A Journey Parallel - 3 - Last Part in Hindi Moral Stories by Gopal Mathur books and stories PDF | एक यात्रा समानान्तर - 3 - अंतिम भाग

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एक यात्रा समानान्तर - 3 - अंतिम भाग

3

”और तुम्हारे उन्हीं भटके हुए दिनों की सजा मैं भुगत रही हूँ.“ वह सीधे निखिल को देखती हुई कहती है.... फिर वह बाहर देखने लगती है.

वह कुछ नहीं कहता. उसकी निगाहें भी बाहर लगी हुई हैं. वह भी वही सब देख रहा है, जो अनु.... उतरती रात, बिना चाँद का आकाश, चिनार के घने पेड़, होटल का लाॅन, मन्द बहती हवा........

पल भर बाद निखिल की फुसफुसाती सी आवाज आती है, ”अनु....“

उसका ध्यान निखिल पर लौट आता है.

”मैं नहीं जानता आज यह सब कहने का कोई अर्थ है कि नहीं, पर कई बार ऐसा होता है, जब हम अपने में नहीं होते, हमारा अपना विवेक जैसे कहीं खो जाता है.....“ वह ठिठक जाता है, ”जैसे हम यात्रा कर रहे हों और अचानक कोई शहर हमें अपनी गिरफ्त में बांध ले और वहीं उतर जाएँ. हमें उस शहर में ठहरना नहीं होता, न ही वहाँ उतरना हमारी किसी योजना का हिस्सा होता है, पर फिर भी हम उतर जाते हैं..... जैसे हमें कोई पुकार रहा हो. हालांकि पुकारता कोई नहीं, वह हमारी ही आवाज होती है, जो पुकार बन कर हमें ही सुनाई देने लगती है......“

”यह तुम क्या कह रहे हो निखिल ? ऐसा कैसे हो सकता है ?“

”हो सकता है अनु..... पूर्वांचल के सुदूर राज्यों की यात्रा करते समय मेरे साथ ऐसा कई बार हुआ है. छोटे छोटे पहाड़ी कस्बे मेरा मन मोह लिया करते थे और मैं उन जगहों पर उतर जाया करता था, जो मेरी यात्रा के पड़ावों में नहीं हुआ करते थे.... लेकिन उन अपरिचित जगहों पर मैंने जो पाया, जो महसूस किया, वह उन जगहों से बेहतर था, जो मेरे यात्रा कार्यक्रम का हिस्सा हुआ करते थे.....“

अनु ध्यान से निखिल को सुन रही है और कुछ कुछ उसकी समझ में आ भी रहा है कि आखिर वह कहना क्या चाह रहा है, ”तो ?“

”इस बार भी यही हुआ..... मैं अच्छा खासा खुश खुश तुम्हारे साथ जा रहा था कि अचानक किसी ने हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया.... जैसे कि वे छोटे छोटे पहाड़ी कस्बे खींच लिया करते थे, पर तब मैं कुछ दिनों बाद अपने शहर लौट आया करता था...... इस बार लौट नहीं सका. गलती यह हुई कि मैं एक कस्बे में और एक सांस लेती लड़की में अन्तर नहीं कर सका. एक अनजान लड़की ने मेरा हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा मैं खिंचता चला गया. मैंने अपना हाथ छुड़ाने का कोई प्रयास भी नहीं किया....... उसके हाथ की पकड़ इतनी सम्मोहक थी, इतनी स्वप्निल, इतनी नशीली कि मैं सब कुछ बिसार बैठा. केवल और केवल उसका हमेशा साथ होना ही एकमात्र सच बन कर रह गया......“ निखिल रुक रुक कर बोल रहा है.

”तुम मुझे भी भूल गए ? हमारे इतने लम्बे साथ को भी भूल गए ? मैं विश्वास करूँ तो कैसे करूँ ?“ वह कठिनाई से इतना ही कह पाती है.

