hindi upnyas aur samaj-dr omprkash sharma in Hindi Book Reviews by राज बोहरे books and stories PDF | हिन्दी उपन्यास और समाज -ड़ा0 ओमप्रकाश शर्मा

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हिन्दी उपन्यास और समाज -ड़ा0 ओमप्रकाश शर्मा

हिन्दी उपन्यास और समाज -ड़ा0 ओमप्रकाश शर्मा

पुस्तक समीक्षा-

पुस्तक-हिन्दी उपन्यास और समाज

प्रकाशक-अरावली पब्लिकेशन, दिल्ली

लेखक-ओमप्रकाश शर्मा

उपन्यासों पर गहरी पड़ताल व स्त्री-दलित विमर्श की छानबीन

हिन्दी उपन्यास और समाज नाम से पिछले दिनों प्रकाशित ड़ा0 ओमप्रकाश शर्मा की आलोचना किताब दरअसल सन् 1881 से 1947 के बीच छपे उपन्यासों पर गहरी पड़ताल करने वाली एक गंभीर पुस्तक है। इस पुस्तक में स्वतंत्रता पूर्व के हिन्दी उपन्यास के सामाजिक सरोकारों पर गभीर विमर्श किया गया है। साहित्य के नये केन्द्र के रूप में उदित होने वाले स्त्री-विमर्श को आरम्भिक हिन्दी उपन्यासों में खोजने और पा लेने का उपक्रम वर्तमान संदर्भो में काफी महत्वपूर्ण है।

इस पुस्तक में आठ अध्याय हैं, लेकिन लेखक का विशेष ध्यान अध्याय चार और अध्याय पांच में मौजूद मुद्दों के विशलेषण में रहा है। अध्याय चार हिन्दी उपन्यास में सामाजिक चेतना के नाम से लिखा गया हैं। इस अध्याय में जातिप्रथा बदलता स्वरूप के नाम से पहला उपशाीर्षक देकर लेखक ने जातिप्रथा के मुद्दे पर नये दृष्टिकोण से विचार किया है। ठाकुर जगमोहन सिंह के उपन्यास “श्यामा स्वप्न“, प. बालकृष्ण भट्ट के उपन्यास “नूतन बृह्मचारी“ व “सौ अजान और एक सुजान“, मुंशीप्रेमचन्द्र के “कर्मभूमि“, व “गोदान“, मन्मन द्विवेदी के “रामलाल“ व “कल्याणी“ नामक उपन्यासों में लेखकों ने जातिप्रथा की भयावहता, इसकी अमानवीयता और अन्यायी स्वरूप को उठाया है। प्रेमचन्द्र और उनके समकालीन लेखकों पर वर्तमान के तथाकथित दलितवादी आलोचकों का “सहानुभूति-लेखक“ का आरोप इस विश्लेषण में खारिज होता दिखता है।

इस अध्याय में परिवारः विघटन, विवाह, दहेज प्रथा एवं प्रेम और सेक्स के मुद्दों पर एक नयी नजर से विचार और शोध किया गया है। इसी अध्याय में दलितों से सम्बन्धित (अश्पृर्श्यताः अछूतोद्धार के शीर्षक से) पुनः बड़ा उम्दा विमर्श प्रस्तुत है। प्रेमचन्द्र के कर्मभूमि की मुन्नी जाति से ठाकुर होते हुये भी अछूूत हैं, उग्र जीं के उपन्यास “बुधुआ की बेटी“ की रधिया जाति से दलित-अस्पृर्श्य हैं, लेकिन सेक्स सम्बन्ध के लिये वहीं रधिया हर व्यक्ति को स्वीकार्य है। वृदावन लाल वर्मा के “संगम“ उपन्यास का संपतलार्ल आिर्थक दबावों में अस्पृर्यता के झूठे बंधन तोड़ देता हैं तो “मुजाहिब-जू“ उपन्यास में मुसाहिब-जू रामू यम के दलित युवक को पुत्रवत प्रेम देते है।

उक्त उपन्यासों का विश्लेषण करते वक्त लेचाक की नजर बड़ी निष्पक्ष और नीर-क्षीर विवेचित नजर हैं, जिसके द्वारा लेखक उपन्यासों की कथा में गहरे उतर कर उनके प्रति-पाठ करता हैं और पाता हैं कि हिन्दी में दलित विमर्श नया नहीं है। यह तो स्वतंत्रता पूर्व से हिन्दी उपन्यासों में पूरी गंभीरता से उठता आया है। इस विमर्श में लेखकों की नजर दया या सहानुभूति की नहीं, बल्कि वे अनुभूतियांे को गहरे उतर कर प्रगट करने वाले उपन्यास है। दरअसल उप युग का रचनाकार अपने उपन्यास के समाज, परिवार और माहौल में खुद जाकर निवास करता था और पर्याप्त होम-वर्क व मानसिक-तैयारी के बाद ही कथा लिखने की जुर्रत करता था। इस तरह पुस्तक में प्रस्तुत यह गंभीर-विमर्श साहित्य के नये केन्द्रों को सार्थकता तथा महत्ता देता है।

