२६.
प्रेम… या उलझन
आज, आरव के बात करने से वह थोड़ा अच्छा महसूस कर रही थी. प्रेम के दो शब्द ही काफी होते हैं स्त्री का मन जीतने के लिए, यह जानने के लिए कोई विशेषज्ञता की पढ़ाई भी नहीं करनी होती. सिर्फ संवेदना का स्तर ही तो मैच कराना होता है, जो आज लगता था, फिर से मेल खा रहा था. प्रेम के इन चार शब्दों से ही आरिणी पिघल कर वही पुरानी थोड़ा चुलबुली-सी बनने को तैयार हो गई थी. यह आरव भी देख पा रहा था कि आरिणी के मन की बात होने भर से उसकी आँखों में जो चमक आई थी, उससे पूरी आरिणी… उसका रोम रोम जैसे महक उठा था. मोगरे के फूल नीचे दूर की क्यारियों में लगे थे, पर बयार का झोंका उस सुगंध को इस कमरे तक भी उड़ा लाया था.
आरव कोशिश करता रहा आरिणी का दिल जीतने की और आरिणी भी उसे सहयोग देती. उसने ही प्रेरित किया आरव को कई कंपनियों में जॉब के लिए अप्लाई करने के लिए. उसकी सोच थोड़ा अलग थी. वह मानती थी कि लखनऊ में इतने अवसर नहीं हैं. चाहती थी कि वह भी मेनस्ट्रीम में आये, ताकि एक बेहतर करियर बन सके उसका.
एक दिन अच्छे मूड में समझाया उसने आरव को,
“देखो, मेरी सोच बिलकुल साफ़ है… अगर आपको करियर बनाना है तो थोड़ा संघर्ष तो करना पड़ेगा ही. और जितनी कम उम्र में संघर्ष कर लोगे उतना ही आगे के लिए बेहतर रहेगा. मैंने बहुत किस्से सुने हैं ऐसे, कि जब उम्र थी तब ईजी लाइफ जी, और बाद में खराब वक्त का सामना करना पड़ा. और फिर, तुम्हारे स्कोर तो मुझसे भी कहीं ज्यादा हैं. क्यों नहीं जॉब मिलेगा तुमको… बस जो भी शार्टकमिंग हैं, उन पर वर्क करो. कोई मुश्किल नहीं है.”
“जैसा तुम कहो, सब वैसा ही करूंगा, बस तुम जाने की बात नहीं करना.”
“नही करुँगी….”,
आरिणी को आरव एक अबोध बच्चे सा मासूम लगा. उसका मन किया कि बिना इधर-उधर देखे वह उसके ललाट पर अपने अधरों का निशाँ बना दे, और आरव उसे अपने मजबूत बंधन में इस तरह बाँध ले कि वह छूटना भी चाहे तो, न छूट पाए.
दुसरे ही पल वह सोचने लगी कि एक माँ क्या सिर्फ इसीलिए अपने शिशु से असीम अनुराग रखती है कि उसने उसे जन्म दिया है? ऐसा होता तो क्या यशोदा और कृष्ण की प्रीत उदाहरण बनती. एक शिशु की अपनी मां पर पूर्ण निर्भरता ही मां को जिम्मेदार बना देती है. जैसे कि कोई अज्ञानी भक्त प्रभु के चरणों में खुद को पूर्ण समर्पित कर दे तो प्रभु उसकी हर जिम्मेदारी स्वयं ही तो वहन करते हैं. ऐसा ही अब आरिणी को अनुभव हो रहा था. वह महसूस कर रही थी कि उसके और आरव के रिश्ते में ठहराव न भी आये तो अब वापसी का मार्ग नहीं है.
लेकिन समस्या एक ही थी. बिना मुख्य समस्या जाने वह कैसे आरव को पूर्ण स्वास्थ्य लाभ करा सकती है. उसका चचेरा भाई डॉक्टर था. आरिणी चाहती थी कि आरव उनसे मिले. लो, अभी सोचा ही था कि उर्मिला जी इधर ही आ निकली. बिफरते हुए बोली,
“तुम्हें एक बड़ी कम्पनी से नौकरी का ऑफर क्या आ गया तुम तो बाकी सब को पागल समझने लगी हो!”
आरिणी उनके इस अज्ञान पर कम, सोच पर अधिक हतप्रभ थी. बोली,
“मम्मी जी, ऐसा कब कहा मैंने? मानसिक रोग भी शारीरिक रोगों जैसे ही होते हैं…”,
लेकिन वह कुछ सुनना नहीं चाहती थी. बोली, “बस करो!”,
और बडबडाती हुई चली गई.
आरिणी रो पडी. आरव घर के बिगड़ते माहौल से परेशान हो उठा. अधिकतर समय घर के बाहर बिता रहा था, सदा की तरह सिर्फ वर्तिका ही उसके साथ थी.
“वर्तिका, कुछ तो है जो छिपाया जा रहा है. मैं तो बस मदद करना चाहती हूँ प्रॉपर इलाज आवश्यक है”,
सिसकियों और आंसुओं के बीच आरिणी ने कहा.
“आप चिंता न करो भाभी. मां ने खुद कई डॉक्टर्स को दिखाया है भैया को. उनका इलाज चलता रहा है. शादी की भाग-दौड़ में दवाई मिस होने से तबियत खराब हुई शायद”,
वर्तिका ने बात सम्भालते हुए कहा.
“लेकिन है क्या? कोई मुझे भी तो बताये. क्या मेरा हक नहीं जानने का?”,
अब आरिणी भी जिद्द पर उतर आई थी.
“अधिक तो मुझे पता नहीं भाभी, लेकिन कुछ शिजोफ्रेनिया जैसा है”,
वह बोली.
“और मां की गलती नहीं है… उनका मोह है भैया से. कैसे मान लें वह कि ऐसी स्थिति से गुजर रहा है उनका बेटा. सच कहूँ तो मुझे तो चिंता होने लगती है उनकी भी. कहीं इस सब का कुछ विपरीत असर न हो जाए उन पर भी”,
वर्तिका ने कहा तो जैसे आरिणी की तन्द्रा टूटी.
उसने कस कर वर्तिका का हाथ पकड लिया… जैसे कह रही हो,
‘मैं ढाल बनकर खड़ी हूँ न!’
आज वर्तिका से उसने काफी बातें की. उसने भी आरिणी की सभी जिज्ञासाओं का मन से समाधान किया, जितना वो कर सकती थी. दोनों ने तय किया कि इस स्थिति से उबारने के लिए जो भी करना होगा, वह करेंगी और फिर, आज के समय में जब मेडिकल साइंस ने इतनी तरक्की कर ली है, तो यह कौन सी बड़ी बीमारी है, जिससे लड़ा नहीं जा सकता.
“मेरा चचेरा भाई विनय सिंह किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में डॉक्टर है.. वह पोस्टेड तो ट्रामा सेण्टर में है, पर उसी के ठीक सामने साइकैट्री डिपार्टमेंट है. मैं उस से बात कर सकती हूँ लेकिन इससे पहले आरव और मॉम की भी रजामंदी चाहिए. यही बड़ी बात है. पापा की तो हर उस बात में रजामंदी है, जिसमें सबकी रजामंदी हो, इसलिए उनकी तरफ से कोई चिंता नहीं. आरव से भी आराम से बात हो सकती है, पर मम्मी जी… उनसे बात करने का कोई भी परिणाम हो सकता था वर्तिका”,
आरिणी ने समझाया.
“मैं बात करूंगी मां से”,
वर्तिका ने कहा तो थोड़ी राहत मिली उसे.
