360 degree love - 42 in Hindi Love Stories by Raj Gopal S Verma books and stories PDF | 360 डिग्री वाला प्रेम - 42

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360 डिग्री वाला प्रेम - 42

४२.

कोर्ट-कचहरी

इस बीच अनुभव सिंह ने लखनऊ में एक वकील से बात कर ली थी. वह फॅमिली कोर्ट के मामलों के जानकार थे, पर अनुभव सिंह ने स्पष्ट कर दिया था कि यह मामला सुलझाने की कोशिश की जानी है, न कि सिर्फ तलाक की सहमति की. वह जहां तक समझते हैं जो भी गलतफहमियां हों, उन्हें दूर किया जाए, और फिर से आरिणी-आरव की जिन्दगी बेहतर ढर्रे पर आ सके, इस से बेहतर कुछ नहीं.

अधिवक्ता रामेन्द्र अवस्थी ने उन्हें आश्वस्त किया और सोमवार २१ जनवरी को सवेरे १० बजे ही लखनऊ के कैसरबाग स्थित जिला न्यायालय के अपने चैम्बर में आने का समय दिया. इस बीच उन्होंने केस की फाइल पढ़कर अपनी तैयारी करने का भी भरोसा दिलाया.

ट्रेन आठ बजे पहुँच गई थी. तैयार होकर पिता-पुत्री १०.१५ बजे तक कैसरबाग कचहरी पहुँच गये. अवस्थी जी चैम्बर में आ चुके थे, सो उनसे भेंट भी हो गई. सब समझ कर भी उन्होंने फिर से दो टूक पूछा कि.

“आप लोग क्या चाहते हैं…? रिश्ता तोड़ना या जोड़े रखना?”

आरिणी भी एक बार सन्न रह गई. ‘तोड़ना ? भला तोड़ने के लिए शादी करता है कोई. ये वकील लोग भी ऐसे बात करते हैं जैसे उनके भीतर कोई संवेदनाएं ही न हों. इनके भी तो परिवार होते हैं… क्या यह विवाह को ऐसी ही संस्था मानते हैं… कि जब चाहा किया, जब चाहा तोड़ दिया. और फिर कितना आहत होता है मन, एक विचार मात्र से ही. तोड़ने की तो सोचना भी गुनाह हो जैसे !’ उसे गुस्सा आ रहा था अधिवक्ता अवस्थी जी की सोच पर.

 

पर दूसरे ही क्षण जैसे उन्होंने आरिणी के मन की बात सुन ली हो. बोले,

 

“वैसे मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि जब तक संभव हो, और कोई गम्भीर बात या मुद्दा न हो, रिश्तों में प्रेम बना रहना चाहिए और यदि आप प्रेम भाव बनाये रखेंगे तो दूसरा पक्ष कब तक उस प्रेम को स्वीकार करने से स्वयं को रोक सकेगा. प्रेम से बड़े-बड़े युद्ध में भी विजय हो जाते हैं, पर अहंकार या गलतफहमियाँ न जाने कितने फसादों को जन्म देते हैं. मैं तो रोज़ यहाँ देखता हूँ कि सूई की नोक के बराबर बात पर घर टूटने को तैयार रहते हैं. अविश्वास इस कदर हावी हो जाता है कि उसके आगे वर्षों का प्रेम निरीह बन जाता है. इसलिए जो भी सोचें… बेहतर भविष्य के लिए सोचें.”

 

आरिणी को उनकी बातें बड़ी ज्ञानवान लगी. वह प्रभावित भी हुई. अभिनव सिंह बोले,

 

“मैं सहमत हूँ आपसे. शादी-विवाह कोई खेल तो है नहीं. एक कदम भी गलत उठा तो जिन्दगी अंधकारमय हो सकती है. इसलिए मैं भी सोच समझ कर बात बढाने का पक्षधर हूँ. फिर, हम लोग कतई नहीं चाहते कि ऐसा कुछ हो जिससे हमारी कोई गलती लगे. हम लड़की वाले हैं… झुकने को हमेशा तैयार रहते हैं, पर पता तो चले कि वह चाहते क्या हैं !”.

