8 एकलव्य को निषाद ही रहने दें।
’’मानव जीवन में कुछ ऐसे क्षण भी उपस्थित होते है जिनमें वह अपने पूर्व कृत्यों का मूल्यांकन करने लगता है। उन क्षणों की गहरी तहों में प्रविष्ट होकर विवेचन करने का प्रवाह वह निकलता है।’’ इसी दशा में डूबे द्रोणाचार्य को गुप्तचर ने निषादपुरम की नवीन स्थिति से अवगत करा दिया था।
आज अर्जुन के पांचाल से युद्ध करने हेतु चले जाने के प्श्चात् उन्हें अपने निर्णय पर बारंबार पश्चाताप आ रहा है कि उन्होंने एकलव्य को उस दिन शिष्य क्यों नहीं बनाया ? उसके पश्चात् भी इति नहीं की, उसका अंगुष्ठ गुरूदक्षिणा में मांग लिया। यदि ये घटनाएँ न घटतीं तो आज संपूर्ण भारत वर्ष की भील जातियों को एकजुट होने का अवसर तो न मिलता। उनकी एकता का लाभ पांचाल नरेश द्रुपद ने उठाया और उन्ही में से कुछ भील जातियों को कौरव और पाण्डवों की सेना से युद्ध करने के लिये एकत्रित कर लिया। उन्हीं के कारण दुर्योधन और कर्ण उसे बन्दी बनाकर नहीं ला सके। आज द्रुपद को बन्दी बनाकर लाने के लिये अर्जुन को भेजना पड़ा है।
उन्हें पुरानी घटनायें प्रायः याद आती है, आज भी याद आ रही हैं ............जब मैं और द्रुपद पिता जी भारद्धाज के आश्रम में गुरूदेव अग्निवेष्य जी से शास्त्र और शस्त्रों की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उन दिनों द्रुपद का मन पढ़ने लिखने में नहीं लगता था। हमेशा इधर उधर की बातें किया करता। मैंने अनुभव किया उसके राज पुत्र होने के कारण पिताजी उससे कुछ नहीं कहते। मुझे छोटी छोटी त्रुटियों के कारण पिता जी का क्रोध सहन करना पड़ता था। उसी समय से मेरे मन में राजा की तरह सुख सुविधायें भोगने की इच्छा उत्पन्न हो गई। लम्बे समय तक वह इच्छा सुसुप्त रूप से मेरे हृदय में पड़ी रही। उनकी पूर्ति के लिये मैं यहां वहां भ्रमित होकर घूमता रहा। यदि ऐसा नहीं होता तो मुझे कुरूवंश का सेवक नहीं बनना पड़ता। राज्यपोषित युद्धप्रधान मेरी इस शिक्षा दीक्षा ने मेरे शिष्यों को क्या दिया है ? सभी अपने अपने अहम् को पोषित करने लगे हैं। इसकी तुलना में अवन्तिकापुरी की सान्दीपनि शिक्षा पद्धति मानव मन में प्रेम भाव उत्पन्न करके उपकार की प्रवृति को जन्म दे रही है। मेरी अपनी शिक्षा पद्धति अंगुष्ठ काटने में लग गई। अर्जुन ने तन मन से मेरी सेवा की है। जितना मैंने उसे शिक्षित करने का प्रयत्न किया उतना तो मैं अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी नहीं कर पाया। पत्नी कृपी इस बात को लेकर कितना क्या नहीं कहती रहती ? लेकिन मैं हूँ कि अर्जुन के पीछे अपने अहम् की तुष्टि के लिये भागता रहा हूँ। आज अर्जुन उसी का ऋण चुकता करने के लिये द्रुपद से युद्ध करने गया है। कितने अभावों में मेरा जीवन व्यतीत हुआ। सोचा था कि अभावों का जीवन ही ब्राह्मण का धन है। किन्तु मै हर मोर्चे पर हारता रहा हूँ। अभावों की पूर्ति के लिये ही मैंने द्रुपद की शरण ली। द्रुपद इतना तुच्छ निकला कि उसने मुझे किंश्चित भी घास नहीं डाली। उल्टे अपमानित करने बैठ गया। कहने लगा, “राजा और रंक की कैसी मित्रता ?”
