लल्लन ने गौरीबदन संग उठना-बैठना तेज कर दिया था ठीक इसी तरह पंकज की नाहर सिंह के साथ नजदीकियाँ बढ़ने लगीं।राजनीति में स्थायी दोस्त और दुश्मन कोई नही होता।गौरीबदन का लल्लन को साथ लेना अकारण नही था।गौरी ने तीन दशकों तक राजनीति की थी सो वह गांव की आबो-हवा को बहुत अच्छे से जानते-समझते थे।पिछले चुनावों में भी गौरी को शुकुल के हाथों लल्लन की दुर्गति पहले से पता थी।वह जानते थे कि शुकुल उसका इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन तब भी यदि उन्होंने इसकी भनक लल्लन को नही लगने दी तो इसके पीछे भी कारण था। गौरीबदन को पता था कि उनकी टक्कर पंकज से है।और लल्लन सिर्फ पंकज के वोट काटेगा।क्योंकि ठाकुर बिरादरी गौरीबदन के रहते लल्लन को वोट देगी नही ।हाँ, पंकज की तरफ झुक सकती थी।पंकज उस समय उठान में थे,पूरे गांव में तूती बोलती थी। पंकज वकालत करने के साथ ही जन समस्याओं को भी सुलझाने में लगे थे इसलिए उनकी पकड़ घर-घर तक हो चुकी थी जबकि गौरीबदन के पास चुनाव जीतने के लिए कूटनीति, पैसा और जोड़-तोड़ के सिवा कुछ खास नही था।
#लम्हों_ने_खता_की_सदियों_ने_सजा_पाई
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शुकुल इन दोनों से ही खुन्नस रखते थे।गौरीबदन से कम जबकि पंकज से ज्यादा।पंकज उन्ही के पड़ोस से था। स्वाभाविक था कि एक पड़ोसी होने के नाते शुकुल ईर्ष्यावश पंकज को जीतता हुआ नही देखना चाहते थे।यह तो ऊपरी कारण था जबकि वास्तव में बात कुछ और थी।दरअसल आज के कुछ बरस पहले शुकुल की बेटी और पंकज का प्रेम-प्रसंग जगतपुरा की फिजाओं में खूब तैरा,फला-फूला और बदनाम हुआ।आमने-सामने घर होने से आंखों ने खता कर दी थी ।जब तक शुकुल जान पाते तब तक खता इश्क में तब्दील हो गयी।अब बेचारे शुकुल करते भी तो क्या!! शुकुल अपने को 3 घर वाला जबकि पंकज को 13 घर वाला मानते थे सो सम्बंध उचित न समझते थे।हो-हल्ला करते तो उन्ही की फजीहत होती, जाति जाने का भी खतरा था सो किसी तरह दौड़-भाग कर बेटी की शादी तय कर बारात उठवा दी।पंकज भी जानते थे कि दोनो के शुक्ल होने से शादी तो होने से रही सो वह भी तक़दीर के हाथों लाचार हो हथियार डाल दिये। हां इतना जरूर किया कि शादी वाले दिन शराब पीकर खूब हो-हल्ला मचाया।बाराती भले न जानते हों लेकिन जनातियों को पता था कि पंकज आज क्यों देवदास बने हुए हैं।बाद में खबर तो यहां तक आयी कि शुकुल के दामाद को पंकज और शुकुल की बेटी का अतीत पता चल गया था। दूल्हा बिदक रहा था।शुकुल ने उसके पैरों पर अलग से 20 हजार रुपए और अपनी पगड़ी रख इज्जत बचा लेने की भीख मांगी तब जाकर फेरे निपटे। वो दिन था कि फिर आज का शुकुल की आंखों में पंकज खटकते ही रहे।करीब 15 साल पहले की यह बात शुकुल अब भी भुला नही पाए थे।शुकुल के मन मे पंकज के प्रति जो गिरह पड़ गयी वह अब भी सुलझ नही पाई थी।
