360 degree love - 39 in Hindi Love Stories by Raj Gopal S Verma books and stories PDF | 360 डिग्री वाला प्रेम - 39

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360 डिग्री वाला प्रेम - 39

३९.

अंधकार… दु:स्वप्न

चाहे जितनी भी बड़ी समस्या हो, अथवा जो भी परेशानी हो, माधुरी ने कभी अवसाद को पास नहीं फटकने दिया था. हमेशा परिस्थितियों का सामना बहुत धैर्य और तर्क के साथ करने की आदत डाली थी उसने. क्रोध उनके चेहरे पर शायद ही कभी दिखा हो. मुस्कुराहट से भरा उनका चेहरा सदैव एक सकारात्मक भाव का तेज दर्शाता था. पर… आज स्थिति कुछ अलग थी. सब कुछ जैसे धूमिल हो गया था. उनके सुनहरे संसार को… उनकी बेटी के सपनों को जैसे किसी ने दु:स्वप्न के अन्धकार में बदलने का प्रयास किया हो. फिर, ऐसा करने वाला और कोई नहीं, उनका अपना दामाद और उसके परिजन ही हों, तो कितना दुखद है, यह सोच कर ही उनका सर फटा जाता था.

बात वहीं की वहीं थी, और यह आने वाले कल के लिए कोई बेहतर संकेत नहीं थे. उधर आरिणी ने भी अपना रुख सख्त कर लिया था. अनुभव और माधुरी यह भी जानते थे कि आरिणी यूँ तो कभी कोई सख्त स्टैंड नहीं लेती, पर अगर ऐसा कुछ ठान लिया तो उसको समझाना लगभग नामुमकिन है. अर्थात अब दोहरी जिम्मेदारी आ पडी थी इन सम्बन्धों को सुधारने की… और यह कोई सरल काम नहीं था.

अब घर में सवेरे-शाम चर्चा का विषय यही था, लेकिन एक डेडलॉक सा हो गया था. कैसे निकले कोई रास्ता… समझ ही नहीं आ रहा था.

दो दिन यूँ ही बीत गये. कोर्ट की सुनवाई की तारीख में अभी लगभग तीन सप्ताह का समय था. फिर आरिणी के देश से बाहर होने के कारण उसमें तारीख ली जा सकती थी, पर उसके लिए स्वयं या उनके वकील को आरिणी के प्रपत्रों के आधार पर आवेदन करना होगा, इतनी समझ थी अनुभव में. पर, उनका ध्यान और प्रयास सिर्फ इस ओर था कि किसी तरह से यह बात कोर्ट से बाहर ही सेटल्ड हो जाए.

 

दिक्कत यह थी कि अनुभव इस संबंध में अपने निकट रिश्तेदारों या मित्रों से चर्चा नहीं करना चाहते थे. वे नहीं समझते थे कि इस चर्चा से कोई लाभ भी होने वाला था, बल्कि संबंधों की यह दरारें और चौड़ी और गहरी हो सकती थीं.

 

इस वीकेंड पर दो बार आरिणी की कॉल आई, पर वह भी अपने फैसले पर अडिग थी. बोली,

 

“मुझे अब कोई रुचि नहीं ऐसे सम्बन्धों को ढोने में, जहाँ रिश्तों की गहनता को सम्मान देने वाला कोई नहीं. मेरे सौ प्रतिशत देने के बाद भी उन्हें नहीं समझ आता कि मैंने कितना सम्मान दिया है उन सब को. और आरव को क्या कहूँ… जब समझेगा तो पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचेगा उसके पास.”

 

“अब कुछ तो करना ही होगा… पहले ही सब कुछ सोच लिया होता तो शायद यह नौबत ही नहीं आती…!”,

 

कहकर एक नि:श्वास ली माधुरी ने.

 

“अब पहले क्या… और बाद में क्या. मेरी किस्मत में लिखा था यह दिन”,

 

कहकर वार्ता को विराम दिया आरिणी ने. पर फिर बोली,

 

“...लेकिन मेरी चिंता मत करना तुम लोग. मैं बहुत खुश हूँ. पूरे विश्व से कुल छह ट्रेनीज को यह अवसर मिला है. तुमको गर्व होना चाहिए अपनी बेटी पर मां!”.

 

“क्यों नहीं बेटा… हमको गर्व है तुम पर. लाखों में एक हो तुम अरु!”,

 

कहकर हिम्मत बधाई माधुरी ने बेटी की.

 

समय बीतता गया, और रिश्तों की गांठें यूँ ही पड़ी रही. पहल कौन करे बात करने की. अभिनव सिंह ने की भी, तो उसका वह प्रत्युत्तर नहीं मिला जिसका उन्हें अनुमान था. वह सोचते थे कि शायद राजेश सिंह बातों की गम्भीरता और जटिलता को समझकर कुछ रास्ता निकालने में सहायक होंगे, लेकिन अब ऐसा लग रहा था कि इस नोटिस को भिजवाने में शायद उनकी भी पूरी सहमति थी.

 

विचित्र सामंजस्य था दोनों परिवारों के मध्य. अनुभव सिंह और राजेश सिंह यूँ तो दोनों सामंती परिवारों में अपनी जड़ें रखते थे, एक ही बिरादरी से आते थे, एक ही क्षेत्र के निवासी थे, दोनों अच्छी शिक्षित पृष्ठभूमि से थे, लेकिन जहाँ अनुभव सिंह समय की रफ़्तार में स्वयं को ढालने और समय की अनुकूलता को गृहण करने में कहीं आगे थे, राजेश सिंह अभी भी उसी बुर्जुआ व्यवस्था पर गौरवान्वित होते थे. बस, यही मूलभूत अंतर था दोनों की सोच में भी.

 

समय कब किस की प्रतीक्षा करता है. बीत रहा था यूँ ही. आरिणी और मन से जुटी थी स्वयं को साबित करने में. उसकी लगन से प्रभावित थे लोग कम्पनी में.

 

इसी बीच एक दिन अनुभव सिंह अकेले लखनऊ भी हो आये थे. दुर्भाग्यवश, राजेश सिंह लखनऊ में नहीं थे. वह एक सेमीनार के लिए जयपुर में थे. आरव भी नहीं था. केवल उर्मिला जी तथा वर्तिका से ही भेंट हुई. वह भी संक्षिप्त. वर्तिका ने मन से स्वागत अवश्य किया पर लगता था उर्मिला जी कुछ अधिक ही दृढ रुख अपनाए हुए थी. बोली,

 

“अब तो कोर्ट ही देखेगा इस मामले को.”

 

वह न कुछ समझने को तैयार थी, न समझाना चाहती थी कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो इतना बड़ा कदम उठा लिया उन लोगों ने. अनुभव सिंह ने कहा भी कि,

 

“आखिर ऐसी कौन सी समस्या है जो वकील और कोर्ट निपटा सकते हैं… हम लोग आपस में नहीं”,

 

पर लगता था कि उर्मिला जी को इस विषय पर चर्चा ही नहीं करनी थी. ऐसे में कोई विकल्प भी नहीं था अनुभव सिंह के पास.

 

हार कर अनुभव सिंह ने उनसे विदा ली. ऐसा कुछ नहीं कहा उन्होंने जिस से संबंधों में कड़वाहट को हवा मिले. रिश्तों की गरिमा का हमेशा ध्यान रखा अनुभव सिंह ने. इसीलिये उनके घर परिवार, कार्यालय सहकर्मियों और समाज में उनका नाम एक अलग सम्मान से लिया जाता है.

००००