३८.
बड़ा निर्णय
...और आरिणी चली गई. पूरे तीन महीने के लिए. वह धीरे-धीरे अपने करियर के उस मोड़ पर पहुंच रही थी, जहां का रास्ता चुनौतियों से भरा अवश्य होता है, पर उसका फल मिलना अवश्यम्भावी होता है.
आरिणी इतनी व्यस्त हो गई थी कि वीकेंड पर ही घर पर बात या संदेश भेजने का समय निकल पाता था. आरिणी स्वयं ऐसे जीवन को पसंद करती थी. कंपनी के हेड क्वार्टर आकर वह उन पहलुओं को भी जान सकी थी, जिसके कारण कंपनी विश्व की चुनिंदा ऑटो कंपनी के रूप में जानी जाती थी.
उस दिन सवेरे के 11 बजे होंगे जब माधुरी को फैमिली कोर्ट लखनऊ से आरिणी के नाम जारी उसकी कंपनी के पते पर भेजा गया नोटिस री-डायरेक्ट होकर मिला. खोलकर देखा तो आरव की ओर से तलाक का नोटिस था, जिसमें पन्द्रह दिन के बाद आरिणी को न्यायालय में उपस्थित होना था.
माधुरी सन्न रह गई. ऐसी तो उम्मीद न थी उन्हें. क्या खेल है तलाक लेना-देना. और वह भी तब जबकि आरिणी की कोई गलती भी नजर नहीं आ रही थी. न ही कोई बात करने का प्रयास किया गया उन लोगों की ओर से. आरिणी के तनाव के बावजूद उन्होंने ही इन रिश्तों की कडवाहट को सुधारने के एकतरफा प्रयास किये… न जाने कब से, कितनी बार!
माधुरी ने तत्काल अनुभव को कॉल लगाई. बीस मिनट में ही वह घर आ गए. इस से अधिक बड़ी आकस्मिकता और क्या हो सकती थी.
आज उन्हें भी बहुत बुरा लगा. खुद ही मांग कर उन्होंने आरिणी को अपनी बहू बनाया था. कभी कोई कमी नहीं बताई, और आरव की बीमारी भी छिपाई, फिर भी न आरिणी ने और न ही उन लोगों ने कभी इस बात का मुद्दा बनाया.
“तुम बताओ कि कैसे और क्या बात करें ?’,
अभिनव ने पत्नी से पूछा.
“मेरे विचार से सोच-समझ कर बात करनी चाहिए इस मामले में. एक शब्द भी सम्बन्धों को ऐसा कर सकता है कि फिर सुधरने की रही-सही गुंजाइश भी खत्म हो जायेगी”,
माधुरी ने अपनी राय रखी.
“तो फिर राजेश जी से ही बात करते हैं… देर शाम को, जब वह आराम से लौट आयें घर पर”,
अभिनव ने निष्कर्ष निकाला. माधुरी सहमत थी.
शाम को विनय का फ़ोन आया था, उस से भी चर्चा हुई. वह स्वयं इस खबर से शॉक में था. पर उसने अपनी बात बड़े ही तार्किक ढंग से रखी. उसने कहा,
“आप तो जानते हैं न कि आरव किस स्थिति से गुजर रहा है… इसलिए उसके व्यवहार में बदलाव होना कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है. मुझे यह भी संशय है कि वह सही से मेडिसिन्स ले भी रहा है या नहीं. मां का व्यवहार सामंती है, और वह अपने सामने किसी तर्क को नहीं मानती लेकिन उसके पिता से समझदारी की अपेक्षा की जा सकती है. मेरे विचार से इस समस्या को वह ही सुलझा सकते हैं… या सही रास्ते पर ले जा सकते हैं.”
“और आरव के स्टैंड को उसके व्यवहार में परिवर्तन और बीमारी के परिप्रेक्ष्य में देखना भी जरूरी है. यानि अगर वह स्वस्थ होता तो शायद उसका दृष्टिकोण ऐसा बिलकुल नहीं होता!”,
डॉ विनय ने अपने तर्क को आगे बढ़ाया.
यह एक डॉक्टर, परिजन और शुभचिंतक की नितांत व्यक्तिगत और सुलझी हुई राय थी, जिसका सम्मान किया जाना भी जरूरी था. बात ठीक थी, लेकिन यह भी उतना ही सही था कि उस घर में उर्मिला जी का निर्णय ही अंतिम होता था. ऐसे में उनसे भी बात करना आवश्यक तो था ही. पर... पहले राजेश सिंह से ही बात करना तय किया गया.
“सिंह साहब… इतना बड़ा फैसला… न जाने कब से, और हमे सुगबुगाहट भी नहीं. यह क्या बात हुई भला!”,
कहकर अभिनव सिंह ने बात शुरू की.
“अब ऐसा तो नहीं ही है… आपने बिना बताये लडकी को नौकरी ज्वाइन करा दी… फिर विदेश भेज दिया… क्या खबर की आपने?”,
उलाहना देने के लिए तैयार बैठे थे जैसे राजेश सिंह.
“बताया तो सब कुछ… कॉल भी की आरिणी और उसकी मम्मी ने, पर न जाने क्यों यह दूरियां बनती जा रही हैं, मेरी तो समझ से परे है”,
कहकर मामले को ठंडा करना चाहा अनुभव सिंह ने.
