Mere bhai ki shahadat in Hindi Short Stories by Manju Mahima books and stories PDF | मेरे भाई की शहादत

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मेरे भाई की शहादत

एक दिन की बात है, मैं अपने आँगन में चहलकदमी कर रहा था कि मेरा बेटा आया और कहने लगा, “ पापा आँगन में लगा यह नीम काफी बेतरतीबी से फ़ैल रहा है, इसके नीचे भी कितना कचरा इकट्ठा होगया है, सूखे पत्ते, निम्बोलियों का ढेर लगा हुआ है. पेड़ के नीचे बैठ भी नहीं सकते, पेड़ पर बैठे, ये पक्षी, बीट करते रहते हैं. सारा आँगन गंदा किया हुआ इन्होंने ..कब तक कोई इसकी सफ़ाई करता रहे? आजकल पैसा देते हुए भी सफ़ाई वाले नहीं मिलते.” मैंने उसकी बात के रुख आ अंदाज़ लगाते हुए पूछा, ‘आखिर तुम चाहते क्या हो?’
‘पापा! बीचों-बीच खड़ा है यह, जगह भी इतनी रोकी हुई है, न हम इधर कमरा बना सकते हैं, न ही उधर..अब घर छोटा पड़ने लगा है, एक कमरा तो और होना चाहिए..बच्चे भी बड़े हो रहे हैं...’
मैं सोच में पड़ गया, बढ़ती हुई गृहस्थी, बच्चों की महत्वाकांक्षाएं..इधर बेटा बोले जा रहा था...”बैठक का कमरा भी छोटा पड़ता है, चार लोग आजाएं तो, बैठने की जगह ही कहाँ है? इसे आगे बढ़ाने की सोच रहा हूँ ... पर यह पेड़ आड़े आता है..वैसे भी पापा, किस काम का यह कड़वे नीम का यह पेड़? फल भी कड़वे, पक्षी भी कौवे ही..आप कहें तो हटवा दें इसे?”
मैंने अनमने मन से कहा, ‘ भई, बरसों से लगा है, हमारे परिवार का सदस्य रहा है. कड़वा है तो क्या? ऑक्सिजन तो दे ही रहा है. हमारी दूषित वायु तो सोख ही रहा है. हमें स्वस्थ रखता है, गर्मियों में पंखा तो झलता है. छाया देता है.’
यह सुनकर बेटा हँसा, उसे अब मेरी बातें बचकानी लग रही थीं. कहने लगा,
‘ व्यावहारिक बनिए बाबूजी,’ हार कर बेमन से कह बैठा, ‘जो उचित लगे करो.’ और कमरे में चला गया.
दूसरे दिन देखा, बेटा कुछ लोगों को ले आया और वे घूम-घूमकर पेड़ को ठोक बजाकर देखने लगे. कहने लगे, पुराना पेड़ है, आसानी से नहीं कटेगा,जड़ें भी दूर तक गईं हैं, ध्यान से काटना होगा, क्या पता घर के नीचे तक गईं होंगी तो घर ढह भी सकता है.’