इधर पंकज ने भी सही राह पकड़ी और शहर जाकर LLB करने लगे।LLB पास करते ही वकालत में हाथ आजमाने लगे तो प्रेम,मोहब्बत सब भूल-भुला दिया गया।वकालत चमकी तो इज्जत मिलनी शुरू हुई।कचहरी में कम जबकि गांव में ज्यादा।इज्जत अपने साथ पद की आकांक्षा भी लाती है सो पंकज ने बार एसोसिएशन के चुनावों में महामंत्री पद के लिए नामांकन करा दिया।कचहरी में उनकी गुडविल अच्छी थी सो ज्यादा उन्हें मेहनत नही करनी पड़ी और वह चुनाव जीत गए।उसी समय पंचायत चुनावों का बिगुल फुंका तो युवा पंकज की उम्मीदें भी जवान हो उठीं और जोश में ही उन्होंने प्रधान पद के लिए उम्मीदवारी ठोक दी थी।यदि शुकुल ने खेल न बिगाड़ा होता तो बेशक पंकज शुक्ला आज जगतपुरा के ग्राम प्रधान होते।
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अगले चुनावों में 1 वर्ष से भी कम का समय बचा था।सम्भावित प्रत्याशी फिर से कुलबुलाने लगे थे।लल्लन ने भी दौड़-धूप तेज कर दी।उसने दुदाही को जन-संवाद का जरिया बनाया।वाक-कौशल में निपुण लल्लन सभी से सभी तरह की बातें कर लेता था इसलिए उसे लोगों से हिलने-मिलने में ज्यादा समय न लगता।जैसे वाक-कला में पारंगत कोई ज्योतिषी जजमानों से बातें करके उनकी स्थिति की थाह ले लेता है,वैसे ही लल्लन ने सबकी समस्याएं जाननी-समझनी शुरू कीं।बातें करते समय लल्लन समझ गया कि गांव में जितनी बाहर से समस्याएं दिखती हैं, अंदर से उनका आकार बहुत बड़ा है।निर्वाचित प्रधान सिर्फ नाली,खड़ंजा, शौचालय, आवास को ही विकास का नाम देकर 5 वर्ष ऐसे ही निकाल देते हैं जबकि जागरूकता के अभाव में न जाने कितनी योजनाएं लोगों तक पहुंच ही नही पातीं।उसे एक कटु अनुभव ये भी हुआ कि गांव में ज्यादातर उम्मीदवार गांव का विकास करने के लिए चुनाव में खड़े ही नही होते।या तो मूंछ की लड़ाई या फिर खुद का विकास करने के लिए लोग पर्चा भर आते हैं।कुछेक ऐसे भी हैं जो इस वजह से नामांकन करवा आते हैं ताकि उनका विरोधी न जीत पाए।
लल्लन को महसूस हुआ कि औरों की भांति क्या वो खुद ही चुनावों में यूं ही नही खड़ा हो गया था?सिर्फ इसलिए कि वह प्रधान बन जाये?लोगों पर अपना रौब गांठ सके?उसकी इज्जत हो?लेकिन उसे इससे क्या हासिल होगा?यह मेरा गांव है, इसी में पैदा हुआ,इन्ही लोगों के बीच पला-बढ़ा, इन्ही से वोट लेकर यदि इनके लिए कुछ न कर सका, बदले में 5 साल अपनी शानो-शौकत इन्ही को दिखाता रहा तो मेरी अंतरात्मा मुझे माफ़ न कर सकेगी।मुझे इन्ही लोगो के बीच रहना है।भले ही प्रधान बन जाऊं,5 साल किसी से सीधे मुंह बात न करूं,धरती पर पैर न रखूं, दिनभर आसमान में उड़ता फिरूँ लेकिन तब भी रहूंगा तो इंसान ही।और इंसान चाहे जितनी काबिलीयत रख ले,चाहे जितने बड़े ओहदे तक पहुंच जाए ,चाहे जितने दिन आसमान में रह ले एक न एक दिन उसे जमीन में आना ही पड़ता है।और
लल्लन बखूबी जानता था कि आसमान में घर नही होते।
लल्लन को अब समझ आया कि गांव इतना पिछड़ा क्यों है?एक ही समस्या 10-15 साल तक क्यों बनी रहती है?नया कुछ क्यों नही हो पाता?प्रधानों का कोई ड्रीम प्रोजेक्ट क्यों नही होता?
