२९.
द्वंद्व और क्लांत मन
आज कूरियर आया था. आरिणी ने लिफाफा खोला तो यह होंडा कार कंपनी का एक रिमाइंडर था. वे चाहते थे कि आरिणी या तो १५ सितम्बर तक ज्वाइन कर ले, या इस ऑफर को ‘फोरगो’ करने का विकल्प चुन ले. शर्त में यह भी लिखा था कि ‘फोरगो’ करने के उपरान्त आरिणी अगले दो साल तक कंपनी में किसी पद पर आवेदन करने की पात्र नहीं रहेगी. उसने गिन कर देखा लगभग सवा महीना था, निर्णय लेने में. पर समय कब किसकी प्रतीक्षा करता है, वह चिंतातुर हो उठी.
छोटी-मोटी दुविधा नहीं थी यह आरिणी के लिए. यदि एक-डेढ़ साल भी अनुभव मिल जाता उसे इस कंपनी में तो उसका अमेरिका की एक प्रमुख टेक्निकल यूनिवर्सिटी में मास्टर्स का सपना बहुत आसानी से साकार हो जाता, और फिर ‘…. वो कहते हैं कि स्काई इज द लिमिट… यू नेवर नो !’, सोचती आरिणी.
डिनर के समय आरिणी ने फिर चर्चा छेड़नी चाही. राजेश सिंह तो पहली बार भी बहुत उत्साहित थे… इस बार भी वह फिर बोले,
“ये तो वैसे बहुत ही अच्छा अवसर है आरिणी… जाना चाहिए तुमको, पर…”,
दरअसल वह उर्मिला जी की आँखों में नापसंदगी के भाव देख कर रुक गये थे. फिर भी बोले,
“देखते हैं कोई रास्ता… चिंता न करो!”
और बात आई-गई हो गई. स्वयं आरिणी भी घर के माहौल को देखते हुए कहीं दूर जाना नहीं चाहती थी लेकिन यह बात उसे कचोटती जरूर थी कि अब वह खुद फैसले नहीं कर पा रही, वह मजबूर है. उसका स्वयं का जीवन जैसे किसी अदृश्य डोर से बंधा है. पहले उसका मन सिर्फ अपना था. घर पर कभी कोई रोक-टोक नहीं थी, न कोई असहज वातावरण. जो चाहा किया… यूँ भी कोई भी लड़की अपने दायरे… अपनी सीमाएं स्वयं पहचानती है, वहाँ कोई द्वंद्व नहीं होता. पर, अब हर दिन वह अपने द्वंद्व से लडती थी. कभी-कभी तो हर लम्हे!
एक लेखिका का आत्म-कथ्य पढ़ा था कहीं जिसमें वह हर पल अपने तिलिस्मी लोक की स्मृतियों को जीवंत होते देखना चाहती है, लेकिन तिलिस्मी लोक की यात्रा से लौट कर अपने अनुभव दर्ज कराने के लिए शायद अब तक कोई नहीं आया है. आता तो जरूर बताता कि बस, तिलिस्मी लोक का द्वार ही तिलिस्मी है, भ्रम और प्रवंचनाओं से रचा हुआ. उसे खोल कर खौलती सीढ़ी पर पैर रखने का हौसला आ जाए तो वह खुद-ब-खुद अपने भीतर पसरे अकूत ऐश्वर्य को दिखाने के लिए मतवाला न हो जाता. और फिर आरिणी भी अपवाद कैसे हो सकती है. क्या उसे भी वह हौसला लाना ही होगा.
आरिणी का एक द्वंद्व और है. वह नहीं चाहती कि जीवन के किसी मोड़ पर वह जब स्वयं से आँखें मिलाये तो उसकी आँखों के सामने घना कुहासा छाया हो, ऐसा कुहासा जिसमें उसका सब कुछ… उसके सिद्धांत, उसके सपने और उसके आदर्श सभी धुंधले हो चुके हों और कुछ जीवन के यक्ष प्रश्न बन खड़े हों. नहीं, ऐसा वह कर ही नहीं सकती. स्वभाव का विरोधाभास किसी भी भले इंसान की जिजीविषा को नकार देता है.
मन क्लांत था.. बहुत परिश्रम किया था, अपने स्वप्नों को साकार करने के लिए. पर, जब वह पूरे होने को थे, तब पता चला कि कुछ बेड़ियाँ हैं अभी भी… जो बाधा दे रही हैं चलने में. रोका है उन्होंने रास्ता. ड्राइंग रूम के मनपसंद कोने में वह फिलवक्त अकेली थी… उन यादों के संग. मनीप्लांट का पौधा, उसके गहरे हरे रंग के चौड़े पत्ते जिंदगी की बेहतरी की गवाही दे रहे थे.
… और उसने धीमे से अपनी आँखों के किनारों से लुढकते खारे द्रव्य को अपने से दूर कर दिया. क्यों अपव्यय करना!
अचानक आरव की निगाह पड़ी आरिणी पर. कॉरिडोर से गुजर रहा था… उसे देखा तो ठिठक कर खडा हो गया पास आकर स्नेहिल आवाज में बोला,
“अरु, सब कितना कम्पलीकेटेड हो गया. मेरी वजह से तुम्हे दुःख मिल रहा है. यकीन मानो जानकर कुछ नहीं छुपाया कभी तुमसे. डाक्टर तो हूँ नहीं. कभी समझी नहीं इस बीमारी की गंभीरता. सच कहूँ तो कभी मुझे लगा ही नहीं कि मैं बीमार हूँ. तुम चली जाओ अरु... जिओ अपनी जिन्दगी... अपने सपने पूरे करो. मैं नहीं रोकूंगा तुम्हें. तुम्हारी ख़ुशी में ही मेरी ख़ुशी है”
“और... तुम्हारे बिना मेरी ख़ुशी संभव है क्या, बुद्धू!”,
नम आँखों से मुस्कुराने का प्रयास किया आरिणी ने.
“अरु… लव यू टू”,
आरव ने उसके आंसू पौंछते हुए कॉलेज के खुशनुमा दिनों को जीवंत करना चाहा. प्रतिउत्तर में वह आरव की गोदी में सर रख बच्चों-सी सिसकने लगी.
“अरु, मेरी फाइटर… यह झाँसी की रानी निरूपा राय के रोल में नहीं जंचती”,
वह उसके माथे पर चुम्बन अंकित करता हुआ बोला.
“दुष्ट हो तुम… जाओ मैं नहीं करती तुमसे बात.”
“हाँ, अब लगी न मेरी वाली अरु!”,
अरु और आरव की सम्मिलित हंसी से वह पल गुलजार हो उठे.
००००