मुझे सुनकर राहत हुई, सोचा बेटा अब इरादा ज़रूर बदल देगा..
बेटे ने सीधे पूछा, ‘ हूँ, ऐसा कुछ नहीं होगा, तुम्हें बुलाया किसलिए है? मैं कुछ नहीं जानता, तुम बताओ कि कितना लोगे?’
काटने वाले ने कहा, ‘ यह काम जंगलात वालों से बचकर करना होगा, रात के अँधेरे में..मशीन लाकर काटना होगा, कम से कम 15 सौ लगेगा. बहुत ‘रिसक’ (रिस्क) है बाबू, पुलिस में भी जाना पड़ सकता है.’ मैं घबराया, बेटे से कहने लगा, ‘ देखो बेटा, एक मंज़िल ऊपर चढ़वा लो, इसे यूं ही रहने दो...’
‘नहीं पापा, सारा ‘शो’ खराब कर रहा है यह पेड़ घर का...इसे तो कटवाना ही बेहतर होगा.’ फिर घूमकर मज़दूरों से कहने लगा, अच्छा, एक हज़ार में बात ख़तम करते हैं, सुनकर मुझे चौंकता देख, पास आकर धीरे से कहने लगा, ‘ नहीं बाबूजी, आजकल सरकार काटने नहीं देती, आप तो पढ़े-लिखे हैं, जानते हैं सब..’ फिर बेटे ने तुरुप का इक्का चलते हुए कहा, “ अरे! भई, इतनी लकड़ी भी तो तुम्हें मिल रही है, इतना घना पेड़ है,...चलो-चलो..ठीक ठीक बोल दो ”
मजदूर कहने लगा, “ यह ठीक ही है, बाबू, लकड़ी चाहे आप रख लेना हमारा तो गाड़ी भाड़ा बचेगा, पर इसमें बड़ा रिसक है, मशीन भी घंटे के हिसाब से मिलती है, चलिए आप 12 सौ दे देना, और क्या कहूँ..” बेटा तो अपना मानस बना ही चुका था, कहने लगा ठीक है, पर साफ़-सफ़ाई पूरी करके जाना.” हाँ में अपनी गर्दन हिलाता हुआ मज़दूर चला गया..
मैं मन मसोस अपने कमरे में चला गया, अपनी अशक्तता पर मुझे बहुत ग्लानि भी हो रही थी, पर इस उम्र में बेटे-बहू से बिगाड़ भी नहीं किया जा सकता, हाँ, नीमा होती तो बात कुछ और होती..अपने आपको टूटे पत्ते सा महसूस कर रहा था. बैचेन हो पोथी निकाली और बांचने बैठा, पर मन तो पखेरू ठहरा , फडफडा कर जा बैठा अतीत की मुंडेर पर...
“माँ ! माँ! देखो तो ..”
“अरे! यह चोट कैसे लगी? ओह! कितना खून बह रहा है, ठहर..” और माँ दौड़कर गई रसोई में ज़रा सा हल्दी पाउडर लाई और भर दिया मेरे घाव पर फिर इसी पेड़ के नीचे मुझे बिठा, इसकी कुछ पत्तियां तोड़ीं और धोकर जल्दी-जल्दी पीस लाई और लेप लगाकर मेरी चोट पर पट्टी बाँध दी. सच कहता हूँ, इतनी ठंडक मिली ना मुझे कि मैं चोट का दर्द ही भूल गया. ऐसे न जाने कितने ही उपचार और उपयोग माँ इस नीम की पत्तियों से करती रहती थी. उन्हें पूरा विश्वास रहता था इसका, जैसे यह पेड़ ना हो कोई डॉक्टर हो. बरसात के बाद जब वे इसकी एक बच्चे के बालों की तरह कटाई-छटाई करवाती और इसके पत्तों और डालियों को छत पर सूखने डाल देती, मैं अक्सर माँ पर नाराज़ होता क्योंकि मुझे गुनगुनी धूप का मज़ा लेते हुए पढ़ने में ख़ास मज़ा आता था, और वे थीं कि पूरी छत पर बैठने की जगह ही नहीं छोड़तीं. वे कहतीं कि इनका सूखना भी ज़रूरी है मुझे कुर्सी लगाकर कोने में बैठने के लिए कह देतीं.

पत्तियां सूख जाने के बाद एक बड़े डिब्बे में भरकर मुझे ही छत से नीचे ले जाना होता था. रोज़ शाम को, जब हम खेलने के लिए और हमारे बाबूजी टहलने के लिए बाहर होते थे, तभी वे इन सूखी पत्तियों का धुंआ कमरों में कर दिया करती थीं, जिससे मच्छर भाग जाएं और हम रात को आराम से सो सकें..नीम की पतली डालियों से बाबूजी सबके लिए दतुन (मंजन के लिए लकड़ी) बना लेते और मोटी डालियाँ माँ के अंगीठी जलाने के काम आ जातीं.
बाहर से आ रही आवाजों ने मेरा ध्यान भंग किया..ख़ट-ख़ट की आवाज़ सुन खिड़की से झाँका, देखा कुछ लोग पेड़ पर चढ़ उसकी डालियाँ काट रहे हैं, मुझे लगा कि जैसे मेरे ही हाथ कट रहे हैं, मैंने कहा कि यह क्या तुम लोग अभी शाम को कैसे आ गए?” वे बोले, “ अभी तो साहब केवल डालियाँ ही काट रहे हैं, मोहल्ले वालों को शक नहीं हो, इसलिए..” उनकी इस बात ने मुझे हिला दिया. खिड़की बंदकर मैं फिर अपनी पोथी ले बैठा और प्रार्थना करने लगा कि हे! प्रभु, इन्हें सद्बुद्धि देना, किसी तरह इस पेड़ का कटना बच जाए..
माँ बताती थीं कि जिस वर्ष मैं पैदा हुआ था, उसी वर्ष मेरे होने की खुशी में दादाजी ने यह पेड़ लगाया था, यानी कि मेरा हमउम्र है यह पेड़ ..मेरा सखा, भाई..कितना खेलते थे हम इसके चारों ओर दौड़-पकड़..पेड़ पर चढ़ना, डालियाँ पकड़ कर झूलना, ऊपर से कूदना तो हमारे लिए नियमित व्यायाम के समान ही था. गर्मियों की दोपहरी में हमारी चांडाल-चौकड़ी इसी की शरण में सोती–जागती, चंगा-पौ खेलती रहती थी, इसकी हवा उस समय हमें किसी ए.सी. से कम नहीं लगती थी. कड़वे पेड़ की मीठी यादों ने मुझे इस कदर आगोश में लिया कि मैं कुर्सी पर ही रात भर बैठा सोता रह गया..
अचानक मजदूर की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूटी, वह खिडकी से झाँक कर फुसफुसा रहा था, “ज़रा एक बार देख लीजिए सा., छोटे बाबू को भी दिखा दीजिए..पौ फटने वाली है, हम जा रहे हैं...मजदूरी लेने बाद में आ जाएंगे...” रात भर ठीक से न सो पाने के कारण मैं उठ नहीं पाया..खिडकी से अपनी बात कहकर मज़दूर चला गया. मैं अपने पलंग पर जाकर सो गया.

