5 कैसे स्वागत करूँ मैं गुरुदेव का ?
सतत् अभ्यास से ही मानव अपने लक्ष्य को प्राप्त कर पाया है। निश्चित उद्देश्य को लेकर जो अभ्यास किया जाता है वह उसमें सफल होकर रहता हैं किन्तु हम अपने कार्य का सही लक्ष्य निर्धारित नहीं कर पाते हैं।
एकलव्य ने इसी सिद्धांत पर अपना लक्ष्य निर्धारित किया। वह उस पथ पर, मन को एकाग्र करके चलता रहा तो आज उसकी धनुर्विद्या ईर्ष्या का विषय बन गयी। उसने जो कुछ अर्जित किया, किसी की कृपा का फल नहीं बल्कि अपने श्रम और अभ्यास का परिणाम है। आज भारत वर्ष के इतिहास में श्रेष्ठ कहलाने वाले जन भी किसी के श्रम और अभ्यास से ईर्ष्या करेंगे किसी ने सोचा भी न होगा। .......और इसके बदले में ऐसा प्रतिकार.....?
एकलव्य के चित्त में तो यह विकार कभी आया ही न था कि कोई उससे ईर्ष्या करेगा। उसने तो उस दिन अपने आपको सबसे अधिक भाग्यशाली समझा जब गुरूदेव द्रोणाचार्य स्वयं चलकर उसके यहां आये। उस समय वह सोचने लगा- अरे मुझसे ही कहलवा दिया होता तो मैं ही उनके पास उपस्थित हो गया होता। आज गुरूदेव मेरे पास पधारे हैं। कैसे स्वागत करूँ मैं इनका ? कौन से शब्द इनके स्वागत में निस्सृत करूँ ?कौन-सा पात्र उनके आचमन के लिये भर लूँ ? कौन से कन्दमूल और फल उनके आहार के लिये लाऊँ ? आज सबकी सब चीजें गुरूदेव के स्वागत में तुच्छ लग रही हैं।
कुछ क्षणों तक एकलव्य यह सोचने के बाद भावशून्य हो गया। अब वह पुनः सोचने लगा-यह कैसे सम्भव है ! कहीं सतत ध्यान में लगे रहने से मुझे भ्रम तो उत्पन्न नहीं हो गया। गुरूदेव यहां क्यों आने लगे। यदि यहां आना होता तो उस दिन उससे मना ही क्यों करते ? मैं भी कैसा हूँ ? गुरूदेव यहां पधारे हैं, और मैं हूँ कि उनके अस्तित्व के बारे में सन्देह कर रहा हूँ । धिक्कार है मुझे ! जो गुरूदेव पर सन्देह कर रहा हूँ। रे तू आज जो भी कुछ सीख पाया है उन्हीं की कृपा से। काश ! सामने यह मूर्ति न होती तो आज मुझे कौन सिखाता !
जब-जब अभ्यास में कोई अवरोध उत्पन्न हुआ है तब तब गुरूदेव आपने अन्तर्मन में स्वयं उपस्थित होकर, प्रश्न का समाधान प्रस्तुत किया हैं। अन्यथा आपकी कृपा के बिना कैसे इतना सब सीख पाता। यह सोचकर गुरूदेव के श्री चरणों में उसने प्रणाम किया। बोला-’“गुरूदेव, दण्डवत स्वीकार करें।’’
पांवों पर झुके भील युवक को दण्डवत करते देख आचार्य द्रोण का ब्राह्मण हृदय जाग गया ।
द्रोणाचार्य ने अभ्यस्त भाव से आशीष दिया- ‘‘यशस्वी भव।’’
यह आशीर्वाद सुनकर अर्जुन को लगा- गुरूदेव ने इसे ये क्या वरदान दे दिया ? यशस्वी भव !
अब द्रोणाचार्य की दृष्टि उस मूर्ति की ओर गई। अरे ये तो मेरी ही प्रतिमा जान पड़ती है ! यह प्रतिमा यहां कैसे है, और क्यों है ?...उनने देखा कि उस प्रतिमा को सुन्दर वनफूलों से सुसज्जित किया गया था। यह देखकर उनकी नजरें आकाश की ओर उठीं और लगभग सबकुछ समझते हुये भी उन्होंने एकलव्य से प्रश्न कर दिया-“वत्स, अपना परिचय दो।”
एकलव्य रटी रटाई भाषा में अपना संक्षिप्त परिचय दिया, “मैं निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र आप का शिष्य एकलव्य।”
यह सुनकर आचार्य ने आश्चर्य व्यक्त करते हुये व्यंग्य से कहा-“मेरा शिष्य !”