”तुम्हें विश्वास दिलाने का मेरे पास कोई तरीका नहीं है..... काश ! वे दिन जीवन में आए ही नहीं होते. काश ! तुमने मुझे अपर्णा से मिलवाया ही नहीं होता.“

थोड़ी देर वह चुप रहती है. रात गहराने लगी है और परिन्दे अपने घौंसलों में लौटने लगे हैं. हवा में ठंडक सहसा बढ़ गई है.

”अब उन बातों का कोई महत्व नहीं, जो लौटाई नहीं जा सकतीं. बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आता. अपने निर्णयों को हमें उम्र भर ढोना पड़ता है...... और मुझे तो वे निर्णय ढोने हैं, जिन्हें मैंने लिया ही नहीं है !“ पल भर के लिए वह रुकती है, ”ऐसा मेरे साथ ही क्यों हुआ निखिल ?“

निखिल कुछ नहीं कहता. वह अपना हाथ बढ़ा कर लाइट जलाने लगता है कि अनु उसे रोक देती है, ”नहीं, लाइट मत जलाओ. यह अंधेरा मैं ही हूँ.“

निखिल का हाथ लौट आता है, जैसे उसे पीछे धकेल दिया गया हो. कमरे में बाहर की तुलना में अंधेरा कुछ ज्यादा धना हो आया है. दूर कहीं चाँद उगने लगा है. शाम के छिटपुट तारे टिमटिमा रहे हैं. पर उनकी रोशनी में इतनी कूवत नहीं है कि वह उन तक पहुँच सके.

ÛÛÛ

सहसा अनु घूमती है और उसी कुर्सी पर जाकर बैठ जाती है. निखिल भी अपनी उसी जगह पर आ बैठता है. उसे अंधेरा खलने लगता है और वह साइड लैम्प जला देता है. इस बार अनु चाह कर भी मना नहीं कर पाती. कमरे में हल्की रोशनी फैल जाती है.

”एक बात कहूँ ?“ अनु कहती है.

निखिल उसे देखने लगता है.

”इस बात का दुःख तो मुझे है ही कि तुमने मुझे छोड़ दिया, पर इस बात का और भी अधिक है कि अब मैं वैसी नहीं रह पाऊँगी, जैसी कि मैं हमेशा रही हूँ. समझ रहे हो न ! जैसे हो, वैसे नहीं रह पाना एक यन्त्रणादायक स्थिति है. जैसे मैंने अपने ही किसी हिस्से को काट कर फैंक दिया हो. मैं अब हमेशा खुद में खुद के काटे हुए हिस्से को ढूँढ़ती रहती हूँ. लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं, मुझे कभी इसकी परवाह नहीं रही, लेकिन मैं अपने बारे में क्या सोचती हूँ, यह मेरे लिए माइने रखता है.“

वह रुक जाती है, जैसे गहरे पानी में सांस लेने के लिए ऊपर आई हो, ”कई बार मुझे लगता था कि घटनाओं के घटने में हमारा कोई हाथ नहीं होता. वे घटती हैं क्योंकि उन्हें घटित होना होता है. हम स्वयं अपने दर्शक बन जाते हैं और एक दर्शक की तरह खुद को घटित होते हुए देखते रहते हैं..... जैसे कोई नदी बह रही हो और हम उसका बहना देख रहे हों. नदी के बहने न बहने में हमारा कोई हाथ नहीं होता, बस हम किनारे पर खड़े उसका बहना देखते रहते हैं...... हमेशा तो नहीं, पर क्या जिन्दगी भी कई बार ऐसी ही नहीं हो जाती ? हमसे असंपृक्त, निरपेक्ष, उदासीन.....“

निखिल कुछ नहीं कहता. अनु के लिए यह अनुमान लगाना कठिन हो जाता है कि इस समय वह क्या सोच रहा होगा. निखिल को इस प्रकार चुप देख कर अनु के मन में गहरी उदासीनता छाने लगती है. उसका मन करता है कि वह निखिल को वहीं अकेला छोड़ कर बाहर चली जाए. निखिल अपने में इतना खोया हुआ है कि उसे अनु के उठ कर बाहर चले जाने का पता भी नहीं चलेगा.