उस दिन वह भूल गया था कि एक ब्राह्मण के असंतोष में कितनी अग्नि होती है। मैं ब्राह्मणत्व के अहम् की पूर्ति के लिये अर्जुन को बढ़ाता रहा। इस कारण परीक्षा से दूर रखने के लिये जानबूझ कर मैंने परीक्षा में, कर्ण को भी अपमानित किया। कहा- सूतपुत्र उस परीक्षा में भाग नहीं ले सकता।’’
मैंने यह बात कही तो दुर्योधन ने कहा, “गुरूदेव आज जाने किस किस का अंगुष्ठ काटने वाले हैं।”
उसने सत्य ही भविष्यवाणी की थी। उस दिन भी कर्ण का ही अंगुष्ठ कटा था।
.........और दुर्योधन मन का कितना ही खराब क्यों न हो लेकिन कहीं कहीं तो वह बहुत ही श्रेष्ठ कार्य कर जाता है। उस दिन कर्ण को उसने तत्क्षण अंग देश का राजा बना दिया।
निषादपुरम में भील जातियों की सभा में जो निर्णय हुआ है उससे भीष्म भी चिन्तित दिखाई देते हैं। क्या कहा था उस दिन भीष्म ने, “आचार्य द्रोण, एकलव्य को शिक्षा देने के लिये स्वीकार न करके बड़ी भारी भूल की है। ऐसी प्रतिभायें युगों-युगों में कभी कभी पैदा हुआ करती हैं। उसका दुर्भाग्य तो यह रहा कि वह हमारी युद्ध प्रधान शिक्षा पद्धति से प्रभावित होकर ही यहाँ चला आया। यदि अवन्तिकापुरी के सान्दीपनी आश्रम में गया होता तो वह निश्चय ही दूसरा कृष्ण होता।”
यही तो कहा था उस दिन भीष्म जी ने। एक कृष्ण के कारण तो सम्पूर्ण भारत वर्ष की राजनीति सिमट कर उनकी मुठ्ठी में कैद होती जा रही है। दूसरे श्री कृष्ण के रूप में एकलव्य का निरूपण। भीश्म जी के इस कथन को लेकर मैं महर्षि वेद व्यास से मिला। उन्होंने तो एक और रहस्य बतलाया, और वह रहस्य सुना तो मेरी आंखें बिस्मय से फैल गईं-‘‘ श्री कृष्ण जी के पिताजी वासुदेव जी दस भाई हैं.. 1. वासुदेव, 2. देवभोग, 3. देवश्रुवा, 4. अनाधूश्टि, 5. कनवक, 6. वत्सवान, 7. ग्रंजिम, 8. श्याम, 9. शर्मीक, 10. मुण्डूश। इनमें से देवश्रुवा के यहाँ अभुक्तमूल नक्षत्रों में एक पुत्र उत्पन्न हुआ। जन्मते ही पिता ने उसका परित्याग कर दिया। सद्यजात शिशु को निषाद उठा ले गये। वह देवश्रुवा सुत ही आज निषादपुत्र एकलव्य के नाम से विख्यात हो रहा है।‘‘
मैंने उमगते उत्साह से इस प्रसंग को पत्नी कृपि के समक्ष रखा। वे इसे ध्यान से सुनकर बोली, ‘‘स्वामी मैं इस प्रसंग को जनश्रुति के रूप में नगर की स्त्रियों से सुन चुकी हूँ।’’
‘‘जनश्रुति के रूप में कैसे ?’’
