15प्रकृति धर्म
समय अपनी गति से प्रवाहमान रहता है। निषाद एकलव्य भील जातियों के कल्याण कार्य में व्यस्त रहने लगे। उनके पुत्र पारस और विजय अपने पिता की तरह धनुर्विद्या और गदा संचालन में प्रवीण हो गये। वे भी अपने पिता के अनुसार प्रतिभाशाली हैं। उसकी माताजी वेणु उन्हे धनुर्विद्या के अभ्यास कराने में व्यस्त रहती थीं।
अनेक दिन बीत चुके थे ।
आज लम्बे समय बाद निषादराज एकलव्य के दरबार में सभासदों की सभा हो रही है। महारानी वेणु हर बार की तरह निषादपति एकलव्य की बांयी ओर सिंहासन पर विराजमान हैं। सभी सभासद आसन ग्रहण कर चुके हैं। आज वृद्ध मंत्री चक्रधर के युवा पुत्र शंखधर भी उपस्थित हैं। उसने भी एकलव्य के साथ शिक्षा ग्रहण की है। इन दिनों मंत्री चक्रधर उसे राजकाज की शिक्षा देने के लिये साथ रखने लगे हैं। धीरे धीरे वह अपने पिता की तरह राज्य के कार्यों में प्रवीण होता जा रहा है।
जब सभासद बैठ चुके, निषादराज एकलव्य ने लम्बे समय से उठ रहे पश्न को सभी के समक्ष रखा, ‘‘सभासदों, हमको यह ज्ञात नहीं हो पा रहा कि इतिहास में हम छोटी जाति के कब और कैसे हो गयें ? यह प्रश्न मेरे अंतःकरण को लम्बे समय से झकझोरता रहा है। आज यही प्रश्न पुनः तीव्र वेग से उठ रहा है। जातियों के सृजन के सम्बन्ध में आपके विचार हम जानना चाहते हैं।’’
मंत्री चक्रधर का पुत्र शंखधर बोला, ’निषादराज आज्ञा हो तो मैं कुछ कहूँ ।’
’हाँ हाँ, निःसंकोच कहें।’
’निषादराज आपके प्रश्न को सुनकर मेरे हृदय में एक प्रश्न उठ रहा है।’
निषादराज ने पूछ लिया, ’कैसा प्रश्न ?’
’यही सतयुग अर्थात कृतयुग में सभी एक वर्ण के थे। महर्शि वेदव्यास, इन सभी बातों को स्वीकार कर चुके हैं।
मन्त्री चक्रधर अपने पुत्र के विवेकशील उत्तर के लिये उसका साहस बढ़ाते हुये बोले, ’पुत्र शंखधर तुमने यह बात कहां से जानी, कि बेदव्यास यह बात स्वीकार कर चुके हैं ?‘
‘‘मैने-हरीवंश पुराण का गहराई से अध्ययन किया है।’’
‘‘यह कोैन सा पुराण है ?‘‘ चक्रधर बिस्मित थे ।
‘‘ आप सब सुनें , यह जय पुराण से पूर्व की कृति है । आप सबको ज्ञात नहीं होगा कि कौरव-पाण्डवों के युद्ध का वर्णन करने वाला एक ग्रंथ महर्षि बेद व्यास ने अभी अभी लिखना शुरु किया है । इसे वे ‘‘ जय ‘‘ के नाम से पुकारत हैं यह ग्रन्थ प्रसिद्ध होता जा रहा है । ‘‘ शंखधर ने विनम्रता से कहा ।
‘‘ वाह शंखधर, तुम तो अध्ययनशील और नीतिवान हो ।‘‘ महाराज निषादराज ने अपने मुंह से शंखधर की प्रशंसा की । अपनी प्रशंसा सुनकर आत्मविभोर होते हुये शंखधर ने कहना शुरू किया, ‘‘ बेद व्यास लिखते हैं कि सतयुग के समय एक वर्ण और जाति का ऐसा समाज था जिसमें किसी का कहीं शोषण, उत्पीड़न नहीं था। उस समय न कोई राजा था, न राज्य। न दण्ड था और न दण्ड देने वाला ही। सभी प्रजाजन धर्म से परस्पर अपनी रक्षा करते। .......किन्तु राजनीति ने उसमें प्रवेश किया। आम जन में आपस में युद्ध हुआ। जो युद्ध में विजयी हुआ वह स्वामी और जो युद्ध में पराजित हुये वे दास बन गये।’
