History seeker in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | इतिहास भक्षी

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इतिहास भक्षी

इतिहास-भक्षी

नब्बे साल की बूढ़ी आँखों में चमक आ गई। लाठी थामे चल रहे हाथों का कंपकपाना कुछ कम हो गया। … वो उधर , वो वो भी, वो वाला भी... और वो पूरी की पूरी कतार … कह कर जब बूढ़ा खिसियानी सी हँसी हँसा तो पोपले मुंह के चौबारे में एकछत्र राज्य करता वह कत्थई-पीला,बेतहाशा नुकीला,कुदालनुमा अकेला दांत फरफरा उठा। थूक के दो-चार छींटे उड़े। लड़के ने कान के पास मक्खी उड़ाने की तरह हाथ पंखे सा झला, फिर सामने देखने लगा।
बूढ़ा उस उन्नीस-बीस साल के लड़के का दादा था। दूर के किसी गाँव का रहने वाला वह लड़का उस लम्बे-चौड़े महलनुमा बंगले में छह महीने पहले ही माली के काम पर लगा था। और इसी बंगले में इसी काम पर लड़के का दादा उस से पहले लगभग पचास बरस से काम करता रहा था।
आधी सदी के इस सेवक की हड्डी-पसलियों और नित बुझती आँखों ने जब उसे जिस्म से रिटायर करने की धमकी दी, तभी मालिकों ने उसे बगीचे की मालियत से भी रिटायर कर दिया। पर आधी सदी की चाकरी बेकार नहीं गई। बूढ़ा मिन्नतें कर-कर के अपनी जगह अपने पोते को काम पर रखवा गया था।
इसीलिए आज जब किसी आते-जाते के साथ बूढ़ा अपने पोते की खोज-खबर लेने और अपने पुराने मालिकों की देहरी पूजने यहाँ आया तो पोते का कन्धा पकड़ उस विराट बगीचे को निहारने भी चला आया, जहाँ अपना तन-मन लेकर वह एड़ी से चोटी तक खर्च हुआ था।
और बस, अपने पोते को अपनी उपलब्धियां दिखाते-बताते वह बुरी तरह उत्तेजित हो गया। उसने कौन सी जमीन की कैसे काया पलट की , कौन-कौन से बिरवे रोपे, कौन से फूल से कैसे मालिक-मालकिन का दिल जीता,और कहाँ की मिट्टी में उसका कितना पसीना दफ़न है, सब वह अपने पोते को बताने में मशगूल हो गया। पोते का मुंह वैसे का वैसा ही चिकना-सपाट बना रहा।
मालिक लोग तो अभी बंगले में थे नहीं, पोता अपने दादा को कंधे का सहारा देकर बाग़ में घुमा रहा था। बूढ़ा अपनी पुरानी स्मृतियों की फटी बोरी से टपकती यादों को समेटता बता रहा था कि कहाँ-कहाँ के झाड़-झंखाड़ को हटा कर उसने वटवृक्ष खड़े कर दिए, कैसे मौसमों की मार से लोहा ले-ले कर उसने गुल खिलाये।
पचास साल बहुत होते हैं, आदमी की तो बिसात क्या, इतने में तो मुल्कों के नाम और दर्शन बदल जाते हैं।
बूढ़े के पास एक-एक बित्ते की उसके हाथों हुई काया-पलट का पूरा लेखा-जोखा था मगर इस बात का कोई जमा-जोड़ नहीं था कि इस सारी उखाड़-पछाड़ में उसकी अपनी ज़िंदगी का क्या हुआ? उसकी अपनी उम्र की काया कैसे और कब मिट्टी हो गई।
शायद जवान पोते पर उसकी बात का कोई ख़ास असर न पड़ने का यही कारण रहा हो।
लड़का दादा की बातें सुन-सुन कर शाश्वत खेल के किसी अगले खिलाड़ी की तरह अपने भविष्य की चौसर बिछाने में अपने मन को उलझाये था।
वह गांव में कुछ बरस स्कूल भी गया था। उसे किताब-कापी-मास्टर-बस्ता और घंटी की धुंधली सी याद भी थी।
वहाँ उसे बताया गया था कि बूँद-बूँद से घड़ा भर जाता है, और ज्ञान के सरोवर के किनारे बैठ कर तो कठौती में गंगा भी समा जाती है।
पर उसके अतीत में कुछ नहीं समाया। समाये तो केवल यार-दोस्तों के संग लगाए गए बीड़ी के कश ,गुटखों की पीक, मास्टर के थप्पड़ और ये स्कूल के अहाते से थपेड़े खिला कर बंगले के बगीचे में घास खोदने को छोड़ गया मटमैला अंधड़।
दादा ने पोते को बताया कि उसे यहाँ पूरे चौदह रूपये महीने के मिला करते थे और वह गांव,दादी,परिवार सब को भूल कर पूरी मुस्तैदी से तन-मन लगाकर सहरा को नखलिस्तान बनाने में लगा रहता था, अर्थात बगीचे को गुलज़ार कर देने के सपने देखा करता था।