यह आश्चर्य बोधक प्रश्न सुनकर एकलव्य को कहना पड़ा-“हाँ, गुरूदेव आपका शिष्य।”
वे सोच के सागर में डूब गये- इस के इस झूठ भरे उत्तर को सुनकर मैं यह क्यों नहीं सोच पा रहा कि मुझे इसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ?
उन्हे मौन देख एकलब्य ने अपनी दांयी तर्जनी से आचार्य की प्रतिमा की ओर संकेत किया-‘‘गुरूदेव, आप यहां मूर्ति के रूप में बैठ कर मुझे सिखाते रहे हैं ।‘‘
द्रोण को लगा कि कितना भोला और समर्पित युवक है यह भीलपुत्र ! इसे तो बिना किसी भेदभाव और बिना किसी जातिपांति के बंधनों के हर विद्या सिखाना चाहिए ।
उसी समय उनकी दृष्टि अर्जुन की ओर गई। वह कातर भाव से हाथ जोड़े उनके समक्ष खड़ा था। उन्हें याद हो आया-“मुझे अपने शत्रु द्रुपद से बदला लेना है। अर्जुन के श्रेष्ठ धनुर्धारी होने का वरदान मिथ्या नहीं किया जा सकता। यदि यह भील श्रेष्ठ धनुर्धर बन गया तो यह कभी भी द्रुपद से बदला नहीं ले पाएगा और मेरी प्रतिज्ञा मिथ्या साबित होगी । मेरा दिया गया अर्जुन के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी होने का वह वरदान असत्य घोषित हो गया तो मेरा इस धरा पर क्या अस्तित्व शेष रह जाएगा। मेरी सारी कीर्ति धूल में मिल जायेगी ! मिथ्यावादी ब्राह्मण कहलाऊंगा मैं। उसी समय याद हो आई उस दिन की, ‘‘जब अश्वत्थामा आटे का बनावटी दूध पीकर नाचने लगा था।’’
विवश होकर उनने एक क्षण में क्रूर निर्णय लिया। उनके मुँह से अनायास शब्द निकले- “तुम मेरे शिष्य हो तब तो नियमानुसार तुम्हें गुरू-दक्षिणा भी देनी चाहिये।”
यह कहकर उन्होंने देखा, एकलव्य भाव विभोर होकर कह रहा है- “गुरूदेव आज्ञा कीजिये।”
कुछ कहने के पहले द्रोणाचार्य ने अपने प्रिय शिष्यों की ओर देखा । वे सब उत्सुकुता से उनकी ओर देख रहे थे । एकलव्य की आंखे प्रसन्नता के आवेग से अध खुली हुई उनके मुख की ओर ताक रहीं थीं, वह घुटनों के बल भूमि पर बैठा अपने हाथों की अंजलि बांधे हुआ था ।
द्रोण को चुप देख कर वह पुनः बोला-‘‘ गुरूदेव, आप गुरू दक्षिणा में मेरे प्राण भी मांगे तो भी मैं अवज्ञा नहीं करूंगा ।‘‘
आचार्य के मुंह पर व्यंग्य झलका-‘‘ प्राण भी !‘‘
‘‘हां, गुरूदेव प्राण भी !‘‘ दृड़ स्वर से शिष्य के स्वर निकले, उसको कहां आशंका होगी कि कभी कोई गुरू किसी शिष्य से प्राण या प्राण जैसी ही कोई चीज मांग सकता है ।
एकलव्य ने देखा कि द्रोणाचार्य ने पहले आसमान की ओर ताका है फिर जमीन की ओर और फिर अपने शिष्य अर्जुन की ओर । फिर उनने आंख मूंदी और नये वृक्ष पर बिजली सी गिराते द्रोणाचार्य के मुँह से शब्द निकले- “गुरू-दक्षिणा में अपने दांये हाथ का अंगुष्ठ दो। मुझे स्वीकार होगा, तुम मेरे सच्चे शिष्य हो।”
वाक्य पूरा भी न हो पाया था कि एकलव्य गुरूभाव में पूर्णरूप से भावाभिभूत हो गया। उसने अपने तरकश में से एक तीखे फलक का बाण लिया और बांये हाथ से फलक को कस कर पकड़ लिया फिर उस तीक्ष्ण बाण के फलक से सभी के देखते देखते अपना दांए हाथ का अंगुष्ठ खच्च से काटकर गुरूदेव के श्रीचरणों में अर्पित कर दिया।
....और देखने वाले तो जैसे जड़ हो कर रह गये । स्वयं द्रोणाचार्य भी अविश्वसनीय दृष्टि से एकलव्य के रक्तरंजित दांये हाथ और उससे बहती रक्त की धार को देखते रह गये ।
पाण्डवों के बड़े भाई युधिष्ठिर ऐसी अद्भुत गुरू-दक्षिणा को देखकर ठगे से रह गये। उन्होंने ऐसा श्रेष्ठ भावुक शिष्य कभी नहीं देखा था। वे उस श्रेष्ठ धनुर्धारी, दिव्य शिष्य की मन ही मन प्रशंसा करने लगे।
धर्मराज सोच में पड़ गए- कैसा विचित्र और पागल शिष्य है ? एक क्षणको भी न तो आज्ञा पर विचार किया न कोई प्रतिप्रश्न किया । अपने प्रति कैसा निर्मम व्यक्ति है यह ? औेर हमारे गुरूदेव...? सचमुच गुरूदेव ने यह ठीक निर्णय नहीं लिया।
सहसा युधिष्ठिर को अपना ध्यान आया...मैं भी तो चुपचाप खड़ा यह सब देखता रहा । आने वाला इतिहास क्या कहेगा ? कैसा धर्मभीरू था युधिष्ठिर, जो एक श्रेष्ठ गुरूभक्त के श्रम की रक्षा नहीं कर सका। हालांकि एकलव्य की भी त्रुटि है, ये कैसी गुरूभक्ति है ! ये कैसा गुरूभाव है !
सहसा उनके मन में दबा अर्जुन के प्रति स्नेह का भाव जाग उठा । उनके मन ने पलटा खाया- इतना अवकाश ही कहां मिल सका कि मैं या कोई और आगे बढ़कर एकलव्य को रोक पाता । वो तो असामान्य श्रेणी का मनुज जान पड़ता है, अपने प्रति भला कोई ऐसा निर्मम भी होता है भला ! झट से बाण निकाला और खच्च से अपना अंगुष्ठ काट डाला । हे हरि ! कैसा युवक है यह !.......... खैर अब क्या हो सकता हैं। होनी को कौन टाल सका है ?
यह सोचकर उनका मन इस प्रसंग को अपने सामने से हटा कर स्वयं को परमहंस स्थिति में ले जाने का प्रयास करने लगा।
गुरूदेव द्रोणाचार्य भी उसकी निष्ठा को देखकर आश्चर्यचकित रह गये। सोचने लगे- यह मेरे मुँह से अनायास क्या निकल गया ? क्यों कह दिया इससे यह सब ? अंगुष्ठ का दान लेकर मैंने अच्छा नहीं किया। यदि द्रुपद से अपनी शत्रुता का भाव चुकता करना था तो इसको द्रुपद से युद्ध करने के लिये भेज देता। इससे मेरा यश गौरव ही बढ़ता।
आत्मचिन्तन के क्रम में आचार्य द्रोण के इस विचारों ने पलट खाई कि वैसे ठीक ही रहा। इसके सर्वश्रेष्ठ होने की पुष्टि युगों-युगों तक के लिये कर दी गई। अर्जुन के समक्ष इसकी गिनती कौन कहां करता ?अब इसकी गिनती श्रेष्ठ धनुर्धारियों में होगी। अब अर्जुन द्वितीय श्रेणी के धनुर्धारियों में गिना जायेगा। यदि यह घटना न घटती तो इसकी गिनती कहीं न होती। आज तक कितने एकलव्य धनुर्धारी हुए होंगे, कहां गिनती हो रही है उनकी ? जो हुआ अच्छा ही हुआ। अब तो यों ही मन केा समझाने के सिवा कोई विकल्प नहीं है।
भावावेश अथवा क्रोध में जो होना होता है हो गया। अब लोगों को जो कहना है कहें। इस प्रकार बिना सोचे समझे जो काम हो जाते हैं उनके लिये पश्चाताप के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं रहता।
वे सोचने लगे- मैं तो बड़ा विवेकशील था फिर क्षत्रिय राजकुमारों को शिक्षा देना मुझे अपना धर्म लगा। क्यों लगा यह धर्म मुझे अपना ! क्यों उस दिन इस निषाद के पुत्र को शिक्षा देने से इन्कार कर दिया ? संभवतः उस दिन मैं राजदबाव में था।....लेकिन आज यहां कौन से दबाव ने यह सब करवा दिया ? संभवतः अपने वचन पालन के लिये। मैंने सोचेविचारे बिना, अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी होने का वचन क्यों दे दिया ? उस दिन यह क्यों नहीं सोच पाया था कि कल कहीं इससे श्रेष्ठ धनुर्धारी निकल आया तो उस समय मेरे वचन का क्या होगा ? कहीं न कहीं तो चिन्तन में चूक हुई है। यह सोचते हुए द्रोणाचार्य की मुद्रा अन्यन्त गम्भीर हो गई।
अर्जुन ने देखा कि गुरूदेव इस घटना से प्रसन्न नहीं हुए, गम्भीर हो गये, सोच के सागर में डूब गये।मैने गुरूदेव को अपने सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी होने के वरदान के सम्बन्ध में, क्यों स्मरण करा दिया ? मैंने यह अच्छा नहीं किया। लोग मेरे बारे में क्या क्या नहीं कहेंगे, “अर्जुन इतना बड़ा धनुर्धर यों ही छल से बन गया होगा। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनने के लिये एकलव्य से मुझे और तीव्र अभ्यास करना था। उसकी श्रेश्ठता क प्रश्न, उसके अंगुष्ठ कटाने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि इस बहाने गुरूदेव से कुछ और नये गुण सीखने से था।किन्तु अब तो सब कुछ उलटा पुलटा हो गया। इस तरह संसार में सर्वश्रेष्ठ बनने का अब नया पंथ चलेगा।एकलव्य का अंगुष्ठदान आज मेरे हृदय को विदीर्ण कर रहा है। लोग कहेंगे मुझे गुरूदेव की बेबशी का इस तरह लाभ नहीं उठाना चाहिये। आज के बाद मेरी गिनती कहां होगी ? जीवन में निश्चय ही कोई अनहोनी घटना घटने वाली है। ऐसी घटनाएँ कुछ न कुछ नये संकेत, नये सुझाव देने के लिये ही धरती पर घटतीं हैं। हम हैं किकिंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं। मैंने जो सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का सपना सँजोया, आज वह धूल धूसरित हो गया।”
सभी देख रहे थे एकलव्य के अंगुष्ठ से अभी भी खून वह रहा है। गुरूदेव द्रोणाचार्य का आदेश सुनाईपड़ा- “वत्स एकलव्य।”
“जी गुरूदेव, आज्ञा कीजिये।”
“वत्स, अंगुष्ठ से जो रक्त का स्राव हो रहा है इसका उपचार कर लो।”
यह सुनकर एकलव्य के मुँह से शब्द निकले- “गुरूदेव हम भील लोग ऐसी जड़ी जानते हैं कि एक क्षण में ही यह रक्त का स्राव बन्द हो जायेगा, लेकिन गुरूदेव इस रक्त को बह जाने दीजिये। इसके स्राव से मुझे आनन्द आ रहा है।”
पाण्डव इस बात के मनचाहे अर्थ लगाने लगे। द्रोणाचार्य उसे सान्त्वना देने लगे- “वत्स, गुरू दक्षिणा देने के पश्चात् दुखी नहीं होना चाहिये।”
