मज़े की बात यह थी कि रेस्टोरेंट में एक पावन आश्रम-स्थली का आभास हो रहा था | रेस्टोरेंट में कोई शोर भी नहीं था |प्रखरके मन में प्रश्न उठ रहा था, वह कैसा रेस्टोरेंट था जिसका वातावरण इतना सहज, आश्रम-तुल्य था?

सुनीला मंदा मौसी को फ़ोन करती हुई दूर चली गई थी, यह पूछने कि वो कहाँ हैं ? और निवि उसके जैसे ही मुह घुमा-घुमाकर चारों ओर देख रही थी |

"दो-ढाई साल में तो कमाल कर दिया मंदा मौसी ने ---!"जैसे वह अपने-आप से बोली |

"हाल ही में ही बना है क्या ये ? " प्रखर ने पूछा |

"नहीं--नहीं, बने हुए तो दस /पंद्रह साल से ज़्यादा हो गए होंगे लेकिन इसकी काया पलट ने तो मुझे भी पशोपेश में डाल दिया | जब मैं आई थी लगभग ढाई साल पहले, तब इसका काम चल रहा था | तब तक इतना बड़ा और खूबसूरत नहीं था | अब तो बाबा रे !और इसका रंग-रूप तो ठीक, तौर-तरीके भी बदल गए हैं |"निवेदिता जैसे किसी अचरज को देख रही थी|

"मैंने हाई-वे पर ऎसी सुंदर व्यवस्था आज तक नहीं देखी , कितना घूमा हूँ बच्चों के साथ ----यह रेस्टोरेंट या होटल तो लगता ही नहीं, लोग कितनी शांति से बैठे हैं यहाँ, कमाल है !ऐसे हाई-वे रेस्टोरेंट्स में कितना भीड़-भड़क्का, शोर-शराबा होता है !"

"बच्चे याद आ रहे हैं ? " निवि ने उसकी पनीली, परेशान आँखें देखकर पूछा।

"कुछ चीज़ें दिल में कील की तरह ठुक जाती हैं, तुम्हें ऐसा नहीं लगता ---? "

"क्यों नहीं लगता ? पर 'मूव-ऑन' तो करना ज़रूरी है न ? "

" हाँ, बिलकुल ----जब तक जीवन है। जीना तो पड़ेगा ही न !" प्रखर ने मुस्कुराहट ओढ़ने की कोशिश की | वैसे वह एक्सपर्ट था इसमें, अपने मन की बात जो कहीं भी, कभी भी पता चलने दी हो किसी को ---उसकी पत्नी उसे बहुत चालाक कहती थी--किन्तु वह चालाक से अधिक भौंदू था, पीड़ा भी खुद भोगता और गाली भी खाता |

सुनीला चेहरे पर मुस्कान ओढ़े चली आ रही थी |

"कमाल है यार ! हमें यहाँ खड़ा करके कहाँ चली गईं थीं ? "

"अरे ! यहाँ तो सारा पूरा सनारियो ही बदल गया, मौसी को ढूँढ रही थी, फिर ज़रा फ़्रेश होने चली गई --"

"कहाँ हैं मंदा मौसी ----? "

"उन्होंने ऊपर अपना अलग एक सूट बनवा लिया है ---चलो, वो रही लिफ़्ट --चलते हैं --" कहकर सुनीला दाहिनी ओर बरामदे की ओर मुड़ गई |

"सीढ़ियों से चलते हैं न --एक मंज़िल भी नहीं चढ़ सकते क्या --? "

"मंदा मौसी टॉप पर हैं यानि दूसरी मंज़िल पर ---"

प्रखर व निवि ने ऊपर की ओर ऑंखें उठाकर देखा, ऐसा कुछ आभास ही नहीं हो रहा था कि यहाँ दूसरी मंज़िल पर भी कुछ हो सकता है ? नीचे से तो केवल वे कमरे दिखाई दे रहे थे जो आवश्यकता पड़ने पर यात्रियों के ठहरने के लिए बनाए गए थे | दोनों चुपचाप सुनीला के पीछे-पीछे चल दिए | कुछ कदम पर एक ओर बरामदे के कोने में लिफ़्ट व साइड में सीढ़ियाँ भी थीं |

लिफ़्ट में कोई बात नहीं कर रहा था | दो मिनट में वे तीनों दूसरी मंज़िल पर थे | दरवाज़ा खोलकर तीनों आगे बढ़े | विशाल छत पर सुंदर टेरेस-गार्डन बना हुआ था और पीछे की ओर एक बड़ा दरवाज़ा दिखाई दे रहा था | स्पष्ट पता चल रहा था जैसे वह कोई कॉरीडोर था, एक बड़ा सा कॉरीडोर !

टेरेस-गार्डन में हर रंग के मुस्कुराते फूलों से सबके मन में एक सकारात्मकता का भाव उपजने लगा | इस लंबी-चौड़ी छत के गार्डन को बड़े सलीके से दो भागों में विभाजित किया गया था | जिसमें आगे की ओर फूलों के पौधे थे तो पीछे का भाग किचन-गार्डन बनाया गया था | दूर से ही कच्चे पक्के टमाटरों के पौधे , लौकी की बेलें और भी न जाने क्या-क्या फल व सब्ज़ियाँ पवन में झूमते हुए मन को लुभा रहे थे|

अब तीनों कॉरीडोर के दरवाज़े पर खड़े थे |