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कुछ और कटुता
अनुभव सिंह अपना एक और कटु अनुभव लिए लौट आये. उन्हें दुःख अवश्य हुआ, पर हिम्मत नहीं हारी. इसी महीने की १७ तारीख को कोर्ट में उपस्थित होना था आरिणी को. चूँकि वह मौजूद नहीं थी भारत में, इसलिए उसके बदले पिता ने स्वयं जाना तय किया था. चाहे तो किसी वकील को भी तय कर सकते थे, परन्तु उन्होंने इस हेतु खुद को ही उपयुक्त पाया था.
माधुरी में फिर से हिम्मत और हौसला लौट आया था. उनका मानना था कि इंसान को मन से प्रयास करना चाहिए, पूरी शिद्दत से, शेष ईश्वर के हाथ में छोड़ देना चाहिए. जो होगा अच्छा ही होगा. और वैसे भी उसने आरव या उसके परिवार से अभी भी कोई दुर्भावना भी मन में नहीं रखी थी.
आरिणी से बात होती थी… पर इस मुद्दे पर नहीं. अब वह भी कठोर रुख के पक्ष में थी. बार-बार कहती थी कि इस विवाह को जितना समय सम्भव हुआ, मैंने दिया, और ईमानदारी से दिया... पर फिर भी इस सम्बन्ध की नियति टूटना है, तो वही ठीक है. और यह सुन कर माधुरी का दिल दुखी तो अवश्य होता पर वह आरिणी के मत के विपरीत बोलने का साहस नहीं कर पाती. अनुभव भी कहते कि वह बेहतर सोच सकती है, जो सोचना है, उसे सोचने की स्वतंत्रता दो.
महीने की १७ तारीख भी आ गई थी. सर्दियों में यूँ भी दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो जाती है, फिर बाहर निकलना हो तो अधिकाँश ट्रेन विलम्ब से होती हैं. और विलम्ब भी कुछ कम नहीं. इतना कि चार से छह घंटे भी. गनीमत थी अभी कोहरा पडना शुरू नहीं हुआ था. फिर भी माधुरी की सलाह पर वह १५ दिसम्बर को ही निकल गये थे ताकि सोलह को सही समय पर पहुँच जाएँ और फिर १७ दिसम्बर को फॅमिली कोर्ट की औपचारिकताओं को समय से पूरा कर सकें.
उम्मीद के विपरीत न आरव और न ही राजेश सिंह फॅमिली कोर्ट में थे. अनुभव ने पेशकार के माध्यम से अपना प्रार्थना पत्र मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत कर दिया था.
मजिस्ट्रेट ने उनकी एप्लीकेशन पर कुछ लिखा और फाइल पर चार महीने की तारीख अंकित की. उधर पेशकार ने उन्हें सलाह दी कि अगली तिथि पर वह कोई वकील कर लें, उन्हें सुविधा रहेगी.
कुछ देर और रुके अभिनव कि शायद राजेश सिंह या किसी अन्य परिजन से मुलाक़ात हो जाए. पर कोई नहीं आया था उनकी ओर से.
कोई और काम भी नहीं था उनका लखनऊ में. गेस्ट हाउस आकर आराम करने लगे. यह पॉवर कारपोरेशन का वही गेस्ट हाउस था, जहाँ रुक कर वह कुछ महीनों पहले माधुरी के साथ राजेश सिंह के घर गये थे, जहाँ अरु की शादी की औपचारिकताओं पर चर्चा हुई थी. संयोग ऐसा था कि गेस्ट हाउस का भूःतल का वही कमरा नंबर १२ ही उस दिन आवंटित हुआ था, और आज भी वही कक्ष मिला था उनको. पर, परिस्थितियां कितनी विपरीत थी आज. आश्चर्यजनक रूप से… जो कल्पना नही की थी, वही दिन देखने पड़ रहे थे उन्हें.
मन बहुत था उनका राजेश से बात करने का, पर न जाने कैसा व्यवहार करें… या मन में क्या कुछ सोचे बैठे हों… इस संशय के रहते उन्होंने कॉल करने की हिम्मत नहीं दिखाई.
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