eklavy - 4 in Hindi Fiction Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | एकलव्य 4

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एकलव्य 4

4 पांन्डवों का प्रिय श्वान।

आज निषादराज हिरण्यधनु अत्याधिक चिन्तित हैं। उन्हें लग रहा था कि यदि आरंभ से ही सांदीपनि आश्रम की ओर एकलव्य को प्रेरित किया होता, तो आज यह समस्या सामने ही न आती। द्रोणाचार्य की शिक्षा पद्धति की साज सज्जा हम सबको आकर्षित करती रही और हमने एकलव्य को आचार्य द्रोण के यहां भेज दिया ? द्रोणाचार्य भी नीच जाति के युवक को राजकुमारों के साथ कैसे सिखाते ? आचार्य ने अपनी शब्दावली से सम्पूर्ण निषादजाति का अपमान किया है। जिस आदमी में सवर्ण अवर्ण का ऐसा विष भरा है , समझ नहीं आ रहा है उनका प्रतीक उसे कैसे कुछ सिखा पायेगा। परमहंस जी का यह कहना भी अजब है कि इसे संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनना है तो द्रोणाचार्य को प्रतीक मानकर श्रद्धा और विश्वास से सतत् अभ्यास करन पड़ेगा। प्रतीक से यह कैसे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन पायेगा ? परमहंस जी की इन बातों से मन कचपचा रहा है लेकिन ये परम संत जो कुछ कहते हैं कुछ न कुछ तथ्य उनकी बात में रहते हैं। उनकी बातें मिथ्या नहीं हो सकतीं।

एकलव्य पिताजी को सोचते हुये देखकर बोला, ’’पिताजी, आप चिन्तित न हों। परमहंस जी के कथन का, हम पालन करके तो देखें। उनका यह कथन कि सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनना है तो द्रोणाचार्य के प्रतीक के सहारे सतत् अभ्यास करना पड़ेगा, उनका यह वाक्य मुझमें अनन्त चेतना का संचार कर रहा है।’’

उसकी यह बात सुनकर हिरण्यधनु बोले, ’’हमें परमहंस जी की बातों पर सन्देह नहीं करना चाहिये। वे सर्वज्ञ हैं। श्रद्धा और विश्वास से हम उन्हीं के आदेश से आगे बढ़ते रहे हैं। हमारी जाति को सन्तों के वचनों पर पूर्ण आस्था और विश्वास है।

बात एकलव्य ने पूर्ण की, ’’पिताजी, मैं निषादपुरम से दूर कहीं जंगल में अभ्यास स्थली का निर्माण करना चाहता हूँ। आप निषाद जाति की प्रगति चाहते हैं इसलिये मुझे धनुर्विद्या के अभ्यास के लिये जाने की आज्ञा प्रदान करें। मैं जहां भी अभ्यास करूं, आप लोग मोह वश उसमें व्यवधान उत्पन्न न करें। मैं परमहंस जी की बातों का अक्षरशः पालन करना चाहता हूँ। और यहां से कही बाहर जाकर अभ्यास करने की इच्छा मेरे मन में आई है।’’

एकलव्य की बात सुनकर हिरण्यधनु ने भारी मन से कह दिया, ’’जाओ वत्स, हम सब की शुभकामनायें तुम्हारे साथ हैं। तुम धनुर्विद्या में पारंगत होकर लौटो।’’

अगले दिन सुबह सुबह एकलव्य पिताजी एवं माताजी से अनुमति लेकर चल पड़ा। वह राजप्रसाद से बाहर निकला तो उसने देखा कि उसके साथ चलने के लिए उसके युवा साथी बाहर प्रतीक्षा कर रहे थे। एकलव्य ने उन्हें अपना मन्तव्य समझाते हुये कहा- ‘‘मैं यहां से दूर कहीं अभ्यास करने के लिये जा रहा हूँ। आप लोग यहीं रहकर अभ्यास करते रहें। मेरे अभ्यास में व्यवधान उत्पन्न न करें।’’

उसकी यह बात सुनकर एक युवक बोला, ’’युवराज हम आपको व्यवधान पहुँचाये बिना आपके साथ अभ्यास करते रहेंगे।’’

एकलव्य ने उन्हें समझाते हुये कहा, ’’आप अपना दायित्व पूर्ण कीजिये मुझे अपना दायित्व निर्वाह करने दें।”’

दायित्व की बात सुनकर सभी लोग ठिठक कर रह गये। एकलव्य आगे बढ़ गया।

निषादपुरम से बाहर आकर वह इन्द्रन नदी के घाटपर आ गया। नाव से उसने इन्द्रन नदी पार की। अब वह उस स्थल की खोज में आगे बढ़ने लगा, जहां रहकर वह अभ्यास कर सके।

एकलव्य को याद आने लगी लक्ष्यबेधी वेणु की, निश्चित ही वह मेरे कार्य में बाधक नहीं हो सकती।इसी चिन्तन में वह आगे बढ़ता ही गया।