पांचवे अध्याय “स्वातंत्रय-पूर्व हिन्दी उपन्यासों में नारी“ में भी लेखक बड़ी निष्ठा और तन्मयता से स्त्री-विमर्श की परम्परा की पड़तालें करता नजर आता है। इस विश्लेषण में लेखक क्रम से आगे बढ़ता है। सर्वप्रथम “नारी का परम्परागत स्वरूप“ में ड़ा जगमोहन सिंह के “ठेठ हिन्दी का ठ़ाट“ की देवबाला एक परम्परागत नारी है, जो मन से न चाहते हुये भी रमानाथ के साथ ब्याह करती हैं और ताउम्र उसे अपना स्वामी मानती रहती है। किशाोरीलाल गोस्वामी के उपन्यास “हृदय हारिणी“ में कुसुम कुमारी परम्परागत स्वरूप की स्त्री हैं जो अपने सतीत्व को दुनिया की सबसे बड़ी चीज समझती है। मेहता लज्जाराम वर्मा, गंगाप्रसाद गुप्त के उपन्यासों में भी सभी स्त्री पात्र परम्परागत रूप में आते हैं। होने को प्रेमचंद के यहां भी तमाम पात्र परम्परागत रूप से आये हैं पर लेखक की सहानुभूति तथा सशक्त व प्रभावपूर्ण प्रस्तुति प्रगतिशील स्त्रियों के साथ दिखाई देती है।

स्त्री विमर्श का एक जरूरी हिस्सा “विधवा समस्या“ हैं। स्वातंयपूर्व उपन्यासकारों में किशाोरीलाल गोस्वामी, हरिऔध, मेहता लज्जाराम वर्मा ने विधवाओं के प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई है पर प्रेमचंद्र ने गोदान में झुनिया के माध्यम से विधवाओं की दशा का चित्रण आरम्भ किया तो इस समस्या गहन विश्लेषण किया। विधवा को शोषितों की श्रेणी में खड़ करके पंरेमचंद्र उससे परिवर्तन की उम्मीद प्रगट करते है। “नारी का शोषित स्वरूप“ इस पुस्तक का सबसे गंभर उप-अध्याय हैं इसमें “नारी का शोषण का चित्रण व विरोध करने वाले उपन्यासकारों का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। किशोरीलाल गोस्वामी के उपन्यास “स्वर्गीय कुसुम“ में नारी-शोषण के एक रूप देवदासी-प्रथा का विरोध किया गया हैं साथ ही इस प्रकार के अमानवीय स्वरूप का भी चित्रण किया गया है।

मन्मन द्विवेदी के उपन्यास “रामलाल “ में द्विवेदी ने लिखा हैं जहाँ नारी कष्ट पाती हैं वहां कल्याण नहीं हो सकता हैं (पृष्ठ 23, रामलाल)। प्रेमचंद्र के उपन्यास कर्मभूमि में मुन्नी के शोषण की व्यथा-कथा आई हैं, जहां एक बलात्कृता स्त्री की दुर्दशा का चित्रण हैं। प्रेमचंद्र के ही “रंगभूमि“ में सुभागी के साथ मारपीट करने वाले पति भैरों की हरकतों का वर्णन रोष पैदा करता है। बेचन शर्मा उग्र के “बुधुआ की बेटी“ की रधिया, राधिका रमण सिंह के उपन्यास राम-रहीम, प्रतापनारायण श्रीवास्तव के विकास में राधा, अमरीलिया, माधवी, अनुपकुमारी, जैनेन्द्र कुमार के त्यागपत्र की मृणालं शोषित स्त्रियां हैं जिनके साथ अमानवीय शोषण होता है। उक्त सभी उपन्यासों में कम-ज्यादा विरोध सभी स्त्रियां करती हैं और इसी विरोध में हमको आधुनिक स्त्री-स्वांतत्रय की आरम्भिक रश्मियां भासनाम होती दिखाई देती है।

