eklavy - 10 in Hindi Fiction Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | एकलव्य 10

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एकलव्य 10

10 शिवरात्रि का पर्व और एकलव्य

पड़ोसी के सुख दुख जानने की प्रवृति मानव की प्रारम्भ से ही रही है। धीरे धीरे राजनीति में निहित स्वार्थों के कारण पड़ोसी के प्रत्येक कार्यकलाप में हम अपना प्रतिबिम्ब देखने लगे। राजाओं के गुप्तचर की व्यवस्था का जन्म इसी सन्दर्भ में हुआ होगा। हस्तिनापुर में लोग हमारे बारे में क्या कहते हैं ? यह विचार करके निषादराज ने अपना एक गुप्तचर हस्तिनापुर की गतिविधियों को जानने के लिये रखा था।

हां उन्हे पांचाल नरेश के यहां गुप्तचर रखने की आवश्यकता नहीं हुई। क्यों कि वहां की बातें तो उन्हे नाविकों से ज्ञात हो जाती हैं।

पुष्पक नामक गुप्तचर इतना प्रवीण है कि वह लोगों की आकृति देखकर उनके विचार जानने में सफल रहता हैं। उसकी कही हुई बातें असत्य नहीं निकलती हैं।वह आज ही हस्तिनापुर से आया है। उसके उपस्थित होते ही निषादराज समझ गये- “इसे कोई महत्वपूर्ण सूचना देनी होगी तभी वह यहां उपस्थित हुआ है। कोई साधारण सा समाचार होता तो वह पथिकों के द्वारा हमको सूचित कर देता।‘‘

पुष्पक के समाचारों पर विचार करने हेतु बहुत दिनों बाद यहां सभा की जा रही है। निषादराज सिंहासन पर विराजमान हो चुके थे। मन्त्री चक्रधर ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया। एकलव्य ने भी अपना आसन ग्रहण किया। पुत्रवधू वेणु को भी इस सभा में सम्मिलित होने के लिये कह दिया। वे सभा कक्ष के पास वाले छोटे कक्ष में बैठकर यहां की समस्त बातें सुन सकेंगी। महारानी सलिला आज सिंहासन पर न बैठकर पुत्र वधू के पास बैठी हैं। पुष्पक अपनी बात प्रारम्भ करते हुये बोला, “देव, आपको यह ज्ञात हो गया होगा कि द्रोपदी के विवाह के पश्चात कौरवों ने पाण्डवों को इन्द्रप्रस्थ का राज्य दे दिया। पाण्डवों ने कुछ ही दिनों में अपनी राजधानी इन्द्रप्रस्थ को वैभवशाली बना डाला।उसके पश्चात ही श्री कृष्ण ने अपनी अविवाहित बहन सुभद्रा का हरण अर्जुन के द्वारा करवा दिया। कृष्ण के परिजन नाराज तो हुये पर श्रीकृष्ण के समझाने पर मान गये। इस प्रकार अर्जुन और सुभद्रा का विवाह करा दिया। समय से उनके यहां अभिमन्यु नामक पुत्र का जन्म हो गया। इसके पश्चात पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया।”

“पुष्पक, हमें ज्ञात हेै राजसूय यज्ञ में बुलावा हमारा भी आया था लेकिन हम वहां उपस्थित नहीं हो सके। सुना है वहां श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ के लड़के शिशुपाल का वध कर दिया किन्तु श्री कृष्ण जी के कारण ही वह राजसूय यज्ञ सम्पन्न हुआ।’

“देव, बात अब तो बहुत ही आगे बढ़ गई है। पाण्डवों की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा को देखकर शकुनि मामा के सहयोग से दुर्योधन ने विदुर जी को भेजकर द्यूत के रसिक युधिष्ठिर को द्यूतक्रीड़ा के लिये आमंत्रित किया। शकुनी ने छल के पांसों की सहायता से पाण्डवों को पराजित कर दिया। छल से द्रोपदी को भी दांव पर लगवा कर कौरवों द्वारा वह भी जीत ली गई।”

यह सुनकर जैसे सबको सांप सूंघ गया । हस्तिनापुर जैसी जगह ऐसा पाप हुआ ! एक नारी को निश्प्राण वस्तु की तरह दांव पर कैसे लगा दिया गया ? चकित होते एकलव्य ने कहा, “क्या कहा ? द्रोपदी जैसी विश्वसुंदरी को जुआ पर दांव में लगा दिया गया और उन दुष्ट कौरवों ने उसे जीत भी लिया है फिर क्या हुआ पुष्पक ?.......संभवतः द्रोपदी दुर्योधन की दासी बन गई होगी?”

“युवराज वह दासी ही नहीं बनी, उसे भरी राजसभा में घसीटकर लाया गया। उसे निर्वस्त्र करने का प्रयास किया गया।”

“हरे रामऽऽ रामऽऽऽ, ये क्या कहते हो गुप्तचर ! कौरवों की सभा में भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य जैसे लोग भी तो होंगे। उनके रहते...........।”

“हां देव, उनके रहते द्रोपदी का चीर खींचा गया। उन्हीं के समक्ष उसे नग्न करने का प्रयास किया गया किन्तु चीर खींचते में पता नहीं कैसे दुःशासन परास्त हो गया, लोग कहते हैं कि अचानक कृष्ण वहां उसकी साड़ी को छीनने से रोकते देखे गये ओर कृष्ण के भय से उसने द्रोपदी की साड़ी छोड़ दी। इसके पश्चात धृतराष्ट्र और गान्धारी ने उसे दासत्व से मुक्त कर दिया।”

यह बात सुनकर एकलव्य ने उत्सुकता से पूछ लिया, “अब तो पाण्डव इन्द्रप्रस्थ चले गये होंगे ?”

“अरे नहीं युवराज ! उस घटना के पश्चात दूसरे दिन पुनः द्यूतक्रीड़ा का चक्र चला। युधिष्ठिर फिर से हार गया। शर्त के अनुसार पाण्डवों को तेरह वर्ष के लिये वनवास दे दिया गया। तेरहवां वर्ष अज्ञातवास में व्यतीत करना होगा। यदि उन्हें उस तेरहवे वर्ष में खोज लिया गया तो उन्हें फिर उसी क्रम से तेरह वर्ष व्यतीत करना पडॅंगे।”

गुप्तचर की बात पर मनन करते हुये एकलव्य ने कहा, “पिताजी, इसका अर्थ तो यह है कि पाण्डव अब कभी अपना राज्य प्राप्त नहीं कर पायेगें ।”

“वत्स, इन क्षत्रियो की बुद्धि, शक्ति के मद में इतनी भ्रमित हो गई हैं कि ये एक दूसरे को नीचा दिखाने लगे है।”

यह सुनकर देवी वेणु ने अपना प्रश्न माता जी सलिला के द्वारा कहलवा दिया।

महारानी जी सभा में आकर पूछने लगीं, “देव, आपकी पुत्रवधू पूछती हैं ऐसी स्थिति में हमारा क्या दायित्व है ?”

इसके उत्तर में वे तीव्र स्वर में बोले जिससे सभी उनकी बात सुन लें- “हमें भी सचेत रहने की आवश्यकता है। क्या पता ये कौरव, पाण्डव हमारे ऊपर कब आक्रमण कर दें ?”

अब एकलव्य ने प्रश्न किया, “गुप्तचर, आपने गुरूदेव द्रोणाचार्य के सम्बन्ध में कुछ नहीं बतलाया।”

“युवराज द्रोणाचार्य तो अब कौरवों के साथ हो गये हैं। सुविधा की याचना करने वाला व्यक्ति सुविधा का त्याग कैसे कर सकता है ? वे जैसा अन्न खाते हैं उनका मन भी वैसा ही हो गया है। वे अपनी राजधानी अहिच्छत्र में पड़े रहते हैं। उनके मन में द्रुपद से द्वेष की भावना समाप्त नहीं हुई है। द्रुपद की पुत्री द्रोपदी पाण्डव पत्नी है, इसीलिये सम्भव है वे पाण्डवों से दूर होते जा रहे हैं। द्रोण के कहने पर ही तो अर्जुन द्रुपद को बन्दी बना कर लाया था।’’