एकलव्य ने उन्हें संतुश्ट करने के लिये उत्तर दिया- “गुरूदेव, दुखी होकर अपनी सारी श्रम साधना को मिट्टी में नहीं मिलाना चाहता। मैं तो आज इतना खुश हूँ कि अपने गुरूदेव की इच्छा के लिये इतना तो बहुत ही कम है यदि आपने मेरा यह जीवन ही मांगा होता तो आपके श्रीचरणों में इसे भी हंसते हंसते अर्पित कर देता। गुरूदेव के श्रीचरणों में तो जीवन की सारी सम्पदा अर्पित कर देने के बाद भी कम ही रहती है। गुरूदेव, अदृष्य में आपने जो कृपा मुझ पर की है उतनी तो ..........।” वाक्य को पूरा किये बिना ही एकलव्य उठा। झाड़ियों में से वह एक जड़ी ले आया और उसका लेपन उस कटे हुए अंगुष्ठ पर कर लिया। एक क्षण के बाद वे देख रहे थे, रक्त स्राव पूरी तरह बन्द हो गया।
पाण्डवों का प्रिय श्वान कूँ - कूँ करके कभी एकलव्य के चरणों में लोटता कभी अर्जुन के सामने जाकर अपनी पूँछ हिलाने लगता। लग रहा था वह अपनी सारी गलती स्वीकार कर रहा था।
एकलव्य के चरणों में उसका लोटना उन्हें खल रहा था। पाण्डव उसके इस अभिनय को अनदेखा करने लगे। उनके देखते-देखते, वह श्वान जहां एकलव्य का खून गिरा था उसमें लोट पोट होने लगा। पाण्डव विवश थे। एकलव्य के रक्त में श्वान का लिप्त होना उन्हें असहनीय हो रहा था। वे अनुभव कर रहे थे- “वह श्वान ही नहीं, हम सब ही आज एकलव्य के खून में लथपथ हैं।”
अब वे सब भारी मन से लौट रहे थे।
वापस जाते हुए पाण्डवों पर अचानक आ रही वेणु की दृष्टि गई........ इतने लोगों का बिना अनुमति के वेणु की निजी अभ्यास स्थली में प्रवेश! मन में शंका उत्पन्न हो गई। उसने अपने धनुष से बाण उतारा और एकलव्य के पास आकर खड़ी हो गई।
वह देख रही थी उसका अंगुष्ठ कटा पड़ा है। चेतना शून्य एकलव्य आचार्य द्रोण को जाते हुये अपलक देख रहा है। वेणु की उपस्थिति का भी उसे आभास नहीं हुआ। वेणु अधीर हो उठी और अकुलाकर एकलव्य से प्रश्न किया- “युवराज यह कौन थे ?”
एकलव्य ने वेणु की ओर देखते हुये मुस्कराकर कहा- “गुरूदेव आये थे।”
वेणु ने व्यग्र होकर कहा-“मुझे भी बुला लेते। मैं भी उनके दर्शन कर लेती।”
एकलव्य ने उत्तर दिया- “उस समय आप अभ्यास में लीन थीं इधर साक्षात् गुरूदेव सामने हो तो कौन भाव विभोर नहीं होगा, कौन विचार शून्य नहीं हो जावेगा ?”
वेणु की दृष्टि एकलव्य के रक्तरंजित हाथ पर गई तो वह चौंक कर आगे लपकी । एकलव्य का कटा अंगूठा और बिना अंगूठे की अधूरी सी हथेली देख कर वह द्रवित हो उठी । लगभग रूआंसी होती वेणु ने एकलव्य से प्रश्न किया- “युवराज, लेकिन आपका यह अंगुष्ठ, मैं कुछ समझी नहीं ?”
एकलव्य मुस्कराया, ’’यह सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर शिष्य होने का प्रमाणपत्र है।’’
वह क्रोध में आते हुये बोली- “कृपया पहेलियां न बुझायें। साफ साफ कहें क्या हुआ ?”
“क्या कहूँ वेणु, एक दिन पूर्व पाण्डवों का वह श्वान जो अभी भी उनके साथ था, यहां आकर भांेक-भोंक कर मेरे लक्ष्य बेधन में व्यवधान उत्पन्न करने लगा। मैंने बिना फलक के बाणों से उसका मुंह बन्द कर दिया। वह यहां से भाग गया लेकिन एक प्रहर के पश्चात वह पाण्डवों को साथ लेकर आया। उन्होंने यहां आकर मेरा परिचय पूछा। मैंने द्रोणचार्य के शिष्य के रूप में अपना परिचय बतला दिया तो वे वापस चले गये। वेणु, आप भी इन दिनों अभ्यास में इतनी तल्लीन रही हो कि मुझे यह बात आपसे कहने का अवसर ही नहीं मिल पाया, इधर मैं भी अभ्यास में लगा रहा। आज उन्हीं पाण्डवों के साथ श्री गुरूदेव यहां पधारे।”
एकलव्य कुछ क्षणों तक बात कहने से रूका।
बात में व्यवधान देखकर वेणु बोली-“आचार्य द्रोण का आना और अंगुष्ठ का कटना, मैं कुछ समन्वय नहीं बिठा पा रही हूँ। आपको पूरी बात स्पष्ट करनी पड़ेगी।”
उसने बात पूरी की- “वेणुऽऽ, आचार्य ने मेरा परिचय पूछा। मैंने कह दिया कि मैं आपका शिष्य निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य !मेरी यह बात सुनकर उन्हें आश्चर्य हुआ, “मेरा शिष्य।”
“हाँ गुरूदेव आपका शिष्य।” वे बोले - ‘‘वत्स यदि तुम मेरे शिष्य हो तो तुम्हें गुरूदक्षिणा देनी होगी।”
मैंने आज्ञा मांगी- “आदेश करें।’
‘‘उन्होंने गुरूदक्षिणा में मेरा ये दांये हाथ का अंगुष्ठ मांग लिया। .......और वेणु मैंने गुरूदक्षिणा देने में देर नहीं की। यह अंगुष्ठ काटकर उनके श्री चरणों में अर्पित कर दिया।’’
यह सुनते हुये वेणु सिसक-सिसक कर रो पड़ी। बोली- “युगों युगों में ऐसी भावुकता कम ही देखने को मिलती हैं।”
एकलव्य ने उसे सान्तवना दी, “गुरूदेव ने केवल दांये हाथ का अंगुष्ठ मांगा था यदि वे मेरा जीवन मांगते तो वह भी अर्पित कर देता।”
वेणु गम्भीर होते हुये बोली- “वे आपसे आपका जीवन मांगते। यह मांगना और अर्पित कर देना अधिक उचित होता लेकिन युवराज बिना अंगुष्ठ के कहो अब आपका क्या अस्तित्व शेष रह गया है?”
यह सुनकर एकलव्य को लगा- वेणु तो सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर से ही विवाह करना चाहेगी। अब मै सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर नहीं रहा। इसीलिये यह मेरे अस्तित्व को नकार रही है।
यही सोचकर एकलव्य को विवश होकर कहना पड़ा- “क्षमा करें वेणु जी, अब मैं आपके योग्य नहीं रहा।”
वेणु ने अपने निर्णय से उसे अवगत कराया, “युवराज, गुरूदेव ने आपकी यह दिव्य परीक्षा लेकर घोषित कर दिया हैं कि आपके समान कोई दूसरा धनुर्धर अब इस संसार में नहीं है। अर्जुन की तुलना में आपकी श्रेष्ठता कम करने के लिये ही गुरूदेव को यह कदम उठाना पड़ा हैं।”
एकलव्य ने भी अपना निर्णय सुनाया, “जो भी स्थिति हो, अब तो मेरा जीवन अस्तित्व हीन हो गया है। मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि पाण्डवों को मेरा हस्तलाधव शोभनीय नहीं लगा। वे ही गुरूदेव को मेरे पास लेकर आये थे। अब मैं धनुर्विद्या में पाण्डवों के समान नहीं रहा। वेणु जी अब तो आपको अपने विवाह के लिये अर्जुन का ही चयन करना पड़ेगा।”
एकलव्य की यह बात सुनकर वेणु ने उसे समझाया, “युवराज, अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होता तो आपका यह अंगुष्ठ गुरूदक्षिणा में न लिया गया होता। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर घोषित होने के लिये आपको अनेक परीक्षायें देना पड़तीं। अब तो आपकी परीक्षा हो चुकी। आप युगों युगों के लिये संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर घोषित कर दिये गये। अब सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन की गिनती आपके पश्चात होगी। युवराज, मुझे मेरा लक्ष्य प्राप्त हो गया है।’’
यह बात सुनकर एकलव्य ने कहा- “लेकिन मेरा लक्ष्य तो मुझसे दूर चला गया है।”
वेणु ने युवराज को आश्वस्त किया, “युवराज, आप भूल रहे हैं। पर्वत पर पैर नहीं दृढ संकल्प चढ़ा करते है।”
उसकी यह बात सुनकर तो एकलव्य को लगा- चिन्ता की बात नहीं है। वेणु ने सकारात्मक सोच का बिन्दु मेरे समक्ष उपस्थित कर दिया है। मैं आज भी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर हूँ। विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर।
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