‘‘देवश्रुवा ने दरअसल एक परमसुन्दरी निषाद कन्या से विवाह किया था। उसी पत्नी से देवश्रुवा के यहां पुत्र पैदा हुआ । जो बड़ी कठिन घड़ी में जनमा था । पुरोहितों ने पंचाग देखकर बताया कि जातक यों तो प्रतापी और यशवान होगा लेकिन पिता के लिए उसका मुंह देखना भी घातक है। उनके यहाँ अभुक्तमूल नक्षत्र में जन्मे बालक को त्यागने की परम्परा है। देवश्रुवा ने पुत्र के त्यागने का निर्णय पत्नी के समक्ष रखा। पत्नी ने सोचा, संभवतः निषादसुता होने के कारण उसका बेटा त्यागा जा रहा है । पिता के रूप में देवश्रुवा अपने पुत्र के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं। कहा जाता है कि इसलिये देवश्रुवा की निषाद पत्नी ने अपने इस पुत्र को स्वयं ही अपने पिता के वंशज निशादों को सोंप दिया ओैर नगर में लौट कर यह प्रचार कर दिया कि यमुना के घाट पर वह जब एक वृक्ष की छाया में पुत्र को सुलाकर जल में स्नान करके लौटी तो निशादों का एक समूह तीव्रगति से आकर मेरे बालक को ले गया। मैं असह्य होकर चीखती चिल्लाती रह गई।’’
‘‘देवी, इसी कारण महर्शि वेद व्यास ने अपने ‘‘श्री हरीवंश‘‘ नामक ग्रंथ में निशादों द्वारा उस पुत्र को उठाकर ले जाने वाली बात लिखी है।’’
‘‘स्वामी मुझे तो लगता है.....।’’कृपी बोलते हुए रूकी ।
‘‘देवी, संकोच न करें स्पष्ट कहें।’’
‘‘स्वामी, सत्य तो यह है कि यादवों की संतान न हो कर यह युवक एकलव्य, निषाद हिरण्यधनु का ही पुत्र है। लोगों को एक पिछड़े वर्ग के युवक के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने की बात पच नहीं रही है। इसी कारण इन असत्य कथनों का प्रचार किया जा रहा है कि यह सिद्ध कर सकें कि सवर्ण का बेटा ही सदा सबसे आगे रहता है, भला आदिवासी और पिछड़े लोगों में ऐसी प्रतिभा कहां से आयेगी ! इस जनश्रुति सेे उनका अपना गौरव अक्षुण्य बना रहेगा। ‘‘ कहते हुऐ कृपी फिर सकुचाई, और अटकते हुऐ अपना वाक्य आगे बढ़ाया-‘‘यहाँ उसका एक और अंगुष्ठ काटा जा रहा है। उसे लोग निषाद भी नहीं रहने देना चाहते।’’
‘‘देवी, अंगुष्ठ दान के पहले एकलव्य के सम्बन्ध में एक भी चर्चा न थी, वह एक अल्पज्ञात वनवासी था, और इस एक घटना के बाद आज उससे अनेक प्रसंग जुड़ गये हैं। यह प्रसंग्र एकलव्य की जाति के लोगों ने ही ज्यादा प्रचारित किया है । सबके अपने अपने स्वार्थ हैं इसमें । वैसे मुझे लगता है यह निश्चय ही निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र है। इसमें संदेह नहीं। इन प्रसंगों से मेरा मन अत्यधिक व्यथित है, क्यों कि इन प्रसंगों से मेरी छबि ही बिगड़ती है।’’
आज इतनी अवधि बाद अब मैं अपनी शिक्षा पद्धति में परिवर्तन करना चाहूँ तो यह भी सम्भव नहीं है। यदि सान्दीपनि शिक्षा पद्धति की तरह कुछ कर पाता किन्तु मैं तो अपने राग द्वेष की भावना को लेकर आगे बढ़ता रहा हूँ। अब इसके रूप को परिवर्तित करना भी मेरे अधिकार की बात नहीं रही। जितने कदम आगे बढ़ गये उन्हें पीछे कैसे ले जाया जा सकता है। आज लोग मेरी शिक्षा पद्धति की त्रुटियों को रेखांकित करने लगे। उस दिन भील जातियों ने जो निर्णय लिया वह सब क्या था ? प्रकारांतर से उन सबकी हुंकार मेरी इस शिक्षा व्यवस्था की भर्त्सना ही थी।
अर्जुन आज द्रुपद को पकड़कर मेरे समक्ष लेकर भी आ गया तो क्या उसकी शिक्षा पूर्ण हो गई ? मैं तो सोचता हूँ यदि मैं अर्जुन का सच्चा शुभ चिन्तक हूँ तो उसको अपने युद्धप्रधान पाठयक्रम के अंध शिष्यत्व से मुक्त करके अवन्तिकापुरी के सान्दीपनि आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने के लिये भेज दूँ।
......न ...न...भला यह कैसे हो सकता है ! यदि मैंने अर्जुन को ऐसा करने के लिये प्रोत्साहित कर दिया तो मेरा क्या अस्तित्व शेष रह जायेगा। वे चेते- मैं भी कैसा हूँ, क्या क्या सोचने लगा हूँ ? इस समय तो अर्जुन द्रुपद को बन्दी बनाकर मेरे समक्ष उपस्थित करने वाला है। आज के दिन के लिये मैंने किन किन के अंगुष्ठ काटे। यदि दुर्योधन और कर्ण की तरह अर्जुन भी उसे बन्दी बनाकर नहीं ला पाया तो मुझे वे कटे हुए ढेर सारे अंगुष्ठ मिलकर मुझे अत्याधिक धिक्कारेंगे। आज नहीं तो कल इन अंगुष्ठों का प्रायश्चित तो मुझे करना ही पड़ेगा।
कहा जाता है पिता के पापों का प्रायश्चित बच्चों को करना पड़ता है। शिव शिव ! कहीं मेरे अश्वत्थामा को मेरे इन पापों का प्रायश्चित न करना पड़े। अरे ! हट ये सब मन की शंकायें हैं। मन से ही इन सभी बातों का जन्म होता है। सम्पूर्ण रसों के स्थाई भावों की जड़ यह मन ही है। मन ही इन स्थाई भावों को सुसुप्त अवस्था प्रदान कर देता है। मन ही इन स्थाई भावों को जाग्रत कर क्या क्या रौद्र रूप नहीं दिखाता ?
प्रभु ने कैसी संरचना इस मन की की है ? यदि द्रुपद से शत्रुता का भाव नहीं रखता तो आज जितने अपराध मन स्वीकार कर रहा है वे एक भी घटित नहीं होते। एक अहम् ही आदमी के अन्दर बहुत बड़ा विकार है। सारे विकार तो आवेगों के निस्सृत हो जाने पर निकल जाते हैं। किन्तु यह अहम् ऐसा भाव है, जिसे जितना दबाने का प्रयास किया गया है वह उतना ही पल्लवित होता चला जाता है।
आज मैं अहम् की परिसीमा के सर्वोच्च बिन्दु पर आकर खड़ा हो गया हूँ। यदि अर्जुन द्रुपद को मेरे समक्ष ले ही आया तो मुझे क्या मिलेगा ?......कदाचित आधा राज्य ! क्यों मिलेगा आधा राज्य ?.............उसे बन्दीग्रह में डालकर उसके सम्पूर्ण राज्य का भोक्ता क्यों नहीं बन जाता ? किन्तु इस मित्र शत्रु द्रुपद के अंगुष्ठ को पूरी तरह नहीं काट सकता। इसे क्षत विक्षत करना ही पर्याप्त है। इससे आधा राज्य लेने पर सभी कहेंगे आचार्य द्रोण कितने न्याय प्रिय हैं।.........अरे ! मेरी न्याय प्रियता तो तब है जब उसे बन्दी बनाकर सामने लाये जाये और मैं उसको क्षमा दान दे दूँ। उसके सम्पूर्ण राज्य को यथावत वापस लौटा दूँ।..............नहीं नहीं, ऐसा दानी न मैं कभी रहा हूँ न बन पाऊँगा। उतना ही त्याग उचित है जितना अहम् के पोशण में कभी न रहे। आधा राज्य देने का ही तो उसने निश्चय किया था, मैं उसके वचनों केा भरवा लूंगा, और आधा राज्य ही लूंगा न इससे सुई बराबर ज्यादा, न इससे सुई बराबर कम !
सहसा वे प्रसन्न हुऐ-वाह, क्या उपमा आई है, न सुई बराबर ज्यादा न सुई बराबर कम ! कल धृतराष्ट्र की सभा में किसी बहाने से यह स्वनिर्मित मुहावरा सुनाऊंगा, तो कुरू राजदरबार के शब्दकोश में एक नया मुहावरा जुड़ जायेगा ।
उन्हें याद आती है उस दिन की जब वे और द्रुपदगुरूकुल में थे, द्रुपद का शस्त्र और शास्त्र के अध्ययन में मन नहीं लगता था। मैं मित्र भाव से एक एक शब्द की व्याख्या करके उसे समझाने लगा। हम दोनों जब एकाकी होते तो वह भोग विलास की बातें किया करता। मैं था कि उसमें श्रेष्ठ धनुर्धर होने के गुण देखना चाहता। कितना चरित्रहीन था यह द्रुपद ?
जब देखो तब पता नहीं कैसी कैसी युवतियों की बातें किया करता। मैं था कि सच्चे मित्र का धर्म निर्वाह करने में लगा हुआ था। उसे सत् के रास्ते पर चलाने का प्रयास करता रहा। उसके भ्रमित होने को अपना भ्रमित होना मानता रहा। कुछ दिनों के प्रयास से उसकी शस्त्र और शास्त्र में रूचि उत्पन्न हो गई। वह यह उपकार मेरे प्रति मानने भी लगा। इसीलिये उसने अर्द्धराज्य की बात भी भावुकता में कह दी होगी। मैं इतना सीधा और सच्चा निकला कि उसकी इस बात को सत्य मान गया। उसकी इस बात के लिये प्रतिदिन नये नये घरोंदे बनाने मिटाने लगा। धीरे धीरे वह बात चिन्तन में स्थाई भाव का रूप धारण कर गई। आज जब अर्जुन से पांचाल नरेश द्रुपद का युद्ध हो रहा होगा उस स्थिति में ही इस सत्य को स्वीकार कर पा रहा हूँ।
अरे ! दुन्दुभि का स्वर सुनाई पड़ने लगा। निश्चय ही अर्जुन का नगर आगमन हो गया है। आज सम्पूर्ण हस्तिनापुर इस प्रसंग को लेकर चिन्तित हैं। अब तो अर्जुन द्रुपद को लेकर आ ही गया है।‘‘
और सचमुच ऐसा ही हुआ ।
युद्ध स्थल से लौटे अर्जुन ने उपस्थित होते ही कहा, “गुरूदेव के श्रीचरणों में प्रणाम स्वीकार हो।”
द्रोणाचार्य ने दोनों हाथ उठाकर हृदय से सारा आशीर्वाद उसे अर्पित करते हुये कहा, ‘‘यशस्वी भव।’’
बंदी अवस्था में द्रुपद को उनके समक्ष खड़ा कर दिया गया।
उसे सामने खड़ा देखकर द्रोणाचार्य वोले, “द्रुपद आज मैंने तुम्हारे देश केा बलपूर्वक अपने अधिकार में ले लिया। अब तो तुम्हारा जीवन भी मेरे आधीन है। क्या तुम पुरानी मित्रता को बनाये रखना चाहते हो ?”
द्रुपद व्यंग की हँसी में ठहाका मार कर हँसते हुये बोला, “द्रोण, मैं तुम्हारे मन्तव्य को विद्यार्थी जीवन में ही समझ गया था। तुम शिष्य चाहते हो एकलव्य जैसा, जिसका जब चाहा अंगुष्ठ काट लिया और मित्र भी ऐसा ही चाहते हो जो तुम्हारे संकेत पर अपना सिर कटाने को तैयार रहे। मैंने तुम्हारे अर्न्तमन को उसी समय समझ लिया था जब तुम मुझसे आधा राज्य माँगने आये थे। आज तुमने अर्जुन को भेजकर मुझे पकड़वा लिया। अरे द्रोण ! तुम शीश ही काटना चाहते हो तो शत्रु बनकर ही काट डालो, मित्रता की दुहाई मत दो। मैं अपना शीश मित्र के हाथों नहीं शत्रु के हाथों कटाना पसन्द करता हूँ। इसीलिये द्रोण, तुम मित्रता की दुहाई मत दो।”
वे अनुत्तर रह गये । सचमुच द्रुपद के इस तर्क का द्रोणाचार्य को कोई उत्तर दिखाई नहीं दे रहा था। इस स्थिति में द्रोण ने कुछ शब्दों को बलात् रोका और कहा, “द्रुपद मेरे मन में यदि तुम्हारे लिये प्रेम न होता तो आरंभ में ही तुम्हारा मृत्यु आदेश दुर्योधन, कर्ण को दे देता । वे बन्दी बनाकर नहीं ला सके तो तुम्हें मार कर तो आ ही सकते थे।”
यह सुनकर द्रुपद बोला, ‘‘द्रोण तुम बहुत बड़े भाग्य वाले हो। मात्र एक एकलव्य ने मेरा साथ नहीं दिया, नहीं ंतो आज स्थिति विपरीत होती। देश के दूसरे भील लोगों को एकलब्य की यह बात पसंद नहीं आई। इस कारण वे सब के सब आज मेरे साथ तुम्हारे विरूद्ध आक्रामक होकर खड़े हैं।’’
अर्जुन ने इन्हीं तथ्यों की पुष्टि की, “गुरूदेव, युद्ध में मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि द्रुपद इतना शक्तिशाली कैसे हो गया ? मैने देखा था द्रुपद तुम्हारी सेना के सभी सैनिक बाण चलाने में तर्जनी और मध्यमा का उपयोग कर रहे थे।”
द्रुपद बोले -‘‘वह मेरी नियमित भृत्य सेना न थी, वे तो द्रोण और उसके शिष्यों को पाठ पढ़ाने का आत्म संकल्प लेकर आवेश में आ गई भीलों की आकस्मिक सेना थी ।‘‘
यह सुनकर तो आचार्य द्रोण के समक्ष सारा दृश्य साफ हो गया, “भील जन जातियों ने एकलव्य में निष्ठा के कारण जो निर्णय लिया है वे उसका पूर्ण रूप से पालन कर रहे हैं।”
द्रुपद समझ गया द्रोण सोच में डूबे हैं इसीलिये बोला, “द्रोण तुमने जो किया है उसका प्रायश्चित तो करना ही पड़ेगा। अब तो तुम मुझे भी अपनी मित्रता की परिभाषा से परिचित करा दो।”
यह सुनकर आचार्य द्रोण समझ गये द्रुपद से बातें करना व्यर्थ है। इसीलिये अपने विषय पर आते हुये बोले, “द्रुपद तुमने कहा था जो राजा नहीं है वह राजा का सखा नहीं हो सकता। इसलिये मैं तुम्हारा राज्य लेकर राजा हो जाता हूँ।‘‘ फिर वे बोले-‘‘ पूरा नहीं, चलो तुम्हारे वचनों का ही पालन करवा देता हूँ । मैं तुम्हारा आधा राज्य ले रहा हूँ ! अब द्रुपद तुम गंगा के दक्षिण तट तक के राजा रहो। मैं उत्तर तट का राजा रहूँगा। हां, राजन तुम चाहो तो अब मुझे अपना मित्र समझ सकते हो।”यह कहकर द्रोण ने द्रुपद को मुक्त कर दिया।
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द्रुपद गंगा के दक्षिणी तट पर बसे माकन्दी प्रदेश के श्रेष्ठ नगर कार्म्पलय में रहने के लिये चला गया। द्रोण दक्षिण पांचाल (जहां चर्मण्वती नदी बहती है) के राजा होकर अहिच्छत्र नगरी में जाकर रहने लगे।
इस घटना के पश्चात् हर रात आचार्य द्रोण को एकलव्य की बारम्बार स्मृति आती,वे सोचते ‘‘ अच्छा रहा, जो एकलव्य द्रुपद की ओर से नहीं लड़ा, अन्यथा उन जैसे धनुराचार्य की सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल जाती । सचमुच यदि पांचाल नरेश के साथ एकलव्य मिलकर युद्ध करने लगता तो निश्चय ही अंगुष्ठ कटने के पश्चात भी वह ऐसा युद्ध करता कि द्रोण के शिष्य अर्जुन को पराजय का मुंह देखकर खाली हाथ लौटना पड़ता। .......अर्थात एकलव्य आज भी मेरे प्रति श्रद्धा रखता है, वह आज भी मेरे इतने बड़े अपराध को लिये क्षमा किये हुये है।....यों तो सम्पूर्ण भील समाज ने धनुषबाण चलाने में अंगुष्ठ के प्रयोग का त्याग कर दिया है।...... इसे मैं अपने प्रति श्रद्धा कहूँ अथवा उनका आक्रोश! आज जो मेरे पक्ष में हैं वे इसे मेरे प्रति श्रद्धा और भक्ति ही कहेंगे और जो मेरे विपक्ष में चले गये हैं वे इस घटना को उनका आक्रोश मानेंगे। यदि एकलव्य मेरे प्रति श्रद्धा न रखता होता, तो वह भी द्रुपद के पक्ष में युद्ध करने पहुँच जाता।
कुछ भील लोग, पांचाल नरेश के साथ जाकर मिल गये हैं, उनके मन में मेरे प्रति आक्रोश ने जन्म ले लिया है।सम्भव है कल वे अंगुष्ठ के प्रयोग न करने की बात से बन्धित न रहें।उस दिन अर्जुन सब कुछ सुनता रहा। उसने द्रुपद की बातों का कोई खण्डन भी नहीं किया।
अर्जुन समझ गया, ‘‘अंगुष्ठ के अभाव में सफलता पूर्वक लक्ष्यबेध किया जा सकता है।’’
यही बात थी कि अर्जुन जैसा धनुर्धर उन भीलों की प्रशंसा कर रहा था।
आज युद्ध में अर्जुन को चाहे जितना सहन करना पड़ा हो, मुझ द्रोण को आत्म सन्तोष मिल रहा है, ये भील जातियां अपने गौरव, अपनी परम्पराओं की रक्षा करती रहेंगी।
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