लल्लन सारी चीजों का अनुभव तो कर रहा था लेकिन एक समस्या उसके सामने मुंह बाए खड़ी थी-उसकी अनपढ़ होने की समस्या। वह लोगों के भरोसे पर खरा उतरना चाहता था।क्या होगा अगर वह चुनाव जीत जाए लेकिन जागरूकता के अभाव में अपेक्षित विकास न कर पाए? वह जितना इस बारे में सोचता उलझता ही जाता।
'देखा जाएगा' वह यह खुद से कहकर हाल-फिलहाल इस प्रश्न से पीछा छुड़ा लेता।लेकिन जीवन मे जिन प्रश्नों को हम टालते हैं वह एक दिन और बड़े रूप में सामने आ खड़े होते हैं।
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जगतपुरा में हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी "जवाहर सांस्कृतिक नृत्य महोत्सव" का आयोजन होना था ।कहने को यह सांस्कृतिक महोत्सव था लेकिन सच्चाई ये थी कि लोग भाड़े पर आई नर्तकियों का नृत्य कौशल देखने आते थे। महोत्सव कमेटी ने चन्दा वसूलकर सर्दियों की एक शाम आयोजन तय किया।नियत तिथि के दिन तैयारियां जोरों शोरों से शुरू हो गईं,भव्य पंडाल सजाया गया।गांव के छोटे छोटे बच्चों से लेकर युवा और अधेड़ों तक मे नव रक्त प्रवाहित होने लगा था।सभी उत्साहित थे।कोई फूल लाने दौड़ता था तो कोई तख्त उठाये चला आ रहा था।कोई टेंट वाले को घुड़की देता था तो कोई मन ही मन यह विचारने में लगा हुआ था कि कमी कहाँ रह गयी।
शाम का अंधेरा घिरने से पहले ही आयोजन स्थल दूधिया रोशनी से जगमगा उठा। जगह- जगह पर लगे बड़े बड़े साउंड सिस्टम पर मनहर उधास के नगमे बज रहे थे।भीड़ धीरे धीरे इकट्ठा होने लगी।बच्चे प्रसन्नता के अतिरेक में एक जगह न बैठते थे।महिलाओं के लिए अलग बैठक व्यवस्था थी तो पुरुषों के लिए अलग।
कार्यक्रम की शुरुआत रात 9 बजे हुई जब नाहर सिंह ने फीता काटकर शुभारंभ किया।पिछले वर्ष गौरीबदन सिंह ने 5100 ₹ देकर फीता काटा था।कमेटी जानती थी इस वर्ष नाहर सिंह उठान में हैं चूंकि चुनाव भी हैं सो सहयोग राशि इन्ही से ज्यादा मिल सकती थी।मिली भी।नाहर सिंह ने गौरीबदन को जलाते हुए 11000₹ आरती की थाली में रखे तो आयोजकों की बांछे खिल उठीं।बाद में नाहर ने छोटा सा भाषण भी दिया और मंच से नीचे उतर आये।गौरीबदन आज की रात गांव में नही थे,कारण चाहे जो भी हो लेकिन वह आयोजन स्थल में जाना नही चाहते थे। यह अलग बात कि उन्होंने सारी तैयारी पहले ही कर रखी थी 15000₹ की गड्डी उन्होंने लल्लन को पहले ही थमा दी थी।यह उनका 1 तीर से 2 शिकार करना था।गौरीबदन ने महसूस कर लिया था कि गांव में बह रही हवा इस वक्त उनके अनुकूल नही है।चूंकि वह प्रासंगिक बने रहना चाहते थे सो उन्होंने लल्लन पर दांव खेल दिया था, लल्लन जो अब राजनीति की समझ रखने लगा था गौरीबदन की इस चाल से अनजान नही था।
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लल्लन गौरीबदन के दिये हुए रुपये लेकर स्टेज पर चढ़ गया।सफेद कुर्ता-पायजामे में ऊपर से लाल सदरी पहने लल्लन झक्क नेता लग रहा था।जैसे ही लल्लन द्वारा 21000₹ देने का अनाउंस कमेटी कोषाध्यक्ष ने किया तालियों की गड़गड़ाहट से आयोजन स्थल गूंज उठा।अब सारी आंखे लल्लन को आदरभाव से देख रही थीं।नाहर सिंह पराजय मिश्रित भाव लिए बगलें झांकने लगे जबकि शुकुल की आंखे पहले फैलीं फिर कुछ सोचने की मुद्रा में सिकुड़ गयीं।उनकी विशेष इंद्रियों ने कुछ गड़बड़ होने की सूचना उनके चपल दिमाग को भेज दी थी।