सांझ तक वह वेणु के उसी ग्राम के निकट पहुँच गया। और उस बगीचे की ओर मुड़ गया जहाँ वेणु की अभ्यास स्थली थी। दिन अस्त होने को था। वेणु अपने अभ्यास के उपरान्त घर लौटने को तत्पर थी। एकलव्य को समक्ष देखकर बोली, ’’युवराज, आप यहां ! आप तो आचार्य द्रोण से शिक्षाग्रहण करने गये थे ! इधर कैसे ?‘‘

इधर कैसे शब्द में अर्थ छुपा था। एकलव्य समझ गया। वेणु समझ रही है, मैं उसके सम्मोहन में द्रोणाचार्य के पास न जाकर यहाँ लौट आया हूँ। यह सोचकर बोला, ’’आचार्य द्रोण ने मुझ शुद्र जाति के युवक को राजकुमारों के साथ शिक्षा देने से इन्कार कर दिया। इसके पश्चात् मैं वहां से निषादपुरम पहुँचा। वहां इन दिनों एक परमहंस सन्त विचरण कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि मेरे गुरू तो द्रोणाचार्य ही है। उनको प्रतीक मानकर अभ्यास करूं तो मैं सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन जाऊँगा। निषादपुरम से इतनी दूर इधर इसलिये चला आया जिससे अभ्यास में व्यवधान न हो।

वेणु ने उसकी मुखाकृति की ओर देखते हुये व्यंग्य में कहा, ’’यहां मैं भी तो आपके धनुर्विद्या के अभ्यास में व्यवधान उत्पन्न कर सकती हूँ।’’

एकलव्य ने तत्क्षण उत्तर दिया, ’’देखो वेणु, बात यह है तो मैं तुम्हें समझ ही नहीं पाया हूँ। तुम्हारी बाते तो मुझे आगे बढ़ने के लिये प्रेरित कर रही हैं। हां तुम्हें अपने ऊपर विश्वास नहीं है तो मैं अन्यत्र चला जाता हूँ।’’

यह कहकर एकलव्य जाने के लिये तत्पर हो गया। वेणु ने बिना सोचे विचारे ही तत्क्षण उसका हाथ पकड़कर कहा, ’’युवराज सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनें तभी मेरा मन्तव्य पूर्ण होगा। अन्यथा मुझे जीवन भर अविवाहित रहना पड़ेगा।’’

वेणु के दृढ़ निश्चय की बात से एकलव्य समझ गया- मेरे लिये यही उचित अभ्यास स्थल है। जिसका लक्ष्य इतना श्रेष्ठ हो वह मेरे कार्य में बाधक नहीं साधक है। यही सोचकर बोला, ’’वेणुऽऽ, जहां आपको मेरे लक्ष्य में भटकाव दिखे मुझे सचेत करती रहें।’’

’’अभी मैं सचेत करने वाली कौन हूँ ?’’

’’वेणु तुम मेरी भविष्य की निधि हो।’’

यह वाक्य सुनकर वह बोली, ’’युवराज ने मुझे इस योग्य समझा है, मैं धन्य हो गई।’’

एकलव्य विषय पर आते हुये बोला, ’’हम यहां बातें करने के लिये नहीं सतत् अभ्यास करने के लिये हैं।’’

‘‘युवराज आप चिन्ता न करें आने वाले समय में लोग आपकी इस सहयोगिनी का नाम भी नहीं जान पायेंगे, यही मेरा धर्म है। आज आप यहीं विश्राम करें। यह प्रतिबन्धित क्षेत्र है। यहां मेरी इच्छा के बिना मेरे पिताजी भी प्रवेश नहीं करते। यह स्थल हमारे ग्राम से निकट है, घने जंगलों का सानिध्य प्राप्त है। पास में यमुना मैया प्रवाहित हो रही हैं। युवराज यहीं से कुरूराज्य की सीमा प्रारम्भ हो जाती है। इस सीमा की मर्यादा को कुरूराज्य के लोग भी उल्लंघन नहीं करते। सामने मेरी पर्णशाला है । कन्दमूल फल का यहां पर्याप्त भण्डार है। यहां अधिकांश वृक्ष फलदार हैं। भोजन व्यवस्था के लिये भटकने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे मनोरम स्थल ने ही मेरा निर्माण किया है। आज के लिये कंद, मूल रखे हैं। अन्धेरा हो चला। आप दूर यात्रा से आये हैं, रात्रि भोजन कर विश्राम कीजिये। माताजी मेरी प्रतीक्षा कर रही होंगी। अब मैं चलती हॅू।’’

रात्रि में एकलव्य को देर तक नींद नहीं आई। वह सोच रहा था- परमहंस बाबा ने गुरूदेव द्रोणाचार्य के किस प्रतीक को सामने रखने की बात कही है ?......... यहाँ प्रतीक कहाँ से जुटा सकँूगा।............. सहसा उसे बचपन में सीखी मूर्ति निर्माण करने की बात याद हो आई। गुरूदेव जैसे पूज्य व्यक्ति का प्रतीक उनकी मूर्ति के अतिरिक्त और क्या हो सकता है ? ऐसा सोचकर उसने निश्चय कर लिया, ‘‘कल सुबह गुरूदेव की मूर्ति का ही निर्माण कर प्रतीक के रूप में स्थापित करूँगा।‘‘

प्रातः एकलव्य अपने समय से ही उठ गया। यमुना के किनारे से गीली मिट्टी ले आया। पहले उसने आचार्य को बैठाने के लिये एक स्थान का चयन किया। ब्रह्म महूर्त में ही आचार्य द्रोण की मूर्ति का निर्माण शुरू कर दिया। उसने आचार्य को ध्यान से देखा था। उनकी देहयश्टि कैसी है ? चन्दन कैसे लगाते हैं ? जनेऊ कैसे पहनते हैं ? अधो वस्त्र के पहनने का आकार कैसा हैं ? वह मूर्ति निर्माण में ऐसा दत्तचित्त हो गया कि उसे पता ही नहीं चला कब दिन निकल आया, कब दिन चढ़ गया ? जब वह इस कार्य से निवृत हुआ तो उसने मुड़कर देखा, पता नहीं कितनी देर से वहां खड़ी वेणु मन्द मन्द मुस्कुरा रही है।

एकलव्य ने उसे मन्द मन्द हंसी बिखेरते हुये देखकर उसका उसी भावभूमि से मुस्कुरा कर स्वागत किया। मूर्ति की प्रशंसा में वेणु बोली, ’’आश्चर्य ! आप इतने श्रेष्ठ मूर्तिकार !’’

मूर्ति की प्रशंसा सुनकर एकलव्य बोला, ’’ तब मैं किशोर अवस्था में था जब कि एक बार हस्तिनापुर के प्रमुख शिल्पी सुमतजी इन्द्रन के घाट से निकले थे। उन्हें विश्राम की इच्छा हो आई तो वे कुछ दिनों हमारे निषादपुरम में ठहरे रहे। उन्होंने ही मुझे मूर्ति के निर्माण में दक्ष किया है।’’

यह सुनकर वेणु को कहना पड़ा, ’’ऐसी बहुमुखी प्रतिभा को पाकर मैं धन्य हो गई। आप तो दिन प्रतिदिन गहरे होते चले जा रहे हैं। आप मूर्ति का निर्माण करने में लगे थे, गुरूदेव को अर्पित करने पुष्प और भोग लगाने के लिये कन्दमूल और फल ले आई हूँ। उन्हें ये अर्पित करके उनको अभिपूजित कीजिये।’’

अब एकलव्य ने गुरूदेव को पुष्पों से सुसज्जित किया। कन्दमूल एवं फलों का भोग लगाया। अपना धनुष और बाण गुरूदेव के चरणों में रख दिये। गुरूदेव से प्रार्थना की। उन फलों में से अर्धप्रसाद वेणु को देते हुये कहा-’“आप भी यह प्रसाद ग्रहण करें।’’

दोनों ने बड़े प्रेम से प्रसाद ग्रहण किया। एकलव्य ने कमण्डल में जल लाकर रखा था। दोनों ने जलग्रहण किया। अब एकलव्य ने श्रद्धा और भक्ति से बचपन में आचार्य से कन्ठस्थ की हुई वन्दना का सस्वर पाठकिया-

गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णु, गुरूर्देवो महेश्वरः।

गुरूरेव परब्रह्म, तस्मै श्री गुरूवे नमः।।

अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितम् येन सः तस्मै श्री गुरूवे नमः।।

उसके बाद उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। धनुष और बाण उठा लिये। उसे लग रहा था, जैसे श्री गुरूदेव ने अपने हाथों से उठाकर उसे धनुष और वाण दिये हों। अब वह वृक्ष के फलों को लक्ष्य मान कर अभ्यास में जुट गया। वेणु यह भाव देखकर वहां से हट गई। यहां से किन्चित दूरी पर उसी बगीचे में वेणु भी एक नयेे अभ्यास स्थल पर जाकर अभ्यास करने लगी।

सायंकाल का समय हो गया। उसने देखा-एकलव्य अभी भी तन्मयता से अभ्यास में रत है। उसने उसके अभ्यास में व्यवधान उत्पन्न नहीं करना चाहा। उसने रात्रि के लिये कुछ कन्दमूल फल चुने और गुरूदेव की मूर्ति के पास ही एक बांस की टोकरी में उन्हें रखकर अपने ग्राम में लौट आई।

दूसरे दिन अपने समय से वेणु अभ्यास स्थली पहुँची। एकलव्य बांस से बाण तैयार करने में लगा था।गुरूदेव वन पुष्पों से सुसज्जित थे। वहां कुछ नये और ताजा कन्दमूल और फल भी रखे थे। वह समझ गई एकलव्य ने अपनी व्यवस्था स्वयं कर ली है। आज वेणु बाणों के कुछ फलक लेकर आई थी। विभिन्न प्रकार के बाणों के फलक उसने चुपचाप एकलव्य के समक्ष रख दिये। यह देखकर एकलव्य बोला, ’’रात्रि से ही मैं बाणों के फलकों के बारे में सोच रहा था। वेणु तुम्हें कैसे ज्ञात हो गया कि मुझे बाणों के लिये फलकों की आवश्यकता है।’’