सुबह आँगन से आ रही तरह-तरह की आवाजों से मैं अचकचा कर उठ बैठा और आँखें मसलता हुआ बाहर निकला पर जैसे ही दरवाज़ा खोला एक तेज़ रोशनी आँखों से टकराई और सिर चकरा गया, अपने को संभाल पाता इतने में बेटे ने आकर मुझे थाम लिया, ‘बाबूजी! आप ठीक तो हैं ना!...’

बेहोश सी हालत में मुझे बिस्तर में लिटाया गया, अडोस-पड़ोस के लोग मेरे आस-पास जमा हो गए थे. बेटा, उनसे कह रहा था, देखा आपने, बाबूजी भी अचानक पेड़ को ना पाकर कैसे बेहोश हो गए..पता नहीं रात को कौन आकर काट कर ले गया? इतना पुराना पेड़ था. मैंने तो कटाई-छटाई के लिए ही आदमी बुलाया था. वह तो चला भी गया था.
सभी अपने अपने तरीके से सहानुभूति, आश्चर्य, चिंता जताते रहे, मैं बेबस सा आँखें मूंदे पडा रहा, बेटा रोनी सूरत बनाकर बैठा रहा, पूरा मातम-पुरसी का वातावरण बना हुआ था. कुछ लोग पुलिस में शिकायत दर्ज करवाने की सलाह दे रहे थे तो कोई कह रहे थे कि कोई फायदा नहीं..मुझे लेटे-लेटे बड़ी कोफ़्त हो रही थी.

मैं अपने आपको महाभारत के भीष्म की ही तरह विवश पा रहा था, जो अपने ही प्रिय के कर्म-बाणों की शर-शय्या पर लेटा अपने को कोस रहा था और शहीद हुए अपने साथी भाई नीम को याद कर-करके दिल छलनी हो रहा था.
धीरे-धीरे लोगों ने अपने घर का रुख करना शुरू किया, कुछ जाते जाते सहानुभूति वश कह गए कि पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवानी हो तो बताना, हम गवाही के लिए आ जाएंगे...बेटा सिर हिला-हिलाकर हाथ जोड़ते हुए सबको विदा कर ने लगा. सबके चले जाने के बाद सारा परिवार मेरे पास इकट्ठा हो गया, बहू मुझे नीबू पानी देते हुए कहने लगी, देखिए बाबूजी, कितना खुला-खुला लग रहा है ना, अपना आँगन!!! घर में भी रोशनी भरपूर हो गई है..
मुझे लगा जैसे मैं नीबूपानी नहीं नीम का ही शरबत पी रहा हूँ...मेरा भाई मेरे परिवार के लिए आज शहीद हो गया है...बहुत सेवा की है उसने हमारी, पर ये आधुनिक सोच वाले लोग उसकी सेवाओं को भला कैसे समझ पाएंगे..ये लोग तो भावनाओं की नहीं पैसों की भाषा ही समझते हैं..कुछ देर में मुझे कुछ स्वस्थ देख सब मेरे कमरे से चले गए..बाहर जाकर उनकी योजनाएं शुरू होगईं..मेरे सिवा घर में सभी खुश लग रहे थे.
मैं भी अपने को हालातों के अनुसार समझाने की कोशिश कर ही रहा था कि मेरी पोती ने मुझे अखबार लाकर दिया, “दादाजी आपका अखबार’ घर में एक मैं ही हूँ, जो अखबार पढ़ता हूँ, अन्य सभी टीवी ही देख खुश होते रहते हैं.
मैं अखबार पढ़कर अपना ध्यान इस घटना से हटाने की कोशिश करने लगा, तभी मेरी निगाह एक विज्ञप्ति पर पड़ी, एक विदेशी कंपनी ने शोधपूर्ण अध्ययन से यह पाया है कि नीम में सर्वाधिक औषधीय गुण हैं, अत: उन्होंने नीम का पेटेंट ले लिया है और जनता से गुजारिश की है कि जिन-जिन के यहाँ नीम के पेड़ हैं, उनको उसके संरक्षण के लिए वे 12 हज़ार रूपए प्रति वर्ष देने को तैयार हैं, शर्त यही है कि वे लोग समय-समय पर आकर उसकी निम्बोलियाँ और पत्तियाँ और डालियाँ ले जाया करेंगे.

ओह! पता नहीं कैसे मुझमें स्फूर्ति आ गई और अखबार की यह खबर अपने बेटे को जाकर दिखाई..अब खुश होने की बारी मेरी थी.... एक कमाऊ सदस्य के चले जाने का अहसास अब तो इन्हें सालेगा ही. ...उन लोगों के चेहरे पर चौंंकने के और खेद के मिले जुलेे भाव देेेेखने जैसे थे...

दूसरे दिन अपनी पोती के हाथों में नीम की कलम देख मैं समझ गया...मेरे भाई की शहादत अब व्यर्थ नहीं जाएगी.
--मंजु महिमा