14एकलव्य और बलराम में गदा युद्ध
निर्धारित योजना के अनुसार निषादराज आक्रमण करने के लिये द्वारिकापुरी जा पहुँचे। पुष्पक ने सोचा- पौण्ड्र (करूश) कुमायूं से चल पड़ा होगा। वह भी यहाँ आने ही वाला होगा। उधर द्वारका में ज्यों ही सूचना पहुंचेगी वहां से कोई महाबली युद्ध करने आएगा ।
सचमुच ही निषादराज के आक्रमण की सूचना द्वारिकापुरी पहुँच गई थी। बलराम अपनी सेना के साथ युद्ध के मैदान में आते दिखाई पड़े। दर्शक बने रहने के लिये मैं एक टीले पर जाकर खड़ा हो गया। मैंने अपने सामने तीव्र गति से एकलव्य की ओर बढ़ते हुये बलराम को देखा। उनका लम्बा चौड़ा श्वेत आभा वाला शरीर लम्बी लम्बी भुजायें, बलिष्ठ कन्धे थे और चमचमाता अष्टधातु का हल उनके कन्धे की शोभा को बढ़ा रहा था। उनकी गति सर्प की गति की तरह तीव्र थी । ललाट पर वैष्णवी चन्दन उनके व्यक्तित्व को सभी से पृथक कर रहा था। इस समय मेरा मन उनकी तुलना निषादराज एकलव्य से करने लगा - हमारे निषादराज इससे कहीं कम नहीं दिखते। इनकी श्वेत श्याम आभा बलराम से पृथक व्यक्तित्व प्रगट कर रही है।
जैसे ही बलराम निषादराज को पास आते दिखे। एकलव्य ने अपना परिचय देने के लिये लोहे के सनसनाते बाण छोड़े। वे बाण बलराम के सामने जाकर जमीन में गड़ गये। बलराम चौक कर खड़े हो गये।
निषादराज का स्वर सुनाई पड़ा-‘‘बलराम ऽऽ मैं, एकलव्य। अरे ! खड़े क्यों रह गये। युद्ध करें।’’
बलराम ने अपना धनुष सम्हाला, उनने लगातार दस बाण चलाकर निषादराज को घायल कर, उनका धनुष काट डाला। उनका बाण चलाना अनवरत जारी रहा। उन्होंने एकलव्य के रथ को छिन्न-भिन्न कर डाला। एक भल्लास्त्र से उनके रथ की ध्वजा काट डाली।
निषादराज एकलव्य की मुखाकृति रक्तिम हो गई। उन्होंने दूसरा श्रेष्ठ धनुष लेकर बाण चलाना प्रारम्भ किये और बलराम को बाण विद्धकर दिया। बाण विद्ध होने पर बलराम ने दीर्घ श्वांस ली। उनने पुनः बाण चला कर दस सर्प सदृश्य बाणों से एकलव्य के उस धनुष का भी मुष्टि भाग काट डाला।
क्रोध में लाल पीले होकर, एकलव्य ने एक भयानक खड्ग फेंककर बलराम पर प्रहार किया। किन्तु रणपटु बलराम ने अपने ऊपर गिरने से पूर्व ही बाणों से उसे छिन्न-भिन्न कर डाला।
मुझ को विचार आ रहा था, अर्जुन ने कर्ण के सूत पुत्र होने से उससे युद्ध करने से इन्कार कर दिया था। ठीक इसी तरह बलराम को भी एकलव्य से युद्ध न करने के लिये यही कहना चाहिये था, पर उनने ऐसा नहीं कहा। निश्चय ही बलराम ने एकलव्य को युद्ध के योग्य समझा होगा। उससे युद्ध करने लगे हैं। इसका अर्थ है बलराम जाति के कारण किसी को छोटा नहीं मानते। अरे ! मैं निषादराज का कैसा गुप्तचर हूँ जो शत्रु के स्वभाव की प्रशंसा करने लगा।
..............अरे, यह क्या ! हमारे निषादराज ने काले लोहे का बना दूसरा खड्ग उठा लिया और उसे अपनी बलिष्ठ भुजाओं से ऊपर उठाकर बलराम की ओर फेंका। वह खड्ग बलराम के पास पहुंचता, कि उसके पहले ही बलराम ने उसे बाणों से आकाश में ही छिन्न-भिन्न कर दिया।
निषादराज ने घंटामाला समाकुल शक्ति को लेकर बलराम के ऊपर फेंकी। वह शक्ति उनके पास पहुँची तो प्रणाम कर के उन्होंने उसे हाथ से थाम लिया और उसी को वापस कर निषादराज की छाती पर प्रहार किया। इससे वे व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़े। उस समय एकलव्य के प्राण जोखिम में पड़ गये।
मैं सोचने लगा कि इस धरती पर वीरता का कैसा दुरूपयोग है , ये कैेसे वीर हैं जो एक दूसरे को मारने पर तुले हैं। कहीं इनकी वीरता का उद्देश्य सृजन होता, तो इस धरती का अलग ही रूप होता।किन्तु ये सब के सब विनाश के मुहाने पर खड़े हैं। इस समय मेरा क्या दायित्व है ? क्या करूँ ? कैसे निषादराज के प्राण बचाऊँ।
इसी समय देखता हूँ कि महारानी वेणु उनके पास सेवा करने पहुँच गई है। मैं विवश खड़ा यह देख ही रहा था उसी समय हमारे अट्ठासी हजार वीर योद्धा एक साथ मिलकर बलराम और यादव महावीरों पर टूट पड़े।
बलराम एक एक कर उन्हें मारने लगे। एक हाथ से हल के सहयोग से उन्हें अपनी ओर खींचते, दूसरे हाथ में पकड़े मूसल से उन्हें कुचल देते। इस प्रकार मैं अपने वीरों को फटी फटी आँखों से धराशायी होते देखता रहा। कुछ ही समय में वे सभी को धराशायी करके युद्धभूमि में अपनी विजय की गर्जना करने लगे।
महारानी वेणु एकलव्य को मूर्छा से जगाने के लिये जोर-जोर से झकझोर रही थी। गर्जना सुनकर एकलव्य की मुर्छा हटी। वे खड़े हो गये। इधर उधर अपनी सेना को नश्ट भ्रश्ट देखा। कुपित होकर निषादराज ने गदा उठाली और गर्जना करते हुये बलराम की ओर झपटे और उनके कन्धे में जोेर से एक गदा मारी। हलधर बलराम ने भी अपनी गदा सम्हाली और एकलव्य पर प्रहार किया। दोनों में भीषण गदा युद्ध होने लगा। वे आपस में एक दूसरे के घात प्रतिघात सहने लगे। गदा युद्ध का शोर युद्धभूमि के सम्पूर्ण वातावरण में व्याप्त हो गया।
इसी समय पौण्ड्र ने युद्धभूमि में प्रवेश किया। यह देखकर मुझ पुष्पक को लगा, ‘‘यह कितना बड़ा राजनीतिज्ञ है। एक दिवस से घमासान युद्ध चल रहा है। श्रीमान युद्धभूमि में अब पधारे हैं। अरे ! इस पौण्ड्र ने युद्धभूमि में आते ही वृष्णि नन्दन सात्यकि पर गदा का प्रहार कर दिया। युयुधान ने यह देखकर अपने गदा का प्रहार पौण्डु पर किया।
इस तरह चार चार महावीर युद्ध में प्रवृत हो गये। उस रात्रि गदा युद्ध का शोर अत्यधिक बढ़ गया।
रातभर युद्ध होता रहा।
सूर्य उदय हो गया। पता चला, बद्रीका आश्रम से श्रीकृष्ण आ गये। उन्होंने अपनी उपस्थिति से अवगत कराने के लिये एवं यादव वीरों में उत्साह भरने के लिये अपना पांचजन्य शंख बजाया। यादव सेना में हर्ष की लहर दौड़ गई।
श्रीकृष्ण को अपने पास से निकलते पाकर मैं उन्हें देखते ही रह गया। एक तरफ सजावट के उपकरणों से सजा सम्हला पौण्ड्र और दूसरी ओर मोर मुकुटधारी श्रीकृष्णकी नीले आकाश सी छवि, तन मन को झन्कृत करने लगी। शायद इसीलिये लोग इनकी छवि के प्रशंसक हैं। आज मैं पहली बार सामने से एक निमिश के लिये उनके दर्शन कर पा रहा था।