कमरे की खामोशी बोलने लगती है पर उसे सुनने वाला वहाँ कोई नहीं है. वे दोनों भी नहीं...... एक समय था, जब उनकी दुनिया एक हुआ करती थी. हल्की सी आहट भी वे दोनों सुन लिया करते थे. उस दुनिया में एक ही दिन होता था और एक ही रात. शाम भी एक ही आती थी जिसके खुशनुमा रंग दोनों की आत्मा में एक साथ उतर जाया करते थे...... पर यह पुरानी बात है, जब निखिल ने अपना दरवाजा बन्द नहीं किया था.

खिड़की के बाहर लगे चिनार जब हवा में हिलते हैं तब उनके पत्ते बातें करने लगते हैं. उनका शोर अंधेरे में भी सुनाई देने लगता है.

तभी उन्हें हल्का सा शोर सुनाई देता है. मनोज की हँसी गलियारे पार करते हुए उसके कमरे तक चली आई है. वे लौट आए हैं. सन्नाटा टूट कर बिखरने लगता है.

निखिल जैसे गहरी नींद से जाग जाता है. वह उठ कर जल्दी से कमरे की तेज लाइट जला देता है, जिससे कमरा दूधिया रोशनी में नहा उठता है. अनु भी जल्दी से बिस्तर पर लेट कर कम्बल खींच लेती है, मानो सुबह से वहीं लेटी हो. दोनों ही सहज होने की कोशिश करने लगते हैं.

कमरे में सबसे पहले शिखा आती है, अपर्णा और मनोज उसके पीछे हैं. वे गर्म कपड़ों से लदे हैं, जिन्हें उन्होंने शंकराचार्य के मंदिर में पहना होगा.

”कैसी हो अनु ?“ शिखा उसके बैड के पास आकर पूछती है.

”अब ठीक हूँ. सारा दिन सोते सोते निकल गया, कुछ पता ही नहीं चला !“ वह बैठते हुए कहती है.

”नहीं नहीं. लेटी रहो. कुछ खाया पीया कि नहीं ?“

”हाँ, दिन में कुछ बिस्किट्स और चाय ली थी.“

मनोज बैड के दूसरी ओर खड़ा है, ”थैंक्स गाॅड, तुम्हारा बुखार उतर गया.“

वह कुछ नहीं कहती.

अपर्णा और निखिल ठीक उसके सामने खड़े हुए हैं, सीधे उसे देखते हुए. निखिल को अपर्णा के साथ खड़ा देख कर सहसा उसे विश्वास नहीं होता कि यह वही निखिल है, जो अभी कुछ देर पहले उसके साथ था. अपर्णा के साथ होते ही निखिल की पूरी बाॅडी लैंगवेज बदल गई है. यह वह निखिल नहीं है, जिसे वह जानती है. उसका मन करता है कि सब यहाँ से चले जाएँ, ताकि वह अकेली रह सके.

”जानती हो अनु, मंदिर के बाद हम डल लेक भी गए थे. हम शिकारे पर घूमे रहे थे और तुम्हें याद कर रहे थे..... स्पेशियली तब, जब शिकारे वाला ललद्यय के लोक गीत गा रहा था.“ मनोज मुस्कराता है.

”काश ! मैं चल पाती.“

सहसा अपर्णा कहती है, ”मैं बहुत थक गई हूँ और कमरे में जाकर आराम करना चाहती हूँ...... निखिल, तुम आ रहे हो न ?“

”तुम चलो, मैं आता हूँ.“, निखिल वहीं रुक जाता है.

”अनु, तुम्हें एक बात और बतानी है.“ मनोज कहता है, ”शंकराचार्य के मंदिर में हमने फैसला किया है कि लौटते ही हम शादी कर लेंगे.“

”अरे वाह ! कोन्ग्रेचुलेशन्स ! यह तो बड़ी खुशी खबरी है..... तुम दोनों ