360 degree love - 31 in Hindi Love Stories by Raj Gopal S Verma books and stories PDF | 360 डिग्री वाला प्रेम - 31

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360 डिग्री वाला प्रेम - 31

३१.

न जाने क्यों

कई बार बड़ी बातें इतना उद्देलित नहीं करती जितनी छोटी-छोटी बातें मन को आहत कर जाती हैं. आरिणी ने उर्मिला जी के विषय में पहले जो बेहतर, और फिर नकारात्मक धारणा बनाई थी, अब वह सब कुछ भूलकर उससे उबर ही रही थी, सकारात्मकता की ओर, कि यह नई बात उसने अपने कानों से सुन ली थी. बुखार पर तो किसी का भी जोर नहीं है. और अगर वह बेड रेस्ट पर है, तो अर्थ यह है न कि वह काम करने के लिए सक्षम नहीं है-- शारीरिक और मानसिक रूप से, फिर ऐसी बातों के क्या इतर अर्थ ढूँढने चाहियें किसी को भी?

मन तो कई बार करता कि सबको बिठाकर एक बार पूछे…. आरव और पापा को भी, कि पहले वो उसकी कमी बताएं, और फिर यह बताएं कि उन्होंने एक तो बात छिपाई, वो भी ऐसी बात जिससे उसकी पूरी जिन्दगी पर असर पड सकता है. और फिर, उसी की ओर से न जाने कितना समर्पण चाहिए उन लोगों को. वे तो कोई अनजान लोग नहीं. पढ़ा-लिखा परिवार है. बता सकते थे…. अगर आरव भी बता देता तो शायद वह उस से दूर होने का तो नहीं ही सोचती. परन्तु यह लुका-छिपी का खेल क्या उचित है. वह भी तब जब किसी एक नये इंसान की पूरी जिन्दगी उससे दांव पर लग जाए.इस पर भी वह उसे सहयोग देने की जगह उसकी मुश्किलें बढ़ा रहे है.

क्या उम्र है उसकी अभी? कितने ही सपने हैं जिन्हें पूरे करने की काबलियत भी है… अवसर भी, और फिर विवाह के आरंभिक दिन…. क्या उसकी कोई अपेक्षायें नहीं आरव से? मानसिक और शारीरिक सभी आवश्यकताओ को दरकिनार करने की जद्दोजहद में वह कहीं न कहीं स्वयं भी टूटी है तब, पर फिर भी आरव के साथ दृढ़ता से खड़ी होती है, और उसे एक बेहतर जीवन देने को प्रतिबद्ध है….! बदले में क्या चाहती है-- बस कुछ मुस्कान और सर पर स्नेहिल आशीर्वाद न! क्या इतना कठिन है यह भी उर्मिला जी के लिए?

 

जाने में बस एक हफ्ता बचा था. वह पूरा निश्चिंत हो जाना चाहती थी. विनय भैया ने भी अलग से डॉक्टर्स से चर्चा की थी. बाद में एक दिन फोन पर बताया भी उसे कि चिंता की बात नहीं है, बस उसको अच्छे से मॉनिटर करना जरूरी है. हो सके तो किसी और बेहतर जगह भी दिखा सकते हो.

 

दिल्ली में ‘विमहंस’ का नाम सुझाया भी था उन्होंने. चूँकि अभी इलाज सही दिशा में जा रहा था, इसलिए कोई जरूरत नहीं समझी गई कहीं और दिखाने की. मम्मी जी को तो इस पर भी असहमति ही दिखानी थी और पापा का प्रेम अपने काम से था. वह प्यार तो बहुत करते थे आरव से, पर उसके मन को पूरी तरह समझ पाते हों, ऐसा दिखा नहीं. कुछ लोगों को लगता है कि उनके योगदान के बिना यह संसार शायद वहीँ रुक जाएगा. कुछ ऐसी ही सोच लगती थी उनकी भी. लगता था कि वह कुछ अधिक समय घर और बच्चों को देंगे तो शायद भारतीय रेल का लखनऊ परिक्षेत्र का ताना-बाना ही न बिगड़ जाए.

 

आज फिर आरिणी ने बलात नकारात्मक विचारों की श्रृंखलाओं को वहीँ दफ़न कर दिया. एक तो वायरल… ऊपर से ये विचार, उसे अपना सर फटता-सा महसूस हो रहा था. वह इस नकारात्मकता को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहती थी इसलिए वापिस आकर निढाल बेड पर लेट गई.