युद्धभूमि में आकर उन्होंने पुनः पांचजन्य से युद्ध का उद्घोश किया। हमारे मित्र राजा पौण्ड्र सात्यकि से जूझ रहे थे। वे श्रीकृष्ण को देखकर सात्यकि को छोड़कर श्रीकृष्ण की ओर बढ़े। जब श्रीकृष्ण ने पौण्ड्र को अपने से युद्ध के लिये उत्सुक देखा तो वे सात्यकि को युद्ध से रोकते हुये बोले, ‘‘सात्यकि, उसकी जैसी रूचि हो वही करने दो।’’
उनके वचन सुनकर सात्यकि शान्त रह गया। अब श्रीकृष्ण की दृष्टि निषादराज एकलव्य और भैया बलराम की ओर हुई। श्रीकृष्ण के निर्देश पर उनके सारथी ने रथ बलराम और निषादराज की ओर बढ़ाया। एक क्षण तक वे दोनों वीरों के गदायुद्ध का निरीक्षण करते रहे। उन्हें लगा, वे दोनों वीर जन्म जन्मान्तर तक लड़ते रहे तो भी हार मानने वाले नहीं इसलिये उनका स्वर मुखरित हुआ, ‘‘निषादराज और भैया बलराम आप दोनों युद्ध बन्द कर दें। युद्ध तो अब मेरा और पौण्ड्र का होना है। हमारा युद्ध निषादराज के मन में व्याप्त संसय को दूर कर देगा।’’
उनकी यह बात सुनकर बलराम युद्ध करने से ढीले पड़े। हमारे निषादराज श्रीकृष्ण के सम्मोहन में आ गये। इसीलिये युद्ध बन्द हो गया।
अरे ! श्रीकृष्ण राजा पौण्ड्र की ओर मुड़ गये। पौण्ड्र उन्हें सामने देखकर बोला- ‘‘श्रीकृष्ण तुम्हें जो सत्य लगता है वह सत्य है और जो तुम्हें झूठ लगता है वह झूठ। तुम्हें अब मुझसे आमने सामने युद्ध करना है।’’
यह कहकर पौण्ड्र ने बाण चला दिया। सनसनाता बाण श्रीकृष्ण के चरणों के पास जाकर धरती में धंस गया।
अब श्रीकृष्ण ने उस पर बाणों से वर्षा शुरू कर दी।
दोनों में भीषण युद्ध हुआ। अन्त में क्रोधित श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र ने राजा पौण्ड्र की गर्दन काट दी। बड़ी देर तक युद्ध के मैदान में उसका धड़ युद्ध करता रहा। अन्त में वह भी लड़ते लड़ते धरती पर गिर पड़ा।
सेना ने इधर उधर भागना शुरू कर दिया। मैं टीले से उतर कर निषादराज के पास आ गया। निषादराज और महारानी वेणु अपने घायल वीरों को रथों में डालकर निषादपुरम लौट पड़े।
महारानी वेणु रथ में घायल निषादवीरों का उपचार करते हुये बोली, ‘‘स्वामी आपने श्रीकृष्ण के कहने से युद्ध करना बन्द कर दिया। क्या आपके मन में बसे संसय का निवारण हुआ ?’’
एकलव्य यह सुनकर गम्भीर होते हुये बोले- ‘‘इस घटना से पूर्व मैं श्रीकृष्ण की सामर्थ पर सन्देह कर रहा था। पौण्ड्र का कहना था कि वह ही सच्चा वासुदेव है। उसकी मृत्यु से मैं श्री कृष्ण की सामर्थ्य से परिचित हो गया हूँ।’’
यह सुनकर वेणु श्रीकृष्ण की सामर्थ के सम्बन्ध में विचार करने हेतु गम्भीर हो गई।
यह कथा सुनाकर पुष्पक अपनी पत्नी से बोला कि मैं धन्य हो गया कि मैंने श्रीकृष्ण को अपने समीप से निकलते देखा ।