’आपकी बात से मैं असहमत नहीं हूँ वत्स शंखधर, किन्तु अर्थ ने भी अपने पंख फैलाये। इनमें जो समृद्ध गण थे वे और ऊँचे हो गये। असमृद्ध गण उनसे नीचे गिने जाने लगे। युद्ध में जो वीर मारे गये उनकी पत्नियाँ दासी के रूप में सामने लायी गयीं। उन्हें दासी धर्म के पालन की शिक्षा दी गई। धीरे धीरे स्वामी ने दास दासियों में भेद डालना शुरू कर दिया। जिससे वे एकजुट होकर सामना न करने लगें। उनमें भी चमड़ी के रंग के आधार पर भेद भाव की खाई पैदा की गई। सुन्दर दासियाँ उपहार की वस्तु बन गईं। द्रोपदी के विवाह में द्रुपदने यौवन पर चढ़तीं मंहगे वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित सौ श्यामा दासिया दीं।’‘ मनोहर ने सहसा उपस्थित होकर शंखधर की बात को आगे बढ़ाया तो सबने चौंक कर वृद्ध मनोहर को देखा ।
शंखधर सम्पूर्ण सभा पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था इसीलिये मनोहर की बात काटते हुये बोला, ’निषादराज, स्वामी वर्ग दो भागों में बंटा- ब्राह्मण एवं क्षत्रिय। दास वर्ग भी दो भागों में विभाजित हो गया- वैश्य और शूद्र वर्ग। जिनका शिल्प पर थोड़ा सा भी अधिकार था वे वैश्य के रूप में सामने आये। जो शिल्पहीन थे उन्हें सेवा करने का कार्य मिला। धीरे धीरे सेवा करने वालों से शिल्पी उच्च वर्ग में गिने जाने लगे।’
मनोहर ने सोचा- यह युवा शंखधर अपने आप को जाने क्या समझ रहा है ? अरे ! मैने सम्पूर्ण देश का भ्रमण किया है। यह सोचकर वह बोला, ’ब्राह्मण और क्षत्रिय कर्म को छोटा मानने लगे। यहीं से समाज का पतन शुरू हो गया। कर्म करने वाले छोटे माने जाने लगे। वे शूद्र कहे गये।’
निषादराज एकलव्य ने इस समय अपने मन की बात कही, ‘‘ आप दोनों की बात के आधार पर मैं कहना चाहता हूँ कि श्रम कार्यों का विकास तभी हो सकता है जब श्रम बुद्धि से जुड़े। श्रम बुद्धि से कटकर अन्धा है और वहीं श्रम से कटकर बुद्धि बहरी है। हमारे इस भरतखण्ड का यही तो दुर्भाग्य रहा है। यहां श्रम और बुद्धि को पृथक पृथक स्थान पर रखा गया है। इसी का परिणाम है कि हम छोटे गिने जा रहे हैं। हमारे श्रम ने बुद्धि और विवेक का साथ लिया है। इसी कारण हम किसी से पीछे नहीं हैं किन्तु जिन लोगों ने बुद्धि और श्रम का बंटवारा किया था, वे हमें परम्परा के कारण छोटे मान रहे हैं। जाने इन लोगों की कुण्ठित बुद्धि कब खुलेगी ?’
महारानी वेणु बोली, ’हमारे निषादराज के मन में जिस प्रश्न को लेकर कुण्ठा घर कर गई, आज उसका दूध का दूध और पानी का पानी हो गया है। किसी दूसरे के मानने न मानने से हम छोटे बड़े तो नहीं हो जाते।’
निषादपुरम के वयोवृद्ध जनसेवक मनोहर ने पुनः खड़े होते हुये कहा, ‘‘आज हमारी सभा ने जो विचार विमर्ष किया है, इन्हीं सब तथ्यों को महा ऋषि वेदव्यास ने अपने नवीन पुराण ’जय’ में अनेक स्थानों पर जातियों के उत्थान पतन के मुख्य बिन्दुओं को भी छूने का प्रयास किया है, क्यों कि मैंने भी उस ग्रंथ अध्ययन कर लिया है। इस समय याद आ रहा है वेदव्यास ने यह स्वीकार किया है कि कृतयुग में नियम विरूद्ध आचरण करने वाले को लोकनिन्दा से नियंत्रित किया जाता था। लोकमत के द्वारा ही लोगों को सामाजिक कार्य और न्याय के रास्ते पर चलने की प्रेरणा दी जाती थी। आप सभी को ज्ञात होना चाहिये कि कृतयुग में दास नहीं थे।’’
उसकी यह बात सुनकर शंखधर बोला, ’वेदव्यास के अनुसार आरम्भ में सब लोग परस्पर एक दूसरे की धर्म पूर्वक रक्षा करने वाले थे। वह समाज संकट में उस समय पड़ा जब उसके सदस्यों में मोह घर कर गया। मोह के कारण सामाजिक नियम की भावना नष्ट हो गई। परस्पर अविश्वास से मोह के वश में होने के कारण सभी लोग लोभ के वशीभूत हो गये। जो उन्हें प्राप्त नहीं था उसका लालच और अनावश्यक चिन्तन करने के कारण उनमें काम नाम का दूसरा दोश पैदा हो गया। काम के वेग से राग का दोश आ गया । इससे उनका विवेक नश्ट हो गया। इस स्थिति में लोग कार्य तथा अकार्य में भेद भूल गये। दोष और अदोष में भेद करना छोड़ दिया। इस तरह समाज गलत रास्ते पर चलने के कारण लोगों की सामूहिकता की भावना नष्ट हो गई। व्यक्ति व्यक्तिवाचक हो गया।
शंखधर की यह बात सुनकर सभी उसके ज्ञान की मुक्तकंठ से प्रशंसा करने लगे। उपस्थितजनों के अन्दर की भावना को निषादराज ने अनुभव करते हुये कहा, ’आश्चर्य है हमें अपने मन्त्री के पुत्र की बुद्धि पर। हमारे मन्त्री चक्रधर चाहें तो अपना दायित्व अपने पुत्र शंखधर को सौंपकर इस दायित्व से मुक्ति पा सकते हैं।’
आदेश पाकर मन्त्री चक्रधर बोले, ’निषादराज से मैं अपने मन की यह बात कहने की सोच ही रहा था। अब मैं इसी समय अपना यह दायित्व इस महासभा के समक्ष ही शंखधर को सौंपता हूँ । यह कहकर वृद्ध मन्त्री चक्रधर ने निषादराज के सिंहासन के समक्ष जाकर अपना धनुष बाण अपने पुत्र शंखधर के हाथों में सौंप दिया।’
यह देखकर निषादपुरम के वयोवृद्ध मनोहर ने खड़े होकर कहा, ’मैं इस अवसर पर सम्पूर्ण सभा की ओर से निषादराज का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ । उन्होंने वृद्ध मंत्री को दायित्व से मुक्त करके उचित ही निर्णय लिया है। मैं अपने नये मंत्री शंखधर से आशा करता हूँ कि वे अपने पिताजी के पद चिन्हों पर चलकर निषादपुरम की प्रगति के लिये प्रयास करते रहेंगे।’
इस निर्णय के बाद कुछ क्षणों तक सभा स्तब्ध बनी रही। वृद्ध मनोहर ने ही सभा का मौन तोड़ा, ’मैं प्रसंग पर ही आ रहा हूँ । ‘‘लोगों को जैसे हिंसक जन्तुओं से भय होता है, ठीक वैसे ही उद्दण्ड लोगों से भी सदा भय बना रहता है। एक की संपत्ति को दो मिलकर छीन लेते हैं। दो से वह संपत्ति बहुत से छीन लेते हैं। स्वतंत्र नागरिक दास बना लिये जाते हैं। इसीलिये इन अपराधों को रोंकने के लिये राजा की सृश्टि की गई।’
शंखधर ने बात को और आगे बढ़ाया, ’राजा का सृजन यकायक नहीं हुआ पहले पहरेदार बना। बाद में पहरेदार रूपी सैनिक को दण्ड देने का अधिकार दे दिया गया। धीरे धीरे व्यवस्था बनाये रखने के लिये पहरेदार दण्ड हाथ में लेने लगे। शक्ति संपन्न होने से वे राजा के रूप में प्रतिष्ठित हो गये। उनके चाटुकार उन्हें भगवान के प्रतिनिधि के रूप में देखने लगे।’
लम्बे समय से चल रही चर्चा में निषादराज के पुत्र पारस ने अपना मत सुनाया, सभासदों, धीरे धीरे जातियाँ प्रजातियाँ बनती बिगड़ती चली गईं।’
काका ने बताया कि ’’जय पुराण’’ में समाज के विकास के उन तथ्यों को महर्शि वेदव्यास ने इसे स्वीकार किया है। उन्होंने देश और समाज को ऐसी कृति दी है जो युगों युगों तक समाज को सही दिशा देने में अपनी भूमिका का निर्वाह करती रहेगी।
सभा में किसी ने खडे़ होकर कहा, वेदव्यास ने कहीं कोई भी बात गोपनीय नहीं रखी है। हम वेदव्यास जी के इस के लिये हृदय से आभारी हैं।’
वर्योवृद्ध मनोहर खड़े होते हुये बोला, ‘‘ किन्तु......?’’