“नहीं, आपको बात करनी चाहिये थी. कोई गलती है गर हमारी तो बताइये… या हमने कुछ माँगा हो, लड़की के अलावा. अब हमें क्या पता कि लड़के की शादी के बाद वह और सदमे में चला जाएगा. जब लडकी को ही मोह नहीं तो ऐसे रिश्तों को ढोने से क्या लाभ!”,
कहकर सारा दोष जैसे आरिणी और उसके परिवार पर थोपने की कोशिश की राजेश सिंह ने.
“हम लोगों ने तो कभी आपके मान सम्मान के विरुद्ध कुछ कहा ही नहीं, पर यह तो दोनों परिवारों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है… कोर्ट-कचहरी तो किसी के भी हित में नहीं”,
कहकर बात को सम्भालने की कोशिश की अनुभव सिंह ने.
“हाँ… वो तो है, पर सब देखना भी पड़ता है… पूरा भविष्य पड़ा है लड़के के सामने. इकलौता लड़का है, उसका दुःख भी तो नहीं देखा जाता…!’,
कहकर गला रुंध आया उनका.
“हम समझते हैं… मिल-बैठकर निदान करना होगा इसका. बड़े होकर बड़ों जैसा व्यवहार करना भी जरूरी है हम लोगों का !”,
और उन्होंने राजेश सिंह से विदा ली. पर बात अभी भी वहीँ थी.
अगर गौर से देखें तो लगता था कि न आरव की गलती है, न आरिणी या उनके परिजनों की. यह जटिलताएं तो मानव स्वभाव की हैं. सब एक दूसरे का मन समझ लें तो क्यों ऐसी समस्याएं आयें. पर अहंकार… दिखावा और स्वार्थ कब सम्बन्धों की बलि ले लेते हैं, पता भी नहीं चलता. इस प्रकरण में भी बिलकुल ऐसा ही था. आरव और आरिणी का कोई प्रगाढ़ प्रेम सम्बन्ध भले ही न रहा हो, पर वह प्रेम से कमतर भी न था. फिर भी, अगर वह एक दूसरे की भावनाओं को न समझ पा रहे हों तो दुखद था.
अभी तक आरिणी को इन सब बातों की कोई जानकारी नहीं थी. न ही आज उसके कॉल आने का दिन था, पर उसे बताना भी जरूरी था, ताकि वह अपना मन बना सके कि उसे इस समस्या से कैसे उबरना होगा. यह स्वयं आरिणी के लिए भी अकल्पनीय था कि कभी ऐसा समय भी आ सकता है.
आखिरकार उसकी मम्मी ने सन्देश भेजा आरिणी को कि कुछ जरूरी बात करनी है, समय निकालकर कॉल करना.
सवेरे सात बजे आरिणी की कॉल आई. वह समझ नहीं पाई कि इतनी जरूरी क्या बात हुई कि उसकी मम्मी को मेसेज भेजना पड़ा.
“हां मम्मी… बोलो, क्या हुआ, क्या अर्जेंट है?.. “,
आरिणी की आवाज में चिंता और परेशानी भी झलक रही थी.
“वो… दरअसल एक लैटर आया था...कोर्ट से, और बात भी हुई आरव के पापा से….”,
अटकते हुए कहा उन्होंने.
“कैसा लैटर… क्या बात?”,
आरिणी ने पूछा.
“वो डाइवोर्स के लिए केस फाइल किया है उन लोगों ने…”,
हिम्मत कर के रुंधे गले से बता ही दिया माधुरी ने अपनी बेटी को.
“क्या….?”,
जैसे आरिणी विश्वास ही नहीं कर पा रही हो. डाइवोर्स -- यानि तलाक, यानि उस वैवाहिक संबंध का निषेध जो दोनों ने एक दूसरे पर विश्वास कर, परख कर और सामाजिक मान्यताओं के पलड़ों में रख कर अग्नि कुंड पर, हजारों जोड़ी आँखों की साक्षी बनी रस्मों की छाँव में जन्म-जन्मान्तर तक निभाने का वादा किया था. उसकी तंद्रा टूटी तो माँ की दुःख भरी आवाज सुनाई पडी,
“हां बेटा, यही सही है”,
माधुरी ने आरिणी को विश्वास दिलाने की कोशिश की.
कुछ देर तक दूसरी ओर चुप्पी छाई रही… शायद टेक्निकल फाल्ट से आवाज दूसरी ओर नहीं जा पा रही थी. इसलिए वह ‘हेलो...हेलो’ करती रही.
“हां मम्मी… सुना मैंने ! क्या बोलूं. कुछ शेष है क्या मेरे बोलने के लिए !”,
कहकर फिर चुप हो गई आरिणी.
“बेटा कुछ तो बोल… यह विवाह तो सब लोगों की सहमति थी. ख़ास तौर से उनके पूरे परिवार की. अब ऐसी क्या बात नजर आई उनको कि इतना बड़ा कदम उठा लिया”,
आरिणी ने कॉल डिसकनेक्ट कर दी थी . अपने अवसाद और अप्रसन्नता को अभिव्यक्त करने का उसका अपना यह तरीका था. माधुरी ने अब तक स्वयं की भावना पर नियन्त्रण रखा हुआ था, पर अब उसका भी मन हाहाकार कर उठा. अकेली थी वह… आंसू और आवाज दोनों समानांतर रूप से उसके आक्रोश तथा दुःख में साथ थे.
लगता था आरिणी के साथ माधुरी भी किसी घोर संकट में फंस गई है.
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