बहुत दिन बाद अपने किसी परिजन को देखने का उत्साह लड़के की सोच से अब धीरे-धीरे ओझल होने लगा था। लेकिन उसकी उदासीनता ने दादाजी का उत्साह लेशमात्र भी कम नहीं किया था। वह अब भी उसी तरह चहक रहे थे। मानो उन्होंने वहाँ काम करते हुए अपना पसीना नहीं बहाया हो, बल्कि बदन पर चढ़े उम्र की चांदी के वर्क मिट्टी को भेंट किये हों।
चलते चलते दोनों पिछवाड़े के उस कमरे में आ गए जो अब नए माली, दादाजी के पोते, अर्थात उस कल के लड़के को रहने के लिए दिया गया था।
दादाजी को थोड़ी हैरानी हुई। -" तुझे कमरा? मैं गर्मी- सर्दी- बरसात उस पेड़ के नीचे बांस के एक झिंगले से खटोले पर सोता था। कभी-कभी तेज़ बारिश आने पर तो वह भी चौकीदार के साथ सांझा करना पड़ता था।"
कमरे की दीवार पर एक खूँटी पर दो-तीन ज़ींस टँगी देख कर दादाजी अचम्भे से पोते को देखने लगे-"और कौन है यहाँ तेरे साथ?"
कोई नहीं, मेरे ही कपड़े हैं। लड़के ने लापरवाही से कहा।
दादाजी ने एक बार झुक कर अपनी घुटनों के ऊपर तक चढ़ी मटमैली झीनी धोती को देखा, पर उनसे रहा नहीं गया- "क्यों रे, ये चुस्त विलायती कपड़े पहन कर तो तू पौधों की निराई-गुड़ाई क्या कर पाता होगा?"
लड़के को मानो उनकी बात ही समझ में नहीं आई। फिर भी बुदबुदा कर बोला-"वो तो नर्सरी वाले कर के ही जाते हैं। बीज-पौधे तो वो ही लगाते हैं।"
यह सुन कर दादाजी थोड़े अन्यमनस्क हुए। लड़के ने एक चमकदार शीशे की बोतल से दादाजी को पानी पिलाया।
दादाजी हैरान हुए-"बेटा, मालिकों की चीज़ें बिना पूछे नहीं छूनी चाहिए।"
अब हैरान होने की बारी लड़के की थी। वह उसी चिकने सपाट चेहरे से बोला-"ये सब मालिक ने ही तो दिया है।"
दादाजी को कमरे की खिड़की से एक बूढ़ा-ठठरा सा सूखा पेड़ दिखा तो वे जैसे उमड़ पड़े - "देख, देख ये रहा वो पेड़। इसमें जब पहली बार फल आया, तो उस बरस मुझे होली पर घर जाने का ख्याल छोड़ना पड़ा, मेरे पीछे कोई छोड़ता फलों को?" दादाजी बोले।
लड़के को चुप देख वो ही बोल पड़े-"फिर जब मैं घर नहीं जा सका तो गाँव से तेरी दादी ने दो सेर जौ और गुड़ की डली किसी के हाथों मेरे लिए भिजवाई।"
लड़के को ये सब बेतुका सा लग रहा था। उसके कमरे में पड़े पुराने सोफे पर अखबार में लिपटा वो आधा पिज़्ज़ा अब तक पड़ा था जो सुबह नाश्ते के समय मालकिन ने खुद उसे पकड़ा दिया था।
बूढ़े की आँखों को किसी डबडबाये बजरे की तरह डोलता देख उसका पोता उसे ये भी नहीं बता सका कि उसे हर दो-चार दिन में डायनिंग टेबल पर बची मछली के साथ जूस का डिब्बा जब-तब मिल जाया करता है।
लेकिन लड़के को अपने स्कूल का वो मास्टर ज़रूर याद आ गया जो कहा करता था कि किसी को रोज़ मछली परोसने से बेहतर है कि उसे मछली पकड़ना सिखाया जाये।
लड़का अपने दादा की पेशानी की झुर्रियां देख कर सोचने लगा कि ये सलवटें शायद मछलियां पकड़ते रहने का ही नतीजा हैं।दादाजी जब-तब चहक उठते -"ये तेरी मालकिन जब बहू बन कर इस घर में आई थी तो साल भर तक हम इसे देख ही नहीं सके, हमें चाय पानी तो डालते थे कोठी के बावर्ची, और खुरपी कुदाल निकाल कर देते थे नौकर। हाँ आते-जाते मोटर के शीशे से घर के बाल-बच्चों की झलक ज़रूर छटे-छमाहे दिख जाती थी।"
बदले में लड़के को चुप रह जाना पड़ता। उसके पास कुछ था ही नहीं बोलने को। उसे कभी कहीं गड्ढा नहीं खोदना पड़ा, बुवाई-रोपाई-गुढ़ाई तो नर्सरी का आदमी सब कर ही जाता था। दिन भर स्प्रिंक्लर चलते रहते, पानी के फव्वारे छोड़ते।
हाँ, छोटी और मझली बेटियां तो हर काम के लिए पैसे ऐसे पकड़ाती हैं, कि देखने की कौन कहे, हाथ कई बार छू तक जाता है, पर अब ये सब क्या दादाजी को बताने वाली बात है?
पोते की युगांतरकारी चुप्पी से खीज कर दादा ही फिर बोल पड़ा- "टोकरे के टोकरे उतरते थे पेड़ों से, पूरी बस्ती में बँटते, घर में भी महीनों खाये जाते थे।"
अबकी बार लड़के के तरकश में भी एकाध तीर निकला, बोला-"ये सब नहीं खाते, सब इम्पोर्टेड फल आते हैं मॉल से।"
लड़के ने जेब से जब मोबाइल फ़ोन निकाल कर अपनी नई सी दिखने वाली रंगीन बनियान की जेब में घुसाया तो दादाजी से रहा न गया, बोले - "कितना देते हैं तुझे?"
लड़का समझ गया कि दादाजी के दिमाग में कोई और कीड़ा कुलबुलाने लगा है, बात का बतंगड़ न बनने देने की गरज़ से लड़का बोला- "घर में इतने लोग हैं, सब कुछ न कुछ देते रहते हैं, अपना ये पुराना मोबाइल तो मालिक की छोटी बेटी ने कुछ दिन पहले ही दिया था ।"
दादाजी ने अपने जवान पोते के कसरती से दीखते शरीर पर नज़र डाली तो उन्हें अपने घर की शाश्वत गरीबी याद आ गई। दादाजी का मन कमरे से निकल कर बाग़ में विचरने लगा। आखिर उस बाग़ की मिट्टी उनके पसीने से ही तो नम हुई थी। दादाजी को लगता था कि बगीचे के पत्ते-पत्ते बूटे-बूटे में उनका इतिहास बिखरा पड़ा है। अपने दिन-रात, अपनी जवानी-बुढ़ापा, अपने सुख-दुःख, अपने घर-परिवार, सब को मीड़ मसोस कर वह धूल की तरह इस ज़मीन पर छिटका गए और बदले में ले गए ज़िंदगी गंवाने का सर्टिफिकेट।
और आज उनकी ज़िंदगी-भर की फसल पर भोगी इल्लियां लग गई हैं, उनका इतिहास कोई खा रहा है। कमरे का दरवाजा भेड़ कर पोते ने अपने सफ़ेद झक्क जूते पहने तो दादाजी भी जाने के लिए कसमसाने लगे। मालिक लोगों का क्या भरोसा, रात तक न आयें।लड़का बंगले के मेन गेट तक दादाजी को छोड़ने आया, और बाहर की सड़क पर दादाजी को एक दूकान में घुसा देख कर वहीँ खड़ा हो गया।
दवा की दूकान थी। लड़के को अचम्भा हुआ- तो क्या दादाजी बीमार हैं? उन्होंने बताया क्यों नहीं।
लड़का उनसे कुछ पूछ पाता इस से पहले ही वह दूकान से पैसे देकर वापस पलट लिए।
उन्होंने एक छोटा सा पैकेट लड़के को पकड़ाया तो लड़का शर्म से पानी-पानी हो गया। पैकेट में कुछ कंडोम थे।
दादाजी बोल पड़े- "बेटा, आजकल तरह-तरह की बीमारियां फ़ैल रही हैं, तू यहाँ परदेस में किसी मुसीबत में मत पड़ जाना।"
लड़के को संकोच से गढ़ा देख दादाजी एक बार फिर चहके- "सोच क्या रहा है, रखले, दादा हूँ तेरा!"
[समाप्त]