 

धीरे-धीरे कब उसे नींद आ गई पता ही नहीं चला. जब मोबाइल की घंटी से आँखें खुली तो समझ आया कि करीब दो घंटे हो गये हैं उसे सोये हुए. सहारनपुर से मां का फोन था. चिंता कर रही थी. सभी मांयें चिंता करती हैं. पर बेटी की मां की चिंता दूनी हो जाती है. साथ में दामाद में भी जो मन पड़ा रहता है. पर न जाने सास ऐसा मन क्यों नहीं बना पाती? सोचती आरिणी. उहूँ… मैं भी क्या ख्याल ले बैठी. दवा का समय हो रहा है. थर्मामीटर से देखा तो १०५ डिग्री था तापमान. उसे तो नाम से ही घबराहट होने लगती थी. और थर्मामीटर देख कर तो बुखार जैसे उससे भी कहीं अधिक हो जाता है,

 

आरिणी दवा निकाल ही रही थी कि आरव आ गया.

 

“अरे, जाग गयी तुम? पहले भी आया था मैं, पर बिना डिस्टर्ब करे निकल लिया...बोलो, कोई दिक्कत हो तो?”,

 

प्यार से पूछा आरव ने.

 

“नहीं… कुछ नहीं … अपने आप ही ठीक होगा. दवाईयां तो ले ही रही हूँ”,

 

आरिणी ने धीमे से कहा. कमजोरी वाकई हावी थी उस पर. आरव पास आकर उसके हाथ सहलाने लगा. माथे को छू कर देखा… तप रहा था.

 

“मैं भी कब ध्यान दे पा रही हूँ तुम पर… पिछले तीन-चार दिनों से. ले रहे हो न दवा..? इतनी तो जिम्मेदारी बनती है न?”,

 

चिंता करते हुए पूछा आरिणी ने.

 

“हाँ… हाँ, अभी तुम अपना ध्यान दो”,

 

और बैग लेकर अपने कोर्स के लिए निकल लिया. वह थ्री-डी मैक्स डिजाइनिंग सॉफ्टवेर का एक शार्ट कोर्स कर रहा था. गोमतीनगर के उस छोर पर जाना होता था इसके लिए उसे.

 

बेड पर लेटे-लेटे आरिणी “इंडिया टुडे’ का नया अंक पढने लगी… विदेशी तकनीकी विश्वविद्यालयों की रैंकिंग, इन्फ्रास्ट्रक्चर और फैकल्टी के सम्बन्ध में एक विस्तृत रिपोर्ताज़ थी. उसके मन का विषय था. पढ़ना शुरू ही किया था कि आँखों में फिर से नींद छाने लगी. मैगजीन को अपने ऊपर ही रखकर वह यूँ ही आँखें मूंदे नींद के आगोश में चली गई.

 

पता नहीं कितनी देर हुई थी उसे, स्वयं भी याद नहीं.

 

“अरु, अरु… उठो”,

 

कुछ झुंझलाई-सी आवाजों से वह चौंक कर उठी. शायद कुछ अजीब सा सपना देख रही थी. बीमारी में सपने भी तो बहुत खराब ही दिखते हैं…. दैत्य, खूंखार चेहरे, भयंकर लड़ाई या ऐसे ही. शायद ऐसे ही किसी सपने से जागी वह, तभी माथे पर पसीने की बूँदें भी चुहचुहा आई थी.

 

देखा तो सामने मम्मी जी थी.

 

“कैसी हो अब तुम?”,

 

हाथ को स्पर्श कर पूछा उन्होंने.

 

“अभी तो ऐसे ही है… देखो शायद शाम तक….”,

 

अरु इतना ही बोल पाई कि बीच मे ही सासू माँ ने उसकी बात काट दी, जैसे उसकी बात सुनना ही नहीं चाहती हों. कहने लगी,

 

“तुम तो देख ही रही हो… काम कितना बढ़ा हुआ है. मेरे अकेले के हाथ से नहीं हो पा रहा है, आज मोती के साथ चम्पा भी छुट्टी कर गई. ऐसे में अकेले मुझसे होने से रहा. थोड़ा मदद कराओ तुम भी आज तो. कल तो यह लोग चले ही जाएंगे”,

 

यह बात उन्होने इस अंदाज मे कही जैसे वह काम करते-करते बुरी तरह थक गयी हों.

 

… फिर रुकी नहीं, तुरंत उठ खड़ी हुई. लगा कि अपना अंतिम फैसला सुना दिया हो और अपील की भी गुंजाइश न हो. ऐसा इसलिए भी लग रहा था कि फैसला सुनाते-सुनाते अंत में उनके लहजे में थोड़ा तल्खी आ गई थी, जिसे आरिणी क्या, कोई भी महसूस कर सकता था.

 

“पर मम्मी जी…”,

 

वह कहना चाहती थी कि अभी उसकी हिम्मत नहीं है. लेकिन उन्होंने तो जैसे आज ही आरिणी से मदद लेने की ठान रखी थी. रुकने के लिए हाथ का इशारा कर बोली,

 

“अभी तुम नीचे आओ… बाद में बात करेंगे!”,

 

और उर्मिला जी उसी तेवर से सीढियां उतर कर नीचे चली गई.

 

वह निस्सहाय होकर उन्हें जाता देखती रही. वह सुनती थी कि सास कभी मां नहीं हो सकती… लेकिन आज देख भी रही थी. उन्हें आरिणी के रोग का अहसास नहीं था, न उसकी कमजोरी का. ऐसी ही दो-चार बातें अगर इकट्ठा हो जाएँ तो उसका भविष्य में निश्चय और विश्वास डगमगाएगा ही नहीं चिंदी-चिंदी हो कर टूट ही जाएगा, लेकिन उन्हें तो आरिणी के अविश्वास की कोई चिंता ही नहीं.

 

हिम्मत कर वह नीचे उतर ही रही थी कि भूमिका आ टपकी. बिना किसी पूर्व सूचना के. ‘लो, इसे भी आज आना था’, सोचा उसने. पर एक सायास हंसी से उसका स्वागत किया. जैसे बहुत दिनों बाद कोई अपने से मन का मिला हो. कुछ लम्हे तो पुराने समय के याद आयेंगे. वर्तमान और भविष्य का क्या पता. लेकिन अतीत की यादों में से तो अच्छे लम्हे चुन ही सकते हैं.

 

“मैंने सोचा आज तुम लोगों को सरप्राइज दिया जाए”,

 

भूमि ने कहा.

 

“अरे मैडम… वायरल में हैं हम, पर कोई बात नहीं, तुम जैसे दोस्तों के लिए तो समय और बीमारी का कोई बहाना ही नहीं”,

 

हंसकर कहा आरिणी ने.

 

दोनों ड्राइंग रूम में बैठ कर बातें कर रही थी. आरव भी लौट आया था. आरिणी उन दोनों को छोड़ कर किचन में गयी कि चाय बना ले. देखा तो मम्मी जी बरतन धो रही थी. पूरी सिंक बर्तनों से भरी थी.

 

“आप रहने दीजिये मम्मी जी… लाइए मैं करती हूँ”,

 

कहकर आरिणी ने उनके हाथ से बरतन लेने चाहे, पर वह बोली,

 

“रहने दो… कर लूंगी, इतनी भी नाजुक नहीं हूँ मैं”.

 

आरिणी अवाक रह गई. कुछ पल यूँ ही खड़ी रही. समझ नहीं पायी, मम्मी चाहती क्या हैं. अभी कह कर आई कि काम में हाथ बटाओ और अब कुछ अलग ही मुंह बना रही हैं. उसने फिर दोबारा कोशिश की, लेकिन वह बहुत गुस्से में थी, इसलिए इस समय बात न करने में ही भलाई थी. आरिणी चुपचाप चाय बनाने लगी.

 

तीन कप चाय, कूकीज और थोड़ी नमकीन ट्रे में लेकर आरिणी ड्राइंग रूम की ओर चली. एक तो बुखार, स्वाद भी खराब और ऊपर से तनाव…. उसे बहुत उलझन-सी हो रही थी. किसी तरह उसने खुद को सम्भाला. चाय भी पी नहीं गई, बस किसी तरह से साथ दिया. अंततः निढाल होकर वह ड्राइंग रूम के दीवान पर जा लेटी.

 

थोड़ी देर की बातचीत के बाद भूमिका चली गई. वह कॉलेज से अपनी मार्क्सशीट और एन ओ सी लेने आई थी. आज ही उसे लौटना भी था सीतापुर.

००००