यह सुनकर सभी लोग कौरव, पाण्डवों और द्रोणाचार्य के संबंध में गहराई से विचार करते रहे , फिर पुष्पक निषादराज हिरण्यधनु से आज्ञा लेकर वापस हस्तिनापुर चले गये।

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समाज का सुगठित रूप जैसे ही सामने आया होगा, वैसे ही पर्वो की परम्परा शुरू हो गई होगी। आज भी पर्व मानव की वृतियों को उदात्त बनाने में लगे हैं। भील जातियों में शिवरात्रि का पर्व श्रद्धा और भक्ति भाव से मनाने की परम्परा रही है। पर्व आने के दो चार दिन पूर्व से ही लोग पर्व मनाने की तैयारी करने लगते हैं। उस दिन छोटे बड़े, स्त्री पुरूष सभी व्रत रखते हैं। इस दिन फलाहार पर ही दिन व्यतीत करना पड़ता है। शिवरात्रि के दिन प्रातः से ही नगर भर के लोग इन्द्रन नदी पर पहुँच जाते हैं। निषादपुरम में जो एकमात्र शिवालय है वहीं इस दिन मेला लगता है। पर्वों के अवसरों पर आस्थायें केन्द्रित हो जाती हैं। समूह की आस्थाओं का वेग जब एक हो जाये, उस समय निश्चय ही कोई सत्ता वहां प्रत्यक्ष अनुभव में आती हैं।

दुकानदार प्रातः से ही फलाहार की वस्तुयें, विभिन्न प्रकार के कन्दमूल फल विक्रय करने के लिये उपस्थित हो जाते हैं। कुछ लोग बच्चों के मनों को प्रमुदित करने वाले खिलौने लेकर उपस्थित होते हैं। कुम्हार मिट्टी के खिलौनों को रंगों से रंगकर लाते हैं। ये बच्चों के मन को आकर्षित करने में सफल रहते हैं। कुछ बढ़ई लकड़ी के खिलौनों को लेकर आते हैं। तरह तरह के लकड़ी के खिलौने देखने को मिलते है। ये खिलौने मानव अथवा पशुओं की आकृति के बने होते हैं। कुछ व्यापारी भी इस अवसर पर तरह तरह के धनुष बाण लेकर उपस्थित होते हैं।

लोग बच्चों को धनुषबाण चलाना इसी शुभ दिन से प्रारम्भ कराते हैं, इसी कारण धनुषबाणों की बिक्री अच्छी हो जाती है।

यह सब देखकर एकलव्य को याद आती है उस दिन की जब पिताजी निषादराज ने मेले में से, क्रय करके शगुन के तौर पर धनुष बाण दिये थे। कुछ लोग एक दूसरे के बच्चों को धनुषबाण उपहार में देते हैं। छोटे छोटे बच्चे धनुष बाण लेकर इतने खुश दिखाई देते हैं, मानो सभी दिग्विजय करने के लिये तैयार हो रहे हैं।

उस दिन वही पर्व था ।

लोग स्नान करने के बाद शिवलिंग पर जल चढ़ाने के लिये, जल पात्रों में जल लेकर आ रहे हैं। शिवालय पर यदि कोई कमी दीखती है, तो वह है आचार्य की। निषादबन्धु अपने अपने मन के अनुसार शंकर जी की प्रतिमा का अभिषेक कर रहे हैं। कुछ दूध से अभिषेक कर रहे हैं और कुछ दही और शहद की मिठाई से। उनके पास अभिषेक के मन्त्रों के नाम पर एक ही मन्त्र है ’’ओऽम् नमः शिवाय।’’

आचार्य की परम्परा यहाँ उस दिन से समाप्त कर दी गई जिस वर्ष एकलव्य अपना अंगुष्ठ गुरूदक्षिणा में प्रदान करके आया, उस वर्ष से कुछ लोग, आचार्यों से कर्मकाण्ड कराने में डरने लगे हैं। यदा कदा कोई आचार्य की वेषभूषा में इन्द्रन के घाट से निकलता है तो लोग उसे भी शंका की दृष्टि से देखने लगते हैं। लोगों को लगता है कि हम कहीं इस आचार्य के पास गये और आचार्य जी ने कहीं हमारा अंगुष्ठ दक्षिणा में मांग लिया तब हम क्या करेंगे ? इसीलिये न रहेगा बांस और ना बजेगी बांसुरी।

शिवरात्रि के अवसर पर मन्दिर की व्यवस्था के लिये निषादपुरम का वयोवृद्ध व्यक्ति ही, प्रतिवर्ष की तरह इस वर्ष भी लोगों की पूजा अर्चना के कार्य में सहयोग कर रहा था।

जब राजपरिवार के लोग उस मन्दिर की देहरी पर पहुंचे, पुरम् के सभी लोग उनके लिये रूक गयें। निषादराज हिरण्यधनु और महारानी सलिला द्वारा की गई पूजा अर्चना के समय पुरम् के सभी लोग भक्ति भाव से दर्शन करते रहें।

दोपहर ढ़ले निषादराज राजप्रासाद के लिये चले। निषादपुरम के कुछ वृद्ध जन भी प्रतिवर्ष की तरह उनके साथ ही निकल पड़े। एकलव्य और मन्त्री चक्रधर भी उनके साथ चले।

वे सब जब राजप्रासाद के विशाल कक्ष में पहुंचे, प्रतिवर्ष की तरह कुछ लोग भंग ठन्डाई छानने लगे थे। उनके पहुंचते ही प्रतिवर्ष की तरह फलाहार आ गया। बड़े बड़े पात्रों में एकलव्य सेवक दूध लेकर आ गये। सभी ने फलाहार किया। इसके पश्चात् दूध पिया। भंग घोटने वाले भंग घोटने में लगे हैं। बादाम, पिस्ता और मुनक्का की घुटाई पृथक से चल रही है। अब सभी की दिन ढ़ले तक के लिये बैठक जम गई। सभी अपने अपने अनुभव प्रतिवर्ष की तरह सुनाने को व्याकुल दिखाई देने लगे।

मनोहर बोला, “पाण्डव इन दिनों वनवास में अपना समय व्यतीत कर रहे हैं। आने जाने वाले यात्रियों से हम नाविकों को उनके समाचार मिलते रहते हैं। इन दिनों एक घटना बड़ी ही विचित्र घटित हुई है।”

सभी उस विचित्र घटना को सुनने के लिये एकाग्रचित्त हो गये। एक ने व्यग्र्रता व्यक्त करते हुये कहा, “काका इधर उधर की बातें न करके सीधे सीधे प्रसंग सुनाने में लग जायें।’’

मनोहर ने प्रसंग पूरा करने के लिये बोलना शुरू किया, “एक दिन की बात है, वन भ्रमण करते अर्जुन को एक जंगली वाराह सूअर दिखाई पड़ा उसने उसका पीछा किया। उसने अपने गाण्डीव धनुष पर सर्पाकार बाण चढ़ाकर छोड़ना चाहा। इसी समय एक भील सामने आ गया। वह हमारे युवराज की तरह धनुष बाण लिये था। वह भील अर्जुन को बाण मारने से रोकते हुये बोला, मैं पहले से ही इसे मारने का निश्चय कर चुका हूँ। इसीलिये तुम इसे मत मारोे।”

अर्जुन ने उस भील की बात की चिन्ता नहीं की और बाण छोड़ दिया। उस भील ने भी अपना बाण चलाया। दोनों बाण उस सूअर के शरीर पर जाकर टकराये। यह सुनकर निषादराज के मुख से निकला, ‘‘आश्चर्य है।”