सभासदों में से किसी के शब्द सुनाई पडे, ‘‘ किन्तु क्या ..... ?’’
यही वेदव्यास ने हमारे निषादराज एकलव्य के अंगुष्ठदान की बात तो ग्रन्थ में स्वीकारी है किन्तु उसके पश्चात् क्या वेदव्यास जैसा व्यक्तित्व इस पुराण में निषादराज के व्यक्तिव्व को भूल गया होगा?’
सभा में से एक और व्यक्ति ने खड़े होते हुये कहा, ‘‘भैया वे भूले नहीं है। सुना है वे श्री हरिवंश नाम के एक पुराण की भी संरचना कर चुके हैं। उसमें इनका उल्लेख है।’’
यह सुनकर निषादराज एकलव्य ने अपना निर्णय सुनाया, ’गुणदोश तो प्रत्येक विशय में है। संसार में कोई चाहे कितना ही श्रेष्ठग्र्रंथ लिख ले, दोश ढूँढने पर तो उसमें भी मिल जायेंगे। जहां हमें श्रेष्ठबातें मिलें, उन्हें स्वीकार लें। निन्दा को छोड़ दें। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम सब भी उन्हीं लोगांे में गिने जायेंगे।
इसी समय सभी का ध्यान प्रवेश द्वार की ओर चला गया। कुछ लोग जोर जोर से बातें करते हुये निषादराज के सिंहासन की ओर बढ़ते आ रहे थे। अब पूरा जत्था उनके समक्ष आकर खड़ा हो गया था। उनके साथ आया वृद्ध बोला, ’निषादराज, हमारे जाति कुटुम्ब की घोंटुल परम्परा को इस मिट्ठू नामक युवक ने तोड़ा है।’
महारानी वेणु ने पूछा, ’ कहो, कैसे ...?’
मिट्ठू ने घोंटुल में मेरी पुत्र की पुत्री बांसो के साथ उसकी इच्छा के विरूद्ध संपर्क स्थापित करने का प्रयास किया है। मेरी पौत्री मिट्ठू से विवाह नहीं करना चाहती।’
निषादराज ने अपना निर्णय सुनाया, ’धर्म के अनुसार घोंटुल की मर्यादा बनाये रखना सभी का दायित्व है। मिट्ठू के पिताजी और माताजी ने उसे घोंटुल में भेजने से पूर्व क्या उसकी परम्परा का उसे ज्ञान नहीं दिया।’’
मिट्ठू के पिता ने निवेदन भरे स्वर में कहा, ’अपराध क्षमा हो निषादराज। हमने घोंटुल की मर्यादाओं के संबंध में इसे ज्ञान तो दिया था किन्तु ...।’
’किन्तु क्या ...?’
‘‘हमें तो लगता है यह अन्य जातियों के युवकों के प्रभाव में उच्छृंखल हो गया।’’
‘‘युवक, तुम्हें इसका दण्ड मिलेगा। घोंटुल हमारी सांस्कृतिक विरासत के रखवाले हैं।’यह कहते हुये निषादराज ने जत्थे के साथ आये वृद्ध की ओर देखते हुये पूछा, ’आपके कुटुम्ब में इसका क्या दण्ड निश्चित है ?’’