 

“सच है… पता नहीं क्यों लोग रिश्ते छोड़ देते हैं, जिद्द नहीं !”,

 

कहकर वह उन लोगों को लेकर मजिस्ट्रेट के चैम्बर की ओर रवाना हुए.

 

अधिक भीड़ नहीं थी न्यायालय कक्ष में. पेशकार ने फाइल निकाली. अभी मजिस्ट्रेट सीट पर बैठे नहीं थे. आरव की ओर से भी न कोई परिजन और न अधिवक्ता ही हाज़िर हुए थे. पेशकार ने थोड़ी देर प्रतीक्षा करने को कहा.

 

लगभग बीस मिनट बाद आरव का वकील भी उपस्थित हुआ और मजिस्ट्रेट भी बैठे. बाद में आरव और उसके पिता राजेश भी न्यायालय में आ गये थे. आरिणी ने उनके चरण स्पर्श भी किये, लेकिन आज राजेश सिंह थोड़ा गम्भीर थे. उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से अभिनव सिंह के अभिवादन का जवाब भी नहीं दिया.

 

आरिणी ने चोर नजरों से आरव को देखा.... क्या यह वही आरव है. वह अचम्भित थी. होंठों पर खिली रहने वाली स्मित किरण को राहू ने ग्रस लिया हो मानो. न चेहरे पर ओज शेष था, न व्यक्तित्व में जोश ही परिलक्षित होता था. कुछ गले में अटका-सा था. दिल किया कि बढ़ कर झकझोर दे आरव को. क्या यही चाह थी एक दूजे की?

 

सुनवाई में आरव के वकील ने अपना पक्ष रखते हुए बताया कि चूँकि आरिणी अपने पति के साथ रहने की इच्छुक नहीं है, इसलिए उनकी ओर से सोच-समझ कर यह मुकदमा फाइल किया गया है. उनका यह भी कहना था कि उन लोगों द्वारा लगातार प्रयास किये गये, तो भी आरिणी ने अपनी ससुराल आने में रुचि नहीं दिखाई, यही नहीं, इसके विपरीत वह ग्रेटर नॉएडा में बिना अपने ससुराल पक्ष या पति की अनुमति प्राप्त किये अकेले जॉब कर रही है, और बिना किसी पूर्व सूचना के जापान ट्रेनिंग के लिए भी गई.

 

मजिस्ट्रेट ने पूछा कि क्या आरिणी को लिखित रूप में अपना पक्ष अदालत को रखना है? वह स्वयं या अपने वकील के माध्यम से अपनी बात रखने के लिए भी स्वतंत्र है.

 

एडवोकेट अवस्थी जी ने सुलह की संभावनाओं के दृष्टिगत काउंसलिंग सेशन का अनुरोध किया. उनका कहना था कि किसी छोटी गलतफहमी या संवादहीनता से विवाह का टूटना दुर्भाग्यपूर्ण होगा.

 

मजिस्ट्रेट ने दूसरे पक्ष की राय जाननी चाही, पर आरिणी के एडवोकेट ने मजिस्ट्रेट साहब को स्मरण कराया कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि वैवाहिक विवादों में काउंसलिंग का प्राविधान ऐसे केस में एक अपरिहार्य कार्यवाही है.

 

मजिस्ट्रेट ने दोनों पक्षों में सुलह की सम्भावनाओं को तलाशने के लिए पन्द्रह दिन बाद की तिथि तय कर दी ताकि वार्तालाप तथा मध्यस्थता के माध्यम से विवाद को सुलझाने के प्रयास किये जाएँ.

पंद्रह दिन… यूँ तो बहुत जल्दी आ जाते हैं, पर कष्ट के १५ दिन कटने मुश्किल हो जाते हैं. आना पडा आरिणी और अनुभव को. अपना पक्ष तो रखना ही था उसको भी.

००००