यह सुनकर वेणु बोली, ’’युवराज, रात्रि से ही मेरे मन में बारम्बार यही आ रहा है कि युवराज को बाणों के लिये फलकों की आवश्यकता होगी। मेरे पिता श्री पांचाल नरेश के यहां आते-जाते रहते हैं। मेरे हितार्थ वहां के लोहकर्मी से हर बार नये-नये तरह के फलक लेकर आते हैं।’’

उसकी यह बातें सुनते हुये वह फलकों की नोंकें देखने लगा। एक दो फलकों के बारे में एकलव्य ने वेणु को निर्देश दिये, ’’ये फलक कहीं आगे सर्पाकार होते तो इनका वेग कई गुना अधिक होता, किन्तु यह सब कैसे संभव है ?’’

यह सुनकर वेणु ने कहा, ’’सर्वप्रथम जब आचार्य द्रोण हस्तिनापुर पहुँचे। उन्होंने वहाँ पहुँचकर, पूर्व से चल रहीे आचार्य कुलपरम्परा को ध्वस्त कर दिया। उनकी इस नीति से त्रस्त होकर हस्तिनापुर से पलायन करके एक आचार्य हमारे ग्राम में आकर रहने लगे हैं। इससे हमारे शस्त्र और शास्त्र अभ्यास की समस्या का समाधान हो गया है। हमारे पिताजी ग्राम प्रधान होने के कारण उनकी भोजन प्रसादी की व्यवस्था करते रहते हैं। उन्हीं के साथ हस्तिनापुर से एक लोहकर्मी भी हमारे ग्राम में आकर रहने लगा है। इन्हें कल अपने ग्राम के उस लोहकर्मी से उसे निर्मित कराकर लाऊँगी।’’

एकलव्य ने उसके सहयोग के लिये आभार व्यक्त किया, ’’आपकी बातचीत से मैं समझ गया कि आप विदुषी भी हैं। आपके सहयोग के लिये वेणुजी, मैं आपका यह उपकार कैसे चुकता कर पाउँगा ?’’

आभार के प्रश्न पर वेणु की आँखों ने मुस्कान की आभा बिखेरी और बोली, ’’दक्ष धनुर्धर बनकर।’’

उसने इस एक वाक्य के द्वारा जो कहना था वह सब कुछ कह दिया। एकलव्य इन भावों को हृदय में सहेज कर रह गया।

अब गत दिवस की तरह एकलव्य ने गुरूदेव का भोग लगाया और कन्दमूल फलों का अर्धभाग वेणु केे सामने रख दिया। वेणु गदगद होकर सोचने लगी- यह कार्य तो मेरा है जिसे वे स्वयम् करने लगे हैं।

फलाहार के उपरान्त दोनों अपने अपने स्थान पर धनुर्विद्या के अभ्यास में लीन हो गये। रात्रि के लिये फलाहार की व्यवस्था करके, वेणु उससे कुछ कहे सुने बिना ही सांझ ढ़ले घर लौट आई।

दूसरे दिन जव वेणु अभ्यास स्थल पर पहुँची। उसने देखा- एकलव्य गुरूदेव के समक्ष ध्यान मग्न बैठा हैं। कुछ कह रहा है, कुछ प्रश्नों के उत्तर खोज रहा हैं।

उसकी मुद्रा से वेणु ने अनुभव किया, ’’एकलव्य के मन में कुछ प्रश्न उठे होंगे। उन्हीं के उत्तर गुरूदेव से पूछ रहे हैं। आश्चर्य है ऐसी श्रद्धा और भक्ति पर। यदि ऐसी श्रद्धा भक्ति किसी की हो जाये तो अन्तर्मन से किसी भी प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो सकता है। यह तो मूर्ति है, कदाचित साक्षात् गुरूदेव होते तो क्या होता !’’

एकव्य गुरूदेव से ध्यान में वार्तालाप करके उठा। उस समय फलाहार का समय हो चुका था। आज फलाहार की डलिया वेणु ने उठा ली। गुरूदेव के समक्ष अर्पण करने के लिये उसमें से कुछ कन्दमूल और फल चुने। उन्हें गुरूदेव के समक्ष रखते हुये, अपने ग्राम के आचार्य से सीखे मन्त्र के भावार्थ से, हाथ जोड़कर उनसे आग्रह किया, ‘‘ हे गुरूदेव शरीर में व्याप्त पाँचों वायु, प्राण, समान, उदान, अपान और व्यान के समाहार के लिये आप यह आहार ग्रहण करें।’’

कमण्डल के जल से आर्घ देकर आचमन कराया। उस डलिया के फलों का अर्धभाग एकलव्य के समक्ष प्रस्तुत कर दिया और बोली, ’’युवराज ग्रहण करें।’’

यह देखकर युवराज एकलव्य बोला, ’’यह मेरा कार्य था आपने उसमें हस्तक्षेप।’’

वेणु ने उत्तर दिया, ’’मैंने कार्य में हस्तक्षेप नहीं, बल्कि नारी के दायित्व का पालन किया है।’’

’’अभी वेणु जी, आप नारी कहां हैं ! अभी तो धनुर्विद्या के अभ्यास कार्य में सहयोगी की भूमिका का निर्वाह कर रहीं हैं।’’

’’युवराज, कोई सहयोगिनी नारी कब बन जाती है ?’’