“हाँ देव, उसके पश्चात् वह सूअर मर गया। अर्जुन को सन्देह हो गया कि यह तो निश्चय ही एकलव्य हो सकता है। बाण चलाने में यह मध्यमा और तर्जनी का उपयोग कर रहा है।’

उधर उस भील युवक को सुअर के मरने पर क्रोध आ गया। बोला, “मैं इसे पहले मारना चाहता था। तुमने इसे मार दिया। अब मैं तुझे जीवित नहीं छोड़ूँगा।”

अर्जुन ने बाणों की वर्षा प्रारंभ कर दी। वह युवक उसके बाणों को नष्ट करने लगा। यह देखकर अर्जुन के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि एकलव्य अंगुष्ठ कटने के पश्चात इतना शक्तिशाली हो गया। सारी सभा इस प्रसंग को एकाग्रचित्त होकर सुन रही थी। बात को आगे बढ़ाने के लिये निषादराज ने उत्सुकता व्यक्त की, “इसके पश्चात क्या हुआ ?”

यह प्रश्न सुनकर वह प्रसंग को आगे बढ़ाने लगा, “अब दोनों में द्वन्द्व युद्ध होने लगा। घूंसे चलने लगे। उस भील युवक ने अर्जुन को धराशायी कर दिया। वह रक्त रंजित हो गया।

एकलव्य के मुंह से शब्द निकले, “काका आप बात को बनाकर कह रहे हैं। मैं तो कभी अर्जुन के सामने गया ही नहीं ।”

उसने एकलव्य की बात पर ध्यान दिये बिना और उस का प्रतिरोध किये बिना कहना शुरू किया, “थोड़ी देर के बाद अर्जुन को चेतना आयी। इस स्थिति में उसने अपने इश्ट को याद किया उसने मिट्टी का एक शिवलिंग बनाया और शरणागत होकर उसकी पूजा करने लगा। अर्जुन को लगा जो पुष्प उसने शिवलिंग पर चढ़ाये हैं वे उस भील युवक के सिर पर पहुंच गये हैं और उस शिवलिंग के स्थान पर वह भीलयुवक आ खड़ा हुआ है। वह चकित हो उठा। हुआ यह था कि उसकी पूजा से शंकर जी प्रसन्न हो गये थे और वे अर्जुन की परीक्षा लेने आये थे, अर्जुन का अभिमान खण्डित करके भील रूप से वे शिव रूप में आ गये। उन्होंने अर्जुन को मूल रूप में अपने दर्शन दिये। अर्जुन ने उन्हें प्रणाम किया। बन्धुओं सुना है, उन्होंने उसे प्रसन्न होकर कई अस्त्र, शस्त्र एवं पाशुपत अस्त्र प्रदान कर दिया हैं।”

उसकी बात पर वयोवृद्ध सुम्मेरा ने कहा, “हमें गर्व है अर्जुन को सीख देने के लिये ही सही, भील के वेेष में शंकर जी ने उसे दर्शन दिये हैं। अर्जुन को उन्होंने प्रतीक रूप में हमारे युवराज एकलव्य की शक्ति से परिचय करा दिया हैं।”

निषादराज बोले, “हम आचार्यो की तरह, शिवलिंग का आज के दिन अभिषेक भी नहीं कर पाते। शंकर जी की हम पर अनन्य कृपा है। अब अर्जुन जीवन भर हमारे राज्य की तरफ आंख उठाकर नहीं देख सकेगा।”

सभी लोग शंकर जी के गुणगान मन ही मन करने लगे। एकलव्य मन ही मन सोच रहा था, “निश्चय ही शंकर जी की हमारी जाति पर असीम कृपा है।”

इस समय एक दूसरा वृद्ध जिसे लोग निषाद मुनि के नाम से सम्बोधित करते हैं। वह सभा में खड़े होते हुये, निशादों के गौरवमयी इतिहास का संक्षेपीकरण करते हुये बोला, “हम निशादों का इतिहास गौरवशाली है। श्री राम के युग में श्रृंगवेरपुर में निशादों का राज्य था। हम पर उनकी अपार कृपा रही हैं। भक्त शिरोमणी शबरी की चर्चा तो आज सम्पूर्ण भारतवर्ष में बड़े प्रेम से की जाती है। एक निषाद के कारण ही महर्शि वाल्मीकि को रामायण महाकाव्य की रचना की प्रेरणा हुई।’’

बात को आगे बढ़ाते हुये इसी समय तीसरा वृद्ध बोला, “हम श्रृंगवेरपुर से यहां आये हैं। हमारा वंश युगों युगों से गौरवशाली रहा हैं। हमें अपने वंश पर गर्व है।”

इस समय तक भंग और ठण्डाई तैयार हो चुकी थी। प्रत्येक को उनकी इच्छा के अनुसार पहले भंग का गोला बांट दिया गया। इसके पश्चात पात्र भर भर कर ठन्डाई का वितरण कर दिया गया। सभी भंग और ठन्डाई का पान कर मस्त होने लगे।

दिन बीता और सांझ हो गयी । अंधेरा गहराने लगा । सभा विसर्जित हुई ।

शाम से ही रात्रि जागरण के लिये लोग शिवालय पर ही एकत्रित होने लगे। निषादराज को याद नहीं है कि यहां कब से रात्रि जागरण का कार्यक्रम सम्पन्न होता चला आ रहा है। पुरूष और स्त्रियाँ शिवालय को घेर कर बैठ गये। बैठने के लिये उन्होंने अपने साथ कुशासन बिछा लिये। शिवालय के एक ओर लोक नृत्यों का कार्यक्रम शुरू हो गया। एक समूह लोकगीत सुनाने लगा। कुछ भजन कीर्तन के दल अपने अपने राग अलापने लगे। निषादराज भी अपने परिवार के साथ रात्रि व्यतीत करने आ गये। इस अवसर पर न कोई राजा दिखता था न प्रजा। सब समान भाव से भक्तिभाव में डूब जाना चाहते।

प्रतिवर्ष की तरह मनोहर शिवरात्रि के पर्व की कथा कहने के लिये खड़ा हो गया। यह देखकर सभी ने अपने अपने राग रंग बन्द कर दिये। सभा में स्तब्धता छा गई। वृद्ध मनोहर ने कहना शुरू किया, ‘‘आप लोगों को गर्व होना चाहिये कि शिवरात्रि पर्व के प्रारम्भ से ही हम भीलों से उसका सम्बन्ध रहा है। इसी कारण यह हमारा परम प्रिय पावन पर्व है.....सुनो मैं आपको कथा सुनाता हॅूं-

एक समय की बात है एक भील जाति का शिकारी अपने बच्चों की भूख मिटाने के लिये शिकार करने निकल पड़ा। सारे दिन इधर उधर यहां वहां भटकता रहा। उसे कोई शिकार नहीं मिला। वह खाली हाथ घर कैसे जाये ? इसलिये वह और आगे निकल गया। अन्त में एक हिरणी दिखी, उसके पीछे पीछे भागते भागते उसे रात्रि का समय हो गया। अब वह रात्रि व्यतीत करने के लिये एक वृक्ष पर चढ़ गया। वह वृक्ष बेलपत्र का था। उस वृक्ष के नीचे एक शिवलिंग पत्तों से ढका था। उस वृक्ष पर बैठने से उस बिल्बपत्र उस शिवलिंग पर गिरने लगे।

हाँ तो भाइयो, फिर क्या हुआ ? इसी समय वही हिरणी वहां पर फिर आ गई। उस शिकारी ने उसे अपना लक्ष्य बनाकर धनुष पर बाण चढ़ाकर प्रत्यंचा खींच ली। यह देखकर वह हिरणी बोली, “आप मुझे अभी न मारें। मैं अपने बच्चों से मिलकर आती हूँ उस समय आप मुझे मार सकते हैं।”

उस शिकारी ने सोचा, “यह हिरणी मरने के लिये कभी लौटकर नहीं आयेगी।....लेकिन यह हिरणी नहीं आती तो मैं क्या करता , इसलिए चलो इसकी बात को परख लेते है। ”