‘’निषादराज, हमारे कुटुम्ब में अन्य कुटुम्बों की तरह अपराधी को समाज से पृथक कर दिया जाता है।किन्तु ऐसे प्रतिभावान युवक को यह दण्ड देना हमें उचित नहीं लग रहा है। इसीलिये हम आपके पास न्याय के लिये उपस्थित हुये हैं।’’
मिट्ठू ने आत्म निवेदन किया, ‘’निषादराज, मुझसे यह अपराध हो गया है। आप मुझे जो भी दण्ड देंगे, सहर्ष स्वीकार है।’’
यह अपना दोश स्वीकार कर रहा है यह सोचकर निषादराज बांसो के चेहरे की ओर देखने लगे। बांस की तरह लंबी बांसो चुपचाप सिर झुकाये खड़ी थी।
निषादराज ने आदेश दिया, ’‘मिट्ठू को उस समय तक इन्द्रन नदी में तैरते रहना पड़ेगा जब तक बांसो उसे क्षमा न कर दे।’’
यह सुनकर मिट्ठू ने निषादराज के आदेश को शिरोधार्य करते हुये कहा, ‘’निषादराज की जैसी आज्ञा।’’
अब निषादराज ने अपने मंत्री शंखधर की ओर देखते हुये कहा, ‘’ठीक है, ये मंत्री शंखधर की देखरेख में तैरना शुरू करे।’’
मंत्री शंखधर मिट्ठू को लेकर इन्द्रन के घाट पर पहुंच गया। उसने तैरना शुरू कर दिया था। दिन अस्त होने को हो गया। वह पूरी तरह थक चुका। बांसो इन्द्रन के घाट पर उसे तैरता हुआ देखने के लिये पहुंच गई। उसने देखा, वह किसी भी क्षण डूब सकता है इसीलिये वह जोर से चिल्लाकर बोली, ‘’मिट्ठू, मैंने तुम्हें क्षमा किया, तुम जल से बाहर निकल आओ।’’
उत्तर में कठिनता से मिटठू ने कहा, ‘’बांसो, मैं तुम्हारे बिना जल में से बाहर निकलकर क्या करूंगा ?यदि तुम मुझसे विवाह करोगी तो ही मैं जल से बाहर निकलूंगा।’’
कुछ क्षणों तक बांसो सोचती रही, उसे लगा कि वह जिद्दी स्वभाव का है। यह तो मेरे बिना जीवित ही नहीं रहना चाहता। इसी समय उसने देखा वह डूबने ही वाला है। वह चिल्ला पड़ी, ’‘अच्छा मिट्ठू, तुम बाहर निकल आओ। मैं तुमसे विवाह करने के लिये तैयार हूँ।’’
यह सुनकर वह कठिनता से तैरते हुये किनारे पर आ गया। बांसो ने हाथ पकड़कर उसे जल से बाहर निकाला। वह निढ़ाल धरती पर पड़ा रहा। बांसो उसके तलबों को मलने लगी।
मंत्री शंखधर वहां उपस्थित थे ही। वे भी उन दोनों के पास आ गये। मंत्री को पास आया हुआ देखकर वह बांसो की सहायता से खड़ा हो गया। यह देखकर शंखधर बोला, ‘’देख मिट्ठू, बांसो बहुत अच्छी लड़की है। इसके हृदय में दया धर्म है।’’
‘‘मंत्री जी, मैं बांसो के इस स्वभाव को घोंटुलवास में हीं समझ गया था।’’
‘’और तुमने इसके इस स्वभाव का लाभ उठाया है।’’
‘’यह बात नहीं है मंत्री जी। यदि बांसो अब भी मुझसे विवाह नहीं करना चाहती तो मैं अब इसकी तरफ मुडकर देखूँगा भी नहीं।’’
यह सुनकर मंत्री शंखधर बांसो के मुख की तरफ देखने लगा। बांसो समझ गई, मंत्री जी मेरा अभिमत चाहते हैं। यह सोचकर वह बोली, ‘’मंत्री जी मैंने इसे अपनी स्वीकृति विवाह करने के लिये प्रदान कर दी है। मैं अपने वचन से मुकर नहीं सकती।’’
यह सुनकर मंत्री शंखधर ने अपना आदेश सुनाया, ‘’मिटठू और बांसो का मिलन मंगलमय हो। मैं इसकी सूचना निषादराज को दे दूंगा ।’’
यह कहते हुये मंत्री शंखधर उन्हें घाट पर ही छोड़कर चले आये।