चूंकि लल्लन को भाषण देना आता नही था।एक-दो लोगों के साथ बतियाना और हजारों लोगों की भीड़ में भाषण देने में जो फर्क है लल्लन वह महसूस कर रहा था।कदाचित यह उसके जीवन मे पहला मौका था जब वह इतने लोगों के बीच भाषण देने के लिए खड़ा हुआ था।चूंकि कुछ न कुछ कहना था सो उसने झिझकते हुए माइक थाम लिया।
भाइयों और बहनों,
"बड़े भाग मानुष तन पावा"लल्लन को चौपाई जितनी आती थी उसी से शुरुआत की।
"आज आप सबके सामने मुझे खड़े होने का जो सौभाग्य मिला है उससे दिल गार्डेन गार्डेन हुआ जाता है।इत्ती जोर से सबने हमारे लिए ताली बजायी ओसे हमार छाती चौड़ी हुई गे है ।भाइयों,आज की शाम का दबा के मजा लेव।लल्लन ने कहा और नजर घुमाकर उस ओर देखा जिस ओर नर्तकियां सज-धज रहीं थीं।जनता खासकर युवा वर्ग ने लल्लन का मन्तव्य समझा और जोरों से तालियां बजायीं।युवावस्था को प्राप्त लड़के लल्लन को अधिक उत्साह से सुन रहे थे।
"यारों,कुछ महीने बाद चुनाव आने वाले हैं, पहिले ते बता दे रहेन, ई बार हम फिर ते खड़े हुई रहेन।ई बार धोखा न देहो,फुल विकास करवावब।"जनता ने तालियों से हौसलाअफजाई की।
"अउर अंत मा, बस इत्ता कहो चाहत हन कि मुर्गा-दारू जो खवावै हौंक के खा पी लेहो लेकिन बोट वही का देहो जेखा तुम्हार आत्मा इजाजत दे,जो लागै कि 5 साल बिकास करवइ,समझेव न!!बाकी जय रामजी की।"लल्लन ने हाथ जोड़े,मंच के पैर छुए और नीचे उतर आया।जनता खासकर युवा वर्ग ने उसे हाथों हाथ लिया था।
लल्लन के बाद वर्तमान प्रधान छेदू मंच पर चढ़े और 5100₹ देकर आरती उतारी।उन्होंने उतने ही शब्द भाषण में कहे जितना शुकुल ने सिखाया था।
छेदू के बाद पंकज शुक्ला आहिस्ते से मंच पर आए।वह सफेद शर्ट और नीली जीन्स के ऊपर वकालत वाला काला कोट पहने हुए थे।उनके मंच पर आते ही जनता शांत हो गयी।पंकज ने 1100 ₹ देकर आरती की।प्रांगण में खुसर-पुसर चालू हो गयी।पंकज ने माइक पकड़ा और कहना शुरू किया-
दोस्तों,
ये मेरा सौभाग्य है कि आज मैं आप लोगों के सामने खड़ा हूँ।इसे किसी नेता का भाषण न समझें।मैं कोई नेता नही हूँ,न ही मुझे भाषण देना आता है।बस मैं अपनी बात आपसे कहने के लिए यहां आया हूँ।गांव में चुनावों के समय जो होता है वह ठीक नही है।प्रधानी के चुनाव आते हैं तो सबके दिमाग मे कीड़ा कुलबुलाने लगता है।जिसे देखो बस चुनाव लड़ना चाहता है, प्रधान बनना चाहता है।पूछो किसलिए? नही बता पाएंगे।
प्रधानी के चुनाव ग्राम पंचायत के विकास के लिए लड़े जाते हैं लेकिन दुर्भाग्य है कि लोग इसे नाक की लड़ाई समझकर लड़ते हैं।कई लोग अपना व्यवहार आजमाने के लिए चुनाव में खड़े होते हैं। मानो प्रधानी का चुनाव अपनी इज्जत मापने का कोई थर्मामीटर हो।जानते हो इसमे सबसे ज्यादा नुकसान किसका होता है?
(भीड़ शांत थी।किसी ने जवाब नही दिया)
पंकज ने आगे कहा-इस गांव का।हमारी ठरक और सनक का सबसे ज्यादा नुकसान ये गांव झेलता है।कोई ईमानदार उम्मीदवार आ ही नही पाता।पूरे 5 साल हम एक होकर रहते हैं,सबके सुख-दुख में हाथ बंटाते हैं लेकिन चुनाव आते ही कोई ठाकुर हो जाता है तो कोई पंडित,कोई कुर्मी हो जाता है तो कोई मुसलमान।जब हम आपस मे बंट जाते हैं तो जाति के ठेकेदारों के हाथों की कठपुतली हो जाते हैं।(पंकज ने एक क्षण शुकुल की ओर देखा)
फिर वो जैसा चाहते हैं वैसा हमे नचाते हैं।यहां विकास के नाम पर 2-4 जगह नाली,खड़ंजा बनवाकर 5 साल निकाल दिए जाते हैं।हमे पता ही नही चल पाता कि ग्राम पंचायतों में न जाने कितनी योजनाएं आती हैं और जागरूकता के अभाव में वापस लौट जातीं हैं।आप बताओ पंचायत भवन में 5 साल में गांव के विकास के लिए कितनी बार बैठकें हुईं?
(भीड़ निःशब्द थी,किसी के पास कोई जवाब नही था)
दोस्तों!!यदि हमने ग्राम पंचायत के चुनावों को आपसी खुन्नस निकालने का जरिया मान लिया तो हमारी स्थिति सुधरने वाली नही है।कोई दारू-मुर्गा खिला-पिला के आपका वोट लेकर चुनाव जीत जाएगा और 5 साल अपना पेट भरेगा।जिसे मन हो उसे शौचालय देगा जिसे मन हो उसे आवास देगा।चूंकि दारू-मुर्गा खाकर, पैसे लेकर आप पहले ही उसके हाथों बिक चुके हो सो अपना हक मांग नही पाओगे।और मांगोगे भी तो वो देगा नही।
कभी सोचा है आपने कि जो व्यक्ति चुनाव में इतना पैसा खर्च करता है वह अपनी भरपाई कैसे करेगा?
(भीड़ निशब्द थी)
सीधी सी बात है, जीतने पर वह आपके हक की योजनाएं खाकर अपनी भरपाई करेगा...वो भी पूरे 5 साल।और आपके हाथ मे कुछ भी नही होगा सिवाय एक चीज के।जानते हो वह चीज क्या है?पंकज ने भीड़ की ओर देखा-
(लोग असमंजस में एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे।)
नही पता?? मैं बताता हूँ...
"घन्टा" जी हाँ, यही एक चीज मिलेगी आपको।बजाते रहो पूरे 5 साल।अपनी जाति का घन्टा,अपने धर्म का घन्टा।करते रहो जय-जयकार।डूबे रहो जाति के नशे में।वह 5 साल पूरे ऐश से बिना किसी के दबाव के घूमेगा।तुम छाती चौड़ी किये घूमते रहना कि देखो हमारी जाति का प्रधान जा रहा है।जबकि वो तुम्हारी तरफ देखेगा तक नही।
मैं आपसे पूछता हूँ, अगर आपकी जाति का उम्मीदवार जीत जाएगा तो उससे आपको क्या मिल जाएगा??(प्रांगण में मुर्दा शांति छा गई थी)
इसीलिए मेरी आपसे अपील है कि वोट उसे देना जो शिक्षित हो और लगे कि ये ग्राम पंचायत को आगे ले जाएगा और खूब काम करवाएगा।यदि वोट देते समय अंधे हो गए तो 5 साल अपाहिज रहोगे और गुलाम भी।
बाकी जैसी आपकी मर्जी।
जय हिंद!!
पंकज के अपना भाषण समाप्त कर मंच से नीचे उतरने तक पब्लिक तालियां बजाती रही।ताली बजाने वालों में लल्लन भी था।पंकज की बातें लल्लन के दिल को छू गयी थीं जबकि नाहर और दूर बैठे शुकुल को ऐसा महसूस हो रहा था जैसे उनके कलेजे में किसी ने मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा दी हो।
#जारी_है.......