आज फिर से आरिणी ने किचेन की कमान सम्भाली. अब उसे ही सब देखना था. हिम्मत से काम लेना था उसे…. अगर कुछ नकारात्मक विचार आते तो निकाल फेंकती उनको वह. बस अच्छे विचार ही रहते… हाँ, उन्हीं से तो जीवन स्वर्णिम हो सकता है, वह सोचती. सपनों का क्या है, वह तो यूँ ही भरमाया करते हैं. कुछ बुनते ही टूट जाते हैं, कुछ विदाई के अंतिम पलों तक भी साथ निभाते हैं. बस अच्छी बात यह है कि जितना चाहो, उतने ही विश्वास की परिधि तय कर सकते हो आप उनकी.
आरिणी ने फिलहाल होंडा कार कंपनी में ज्वाइन करने की प्रक्रिया को स्थगित कर दिया था. यानि इनकार भी नहीं किया था, पर कुछ समय… तीन महीने की मांग कर ली थी. अब प्रतीक्षा थी उनके उत्तर की.
इस बीच आरिणी ने नेट से काफी जानकारी इकट्ठा कर ली थी इस बीमारी के बारे में. वह जानती थी कि बेहतर इलाज के लिए पूरे परिवार का व्यक्तिगत और आत्मिक स्तर से साथ मिलना जरूरी है. चिकित्सक की भूमिका द्वैत्यिक है, यह भी वह समझती थी. आज उसे उर्मिला जी से चर्चा करनी थी इस विषय पर. उसके बाद ही विनय से बात कर आगे का तय करना था.
लंच पर आरव बोला,
“दिल जीतने का पूरा इंतजाम है तुम्हारे पास.. ! इतनी बढ़िया डिशेज बनाती हो कि तुमसे प्रेम के अलावा कुछ और सूझता ही नहीं.”
उतनी ही बराबर हंसी बिखेरती हुई आरिणी ने कहा,
“अब अगर आपका भी दिल न जीत पाई तो मेरा यहाँ रहना व्यर्थ ही होगा न ? इसलिए मैं ऐसा कोई भी अवसर हाथ से न जाने दूंगी.”
और… सब खिलखिलाकर हंस पड़े.
मौका पाकर वर्तिका ने बात छेड़ी. बोली,
“मां, हम लोग सोच रहे हैं कि भाई के ट्रीटमेंट के पेपर्स एक बार के जी एम यू में दिखा लें. कोई बड़ी बात नहीं है यह बीमारी, और अभी समय भी ज्यादा नहीं हुआ है.”
“जैसा तुम लोग सही समझो .अधिक समझदार हो तुम लोग”,
वह टेबल से उठती हुई बोली.
क्षण भर पहले की हंसी के अवशेष भी अब किसी के चेहरे पर नहीं थे.
वह उठ कर कपबोर्ड की तरफ गई. उसे खोलकर उन्होंने आरव के प्रिस्क्रिप्शन की फाइल लाकर आरिणी के हाथों में सौंप दी.
“मैं माँ होकर भी क्या आरव का अहित चाहूंगी? लेकिन तुम्हें जब विश्वास ही नहीं मुझ पर तो तुम ही सम्भालो”,
उर्मिला के स्वर की कड़ुवाहट पर आरिणी भी थोड़ा संयम खो बैठी थी. फाइल के कागज व्यवस्थित करती हुई बोली,
“मैं भी उसकी धर्मपत्नी हूँ मम्मी जी, निश्चिन्त रहिये आपका बेटा मेरे साथ सुरक्षित है”,
और एक नजर आरव पर डाल अपने कमरे में जाने के लिए मुड़ी. फिर पलट कर बोली,
“और हाँ... यह जो रोज सुबह आप पूतो-फलो का आशीर्वाद देती हैं न, वह भी कभी संभव नहीं हो पायेगा बिना प्रॉपर इलाज के…..!”
“देखा... कितनी बदल गयी है. कोई मान ही नहीं देती. आरव पागल होता तो क्या इससे ज्यादा नंबर यूँ ही आ जाते हर विषय में. पता नहीं खुद को क्या समझती है”,
उर्मिला जी अपनी इतनी तौहीन पर गुस्से से कांप रही थी.
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