“परिवर्तित स्थिति“ नामक उप-अध्याय में लेखक स्वांतत्रयपर्व के उपन्यास टटोलकर स्त्री-स्वातंत्रय तथा शोषण -विरोध की महीन सी परम्परा खोजता है। रामजीदास वैश्य के उपन्यास “धोखे की टट्टी“ में सरस्वती की विवाह स्वतंत्रता, प्रेमचंद्र के “प्रतिज्ञा“ की पूर्णा व सुमित्रा द्वारा किया गया शोषण विरोध, उग्र के “बुधुआ की बेटी“ की रधिया द्वारा शोषण का बदला लेने की संकल्पना, जयश्ंाकर प्रसाद के तितली की तितली व शैला की शोषण के विरूद्ध अभिव्यक्ति यह प्रकट करती हैं कि उस युग से ही नारी शोषण की स्थिति का विरोध करके परिवर्तन चाहने लगी थी और आंशिक रूप से सफलता भी प्राप्त करले लगी थी।

“ स्त्री शिक्षा“ जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को एक अलग उप-अध्याय में लेखक ने विश्लेषित किया है। कृष्णलाल वर्मा ने चंपा में, मन्मन द्विवेदी ने रामलाल में प्रेमचंद्र के सेवा सदन में, प्रतापनारायण श्रीवास्तव ने विदा में, इलाचंद जोशी ने इलामें, भगवतीचरण वर्मा ने तीन वर्ष में, यशपाल ने पार्टी कामरेड़ में स्त्री शिक्षा का भरपूर समर्थन दिया है। इसके लिये ये सब लेखक बड़ा सूक्ष्म विश्लेषण भी करते दिखते है। इस तरह स्त्रियों को शिक्षित-जागरूक करने के प्रति हिन्दी उपन्यास हमेशा से अभिलाषी रहे है।

“अनमेल विवाह“ स्त्रियों के जीवन की ऐसी त्रासदी हैं जिसके कारण वे सदैव पीड़ित रही है। लेखक ने इस शीर्षक के उप-खंड में उपन्यासकारों के विचारों का विश्लेषण किया है। किशोरीलाल गोस्वामी के.........में चपला का ब्याह, कृष्णलाल वर्मा के चंपा में सुनहरी का ब्याह, प्रेमचंद के निर्मला में निर्मला का ब्याह, प्रेमचंद्र के ही गबन में निर्मला का ब्याह अनमेल ब्याह के रूप में आता हैं और अनमेल ब्याह के परिणामों पर विस्तृत विमर्श होता है।

स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता पर भी लेंखक ने खूब विचार किया है। प्रेमचंद के उपन्यास प्रतिज्ञा में सुमित्रा, गबन में रतना, कर्मभूमि में सुखदा व सकीना में आत्मनिर्भरता बनने की इच्छा शक्ति पैदा करके प्रेमचंद्र यह प्रकट करते हैं कि स्त्रियों को आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर होना जरूरी है।

इस तरह स्त्री से जुड़ें सारे मुद्दों पर लेखक ने खूब पड़ताल की हैं, और पाठक देखता है कि स्त्री विमर्श की परम्परा भी हिन्दी में स्वतंत्रतापूर्व के उपन्यासों में विद्यमान है।

इस पुस्तक में अन्य अध्यायों में उपन्यास का समाजशास्त्र, स्वातंत्रयपूर्व भारत का परिवेश, स्वातंत्रयपूर्व हिन्दी उपन्यास, स्वातंत्रयपूर्व हिन्दी उपन्यासों में सास्कृतिक चेतना तथा स्वातंत्रयपूर्व हिन्दी उपन्यासों में समाज का आर्थिक, राजनैतिक रूवरूप आदि शीर्षकों से स्वातंत्रयपूर्व के हिन्दी उपन्यासों को खंगालते हुये लेखक ने लगभग सभी पक्षों का बड़ा सूक्ष्म और गम्भीर विश्लेषण किया है।

पुस्तक का आकार बड़ा हैं जो विषय की गम्भीरता के हिसाब से जरूरी भी था। भाषा के लिहाज से यह पुस्तक ज्यादा उपयोगी हैं, क्योंकि इस तरह की किताबें प्रायः बोझल भाषा, रूढ़ दृष्टि व जड़ मानसिकता के कारण अपठनीय बनकर रह जाती है। यह पुस्तक खूब पठनीय है।

हिन्दी के शोध छात्र, विद्वान और आलोचक इस पुस्तक का स्वागत करेंगे।

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पुस्तक-हिन्दी उपन्यास और समाज

प्रकाशक-अरावली पब्लिकेशन, दिल्ली

लेखक-ओमप्रकाश शर्मा