वह भील शिवलिंग की प्रतिमा के ऊपर वाले वृक्ष पर बैठा था। वह बार बार हिल हिल उठता और हिरणी की ओर देखने लगता । उसकी पूजा का क्रम, बारम्बार बेलपत्र गिरने से पूर्ण होता जा रहा था। इस समय भी उसके इघर उधर हिलने से बेलपत्र गिरे। उसका दृष्टिकोण बदल गया। उसके मुख से निकल गया, “अच्छा चली जाओ लेकिन आ जाना, नहीं तो मेरे बच्चे भूख से मर जायेंगे।”

वह हिरणी चली गई। उसके चले जाने के पश्चात हिरणी के दो छोटे छोटे बच्चे अपनी माँ को खोजते हुये वहां आ गये। उन्हें देखकर वह उनको भी मारने को तैयार हो गया। यह देखकर वे बोले, “आप हमें अभी न मारें। हम अपनी माँ से मिलकर आते है तत्पश्चात् आप हमें मार सकते हैं।”

उस शिकारी को जाने क्या हो गया कि उसने उन्हें भी जाने दिया। कुछ समय पश्चात् ही वहां एक हिरण आ गया। उसे देखकर उसने फिर अपनी प्रत्यंचा खींच ली।”

यह देखकर वह बोला, “भइया आप मुझे अभी न मारें। मै अपनी पत्नी और बच्चों से मिलकर आता हूँ।उस समय आप मुझे मार सकते हैं।”

यह सुनकर शिकारी ने सोचा, “सब यही कहकर गये हैं लेकिन लौटकर कोई नहीं आया है। जो हो चाहे मेरे बच्चे भूखे ही मर जायें। ये आयें या न आयें, इसे भी जाने देता हूँ।” यह सोचकर उसने कह दिया, “अच्छा तुम भी चले जाओ लेकिन जल्दी वापस आ जाना।”

वह भी वापस आने की कहकर चला गया।

उसका अप्रत्यक्ष में शिवरात्री जागरण और पूजा अर्चना का कार्यक्रम सहज में ही निपटता चला गया। प्रातःकाल के समय वह क्या देखता है कि वह हिरण अपने परिवार के साथ वहां उपस्थित हो गया। यह देखकर उसे आश्चर्य हुआ, ये अच्छे मूर्ख हैं ! पूरे परिवार के साथ मरने के लिये चले आये। लेकिन मैं मूर्ख नहीं हूँ जो इन वचन के पक्के निरीह जानवरों को मार डालूं । बंधुओ यह महादेव जी की कृपा थी शिवपूजा से भील का दृष्टिकोण बदल गया था। उसने उन सबको अभय दान दे दिया, “तुम लोग जाओ मेरे बच्चों का जो भोले बाबा चाहेंगे वही होगा।”

इसी समय उस शिकारी को लगा, “हिरण परिवार के स्थान पर शंकर जी परिवार सहित साक्षात् रूप धारण करके उसके सामने उपस्थित हो गये हैं।”

उसी दिन उस शिकारी ने निश्चय कर लिया अब मैं वन्य प्राणियों की हत्या कभी नहीं करूंगा और वन्य प्राणियों की हत्या करने वालों का विरोध करूंगा।

आप सभी को ज्ञात होगा हम बिना उद्देश्य के किसी वन्य प्राणी की हत्या नहीं करते। हमको शिवरात्रि के जागरण से यही शिक्षा लेकर यहां से जाना चाहिये। आप सोच लें यदि आप वन्य प्राणियों की रक्षा करने का दायित्व अपने ऊपर लेते हैं तो ही आपका शिवरात्रि पर्व मनाना सार्थक है। ईश्वर ने हर प्राणी को इस धरा के संतुलन के लिए बनाया है, उस संतुलन को क्यों बिगाड़ें ! ‘‘

उपस्थित जन समूह मन ही मन प्रतिज्ञा करने लगा था, “अब हम बिना किसी उदेश्य के किसी वन्य प्राणी की हत्या नहीं करेगे।’

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