‘‘वेणु जी सब भावना के खेल हैं। हमारे चित्त में भी भटकाव है आपकी सुन्दरता को यदि हम नारी की भावना से देखने लगें तब आपके प्रति हमारी दृष्टि बदल जायेगी।’’

युवराज की भावनाओं को समझते हुये बोली, ‘‘युवराज, हम दोनों युवा हैं। रोमांच का प्रवाह हृदय में तीव्र हो रहा है। किन्तु हम लक्ष्य से बंधे हैं। इन प्रश्न उत्तरों में न उलझें।’’

एकलव्य वेणु की बातों को गुनते हुये कन्दमूल और फल ग्रहण करने लगा। फलाहार के बाद आचमन लिया तब वेणु ने प्रश्न किया, ’’गुरूदेव से प्रश्नों के उत्तर मिले !’’

एकलव्य समझ गया- वेणु धनुर्धर है, वह सब कुछ समझ रही है। उसने यही सोचकर उत्तर दिया,’’गुरूदेव के समक्ष बैठकर प्रश्न करने से, आज के सम्पूर्ण प्रश्नों का समाधान प्राप्त हो गया है।’’

’’आश्चर्य है ! आपको अदृश्य से उत्तर मिलना शुरू हो गये हैं! आप तो परमयोगी हैं। गुरूदेव की अपने शिश्य पर यह तो अपार कृपा है।’’

‘‘एकाग्रता चित्त के निरोध से सम्भव है। लक्ष्यबेध में एकाग्रता महत्वपूर्ण तत्व है। आप भी तो परम योगिनी हैं, अन्यथा इतना उत्कृष्ट लक्ष्यबेध कैसे सम्भव है?’’

‘‘आश्चर्य है ! आपको मैं योगिनी लगी हूँ !’’

’’किसी भी अभ्यास में लयबद्ध होना योग है। वेणु जी, आप हमारी बातों पर सन्देह न करें।’’

‘ ‘रामऽ रामऽऽ। मैं और आपकी बातों पर सन्देह ! युवराज आप पर सन्देह करती तो वरण का प्रस्ताव.......।’’

‘‘वेणु जी यह मेरा सौभाग्य है लेकिन अपने को आपके योग्य ......................।’’

‘‘युवराज, अभ्यास से सब कुछ सम्भव है।’’

दोनों इन्हीं भावनाओं को गुनते हुये अपने-अपने अभ्यास में लग गये।

रात को नींद की प्रतीक्षा में लेटे एकलव्य की आंखों के आगे रह रह कर वेणु का सांवला गठीला बदन, चेहरे की चमकदार त्वचा, हिरणी सी बड़ी बड़ी उत्सुक और सक्रिय आंखें लम्बी पुष्ट भुजाए, कटि के ऊपर बिना वस्त्रों का आमंत्रण सा देता यौवन उसकी नींद को कोसों दूर उड़ाये लिए जा रहा था ।

बड़ी कठिनाई से उस दिन नींद आई एकलव्य को ।

दूसरे दिन एकलव्य अन्य दिनों की अपेक्षा जल्दी उठ गया। दैनिक कार्यों से निवृत होकर गुरूदेव के समक्ष जाकर बैठ गया। आज कल की अपेक्षा कुछ कठिन प्रश्न उभर कर आये। गुरूवन्दना के उपरान्त उसने गुरूदेव से प्रश्न किया, ‘‘गुरूदेव यदि आप यहां साक्षात् उपस्थित होते तो धनुर्विद्या सीखने में जितना श्रम करना पड़ रहा है, उतना श्रम नहीं करना पड़ता।’’

प्रश्न बड़बड़ाने के बाद वह अंतर की आवाज को सुनने के लिये एकाग्र हो गया। उत्तर मिला-’’उस समय प्रश्न भी मैं ही करता, उत्तर भी मैं ही देता। यहां उत्तर पूछने का कार्य तुम्हें करना पड़ रहा है।’’

वह अगला प्रश्न बुदबुदाया, ’’गुरूदेव, लक्ष्य बेध में भटकाव है। बाण उचित स्थान पर नहीं लगते।’’

प्रश्न करने के बाद पुनः अन्तर में गुरूदेव की आवाज सुनने के लिये एकाग्र होकर बैठ गया।उत्तर मिला, ’’वत्स, जिस प्रकार प्रश्न का उत्तर सुनने के लिये एकाग्र हो जाते हो, ठीक वैसे ही वाण छोड़ते समय भी एकाग्रता की आवश्यकता है। लक्ष्य से मन भटक गया तो, संधान उचित नहीं होगा।

’’गुरूदेव, वेणु शब्दभेदी बाण चला लेती है।’”

इस प्रश्न का उत्तर सुन पड़ा, ’’वत्स, सम्पूर्ण खेल एकाग्रता और सतत् अभ्यास का है।”’

आचार्य द्रोण की मूर्ति के समक्ष बैठे एकलव्य का बुदबुदाहट अर्न्तमुखी थी। सतत् अभ्यास की बात

सुनकर वह गुरूदेव के सामने से उठा। उसने वेणु की ओर देखा और चिन्तन में व्यवधान उत्पन्न न करने हेतु तर्जनी अंगुली से मौन रहने का संकेत करते हुये फलों का अर्ध भाग ग्रहण किया और जाकर अभ्यास करने लगा।

दूसरे दिन वेणु एकलव्य की मुखाकृति से गुरूदेव से होने वाले प्रश्न उत्तरों को समझने में असमर्थ रही। एकाग्रता के अन्त में हर दिन की तरह तर्जनी अंगुली से मौन रहने के संकेत ने पूछने भी नहीं दिया।

यों कुछ दिन बिना वार्तालाप के निकल गये।

वेणु ने अपनी माताजी द्वारा सभी बातें अपने पिताजी चन्दन से कह दी। ग्राम के सभी लोगों को निर्देशित कर दिया गया कि, कोई भी युवराज के अभ्यास में व्यवधान उत्पन्न न करे।

ग्राम प्रधान चन्दन भी एकलव्य से मिलने के लिये कभी नहीं गये। इन दिनों जब एकलव्य अभ्यासरत होता, प्रश्न उत्तर के लिये वेणु भी गुरूदेव के समक्ष ध्यान में बैठने लगी।

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एक दिन गुरू द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों की क्षमता में वृद्धि करने के लिये आदेश दिया, ’’सभी राजकुमार आखेट पर चलंें।’’

कुछ उनके इस आदेश को सुनकर फूले न समाये।

कौरव और पाण्डवों के प्रथक-प्रथक दल बन गये। अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ हो किसी ने उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया, किसी ने दक्षिण की ओर। अंग रक्षकों हांकेवालों एवं शिकारी कुत्तों के समूह उनके साथ थे। पाण्डव दक्षिण की ओर चले। इनका प्रिय श्वान भी इनके साथ था। जंगल में भटकते हुये वह जाने कहां जा निकला।

पाण्डव शिकार की खोज में इतने तन्मय हो गये कि उनका श्वान पीछे छूट गया। सहदेव का ध्यान उसकी ओर गया। उसने आश्चर्य किया, ‘‘ अरे ! बड़े भैया हमारा श्वान कहाँ गया ?’’

वे श्वान को न पाकर चिन्तित हो उठे।

नकुल बोला, ‘‘ इस घनघोर जंगल में उसे कहाँ खोजें ?’’

भीमसेन ने अल्हड़पन में उत्तर दिया, ‘‘धरती माता तो उसे निगलने से रहीं।’’

उनकी बात की ओर ध्यान दिये बिना अर्जुन बोला, ‘‘ हमें उसे खोजना ही पड़ेगा। वह हमारा प्रिय श्वान है।’’

युधिष्ठिर ने आदेश दिया, ‘‘ हम लोग चारों ओर गहनरूप से अपनी दृश्टि डालते हुये कुरूराज्य की सीमा की ओर प्रस्थान करें। उधर जंगली जानवरों का आधिक्य है। हम शीघ्रता से आगे बढें, कहीं किसी जंगली पशु ने उसे खा न डाला हो !’’

उनका आदेश पाकर वे तीव्रगति से आगे बढ़ने लगे। भीमसेन को उसे खोजने में झुंझलाहट होने लगी।

वह अपनी भावना व्यक्त करते हुये बोला, ‘‘ बड़े भैया कुरूराज्य की सीमा समाप्त होने को है और उस महाश्वान के दर्शन ही नहीं हो रहे हैं। वह लौट कर घर न चला गया हो ।’’

युधिष्ठिर उसके मनोभाव समझते हुये बोले, ‘‘ क्यों, क्या भूख लगने लगी ? इसीलिये घर की याद आ रही है।’’

सहसा नकुल का तीव्र स्वर सुन पड़ा, ‘‘अरे ! अरे ! वह रहा हमारा प्रिय श्वान।’

....और सबकी निगाह उस श्वान पर पड़ी तो लगभग सबके मुँह से चीख ही निकल गई-बाप रे ! ये किस हालत में लौटा है ।

वे उसके पास जाकर खड़े हो गये।

श्वान लगभग रो रहा था और उसका मुँह पूरा खुला हुआ था और वह उसे बंद नहीं कर पा रहा था क्यों कि वह बाणों से भरा हुआ था। अर्जुन करूणावश उसके पास बैठ गया। उसने प्रयत्न करके श्वान के मुँह में ठंसे सारे बाण निकाले। पता चला कि बिना नोक के बाणों से उसका मुँह बन्द था। इतने बाण लगे होने पर भी उस श्वान के मुँह में कहीं खरोंच तक नहीं आई। बाण निकल जाने के उपरान्त वह पूँछ हिला कर एवं जीभ निकालकर उनका आभार मान रहा था।

पाण्डव अनुभव कर रहे थे, ’’श्वान का मुँह बन्द करने के लिये बिना फलक के बाण मारे गये हैं। बाण मारने वाले का सन्तुलन एवं स्फूर्ति तो विलक्षण है।’’

अर्जुन ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की, ‘‘बड़े भैया,ऐसा तो नहीं कि ये बाण किसी ने हमारे श्वान को पुचकार कर रोका हो और हाथ से उसके मुंह में खोंस दिये हों । कदाचित यह बाण धनुष पर ही संधान करके मारे हैं तो निश्चय ही हमें बाण मारने वाले की खोज करना चाहिये।’’

‘‘अर्जुन, मैं भी यही सोच रहा हूँ। हमें ऐसे धनुर्धर से मिलना ही चाहिये।’’

उनका आदेश पाकर वे उस बाण मारने वाले की खोज में तत्क्षण निकल पड़े। वह श्वान उन सबको उस स्थान पर ले गया जहां एकलव्य लक्ष्य के संधान में रत था। पाण्डव उसकी वेशभूषा देखकर पहिचान नहीं पाये। वह एक बाण चलाता तत्क्षण दूसरा बाण उसे आगे जाने से रोकने के लिये मार रहा था, और वह अपने उद्देश्य में सफल था। सभी पाण्डु पुत्र उसकी इस प्रतिभा को देखकर आश्चर्य चकित रह गये।

इसी समय एकलव्य की दृष्टि इन सभी पर पड़ी तो वह उनके पास आ गया। पाण्डवों की ओर से युधिष्ठिर की आवाज में प्रश्न सुनाई पड़ा, ‘‘तुम कौन हो ?’’

एकलव्य ने सहजता से कहा, ‘‘मैं निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र आचार्य द्रोण का शिष्य एकलव्य‘‘‘‘’’और आप ?‘‘

‘‘ पाण्डव पुत्र ....... । ’’

‘‘ स्वागत है ....... स्वागत है । गुरुदेव की मूर्ति के समक्ष डलिया में फल रखे हैं, उन्हें स्वीकार करें । ’’

भीम ने आगे बढकर कहा शीघ्रता में हैं । हम चलते हैं । ’’

‘‘........ गुरुदेव को प्रणाम कहियेगा । ’’

पाण्डवों को याद हो आई उस दिन की जब गुरूदेव ने इसे शिष्य बनाने से इन्कार कर वापस कर दिया था। वे उसकी बात का उत्तर दिये बिना, अपने श्वान को लेकर वापस चल पड़े । वे सब लौटते हुये इस सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर की मन ही मन प्रशंसा कर रहे थे।

अर्जुन सोच के सागर में डुबकियां लगाते हुये चला जा रहा था- गुरूदेव ने तो कहा था अर्जुन तुम सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होगे। कहां गया गुरूदेव का वह वचन ? यदि गुरूदेव यह आशीर्वाद प्रदान न करते तो मैंने कौन सा उनसे यह वरदान मांगा था ? उस दिन गंगा में जब उनकी जांघ ग्राह ने पकड़ ली, उनकी रक्षा करना मेरा धर्म था। लक्ष्यबेध तो गुरूदेव ने ही मुझे सिखाया था। मैंने तो अपने कर्तव्य का पालन किया। उनके सिखाये अस्त्र से ही उनकी रक्षा हुई है। गुरूदेव ने सभी के समक्ष यह घोषित करके उचित नहीं किया। जब कौरवों कोें इस बात का पता चलेगा कि मुझसे श्रेष्ठ धनुर्धर आचार्य द्रोण का ही कोई अन्य शिष्य भी है,..............तो उस स्थिति में मेरा सम्मान कहां शेष रह जायेगा ? कितना बिस्मय भरा करतब है उस भील बालक का कि बाण इस भाव के मारना कि श्वान के मुख में कोई खरोंच भी नहीं आने पावे। .........कितना प्रवीण है वह धनुर्धर !उसके समक्ष तो मैं अपने आपको अक्षम अनुभव कर रहा हूँ । गुरूदेव से मुझे पूछ ही लेना चाहिये कि गुरूदेव आपने ऐसा क्यों कह दिया ?’’

इसी सोच में अर्जुन गुरूदेव के समक्ष उपस्थित हो गया। द्रोणाचार्य ने आखेट से वापस आये शिष्यों से उल्लास में पूछा, ’’प्रिय शिष्यों , कैसा रहा आपका आखेट ?’’

सभी अपने अपने आखेट के अनुभव सुनाने लगे। दुर्योधन और दुःशासन बढ़ चढ़ कर अपने आखेट के अभियान की कहानी कहने लगे। कौरव देख रहे थे पाण्डवों की मुखाकृति पर उल्लास नहीं हैं। उन्होंने सोचा,हमारी तरह आखेट में सफल नहीं रहे होगे इसलिये इन सबके मुख से उल्लास चला गया है। वे और ज्यादा बढ़ कर अपनी-अपनी वीरता की कहानी कहने लगे। फिर सब के सब गुरूदेव से आज्ञा लेकर चले गये।

अगले दिन की बात है, दैनिक अभ्यास के बाद दोपहर होने के पहले ही कौरव बंधु जा चुके थे, केवल पाण्डुपुत्र मौजूद थे । वे सब उदास थे, विशेषकर अर्जुन किसी मनस्ताप में था ।

अर्जुन की मुखाकृति से उसके भाव द्रोणाचार्य से छिपे नहीं रहे। बोले, ’’अर्जुन, आज तुम प्रसन्न नहीं दिख रहे हो।’’

अर्जुन ने तत्क्षण उत्तर दिया, ’’गुरूदेव, आपने मुझे सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होने का आशीष देकर उचित नहीं किया। लोग कहते है कि आपका आशीष कभी मिथ्या नहीं हो सकता।’’

द्रोणाचार्य अर्जुन के मुख से ऐसी अनहोनी शब्दावली सुनकर आश्चर्य चकित रह गये। अपने को सम्हालते हुये बोले, ‘‘अर्जुन, मैं सत्य कहता हॅू संसार में मेरे शिष्यों में तुमसे श्रेष्ठ कोई धनुर्धर न होगा।’’

अर्जुन के मुख से शब्द निकले, ‘‘किन्तु.........’’

बात को द्रोणाचार्य ने लगभग छीन कर आगे बढ़ाया- ‘‘वत्स, तुम्हें मेरे आशीष पर सन्देह ! बात क्या है ? शीघ्र कहो !’’

यह सुनकर अर्जुन को पूरी बात कह देना अनिवार्य लगा, बोला, ‘‘गुरूवर, घने वन में जब हम आखेट में तन्मय थे, हमारा प्रिय श्वान हमसे बिछुड़ गया। जब हमारी तन्मयता कम हुई तो हमें अपने श्वान का ध्यान आया। हम श्वान को खोजने लगे। खोजते खोजते कुरूराज्य की दक्षिण सीमा पर पहुँच गये। वहां जाकर वह हमें मिल गया। लेकिन एक आश्चर्य था गुरूदेव कि किसी ने बाणों से उस श्वान का मुंह इस प्रकार भर दिया था कि उसमें किन्चित भी स्थान शेष नहीं था। मैने वे बाण उसके मुख से निकाले हैं, ये रहे वे बाण।’’

अर्जुन ने श्वान के मुंह से निकाले गये बाणों को आचार्य की ओर बढ़ा दिया। आचार्य वे बाण हाथ में लेकर उनका निरीक्षण करने लगे। वे बाण सामान्य से बांस की छीपटों के बने हुये थे। अर्जुन ने बात आगे बढ़ाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘गुरूदेव, हमने उस बाण मारने वाले की खोज की।’’

आचार्य द्रोण ने व्यग्र होकर प्रश्न कर दिया, ’’ऐसा धनुर्धर इस धरा पर कौन है ? और कहां है?’’

यह प्रश्न सुनकर अर्जुन बोला, ’’गुरूदेव, वह धनुर्धर है निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य।’’

आचार्य द्रोण ने झट से उत्सुकता प्रगट की, ’’अरे ! वही एकलव्य जो कभी मुझसे शिक्षा ग्रहण करने आया था। मैं तुम क्षत्रिय राजकुमारों के साथ कैसे उस निषाद पुत्र को सिखाता। इसी कारण मैंने उसे शिष्य बनाने से इन्कार कर दिया था।’’

अर्जुन ने बात को यहीं से पकड़कर कहा, ’’गुरूदेव वह तो अपने आपको आपका ही शिष्य कह रहा है।’’

यह सुनकर द्रोणाचार्य की आंखें बिस्मय और क्रोध से सिकुड़ गईं। वे बोले, ’’मेरा शिष्य !’’

अर्जुन ने उत्तर दिया, ’’हाँ गुरूदेव आपका शिष्य।’’

द्रोणाचार्य का झुंझलाता स्वर सुनाई पड़ा, ‘‘ इतना बड़ा झूठ? मैंने उस अधम को कब शिक्षा प्रदान की ? हमें उससे तुरंत मिलना चाहिये। चलिये, इसी समय उससे मिलने के लिये प्रस्थान करते हैं।’’

........और उसी समय व्यग्र से पाण्डव, दांत मिसमिसाते द्रोणाचार्य के साथ उस श्वान को लेकर एकलव्य से मिलने के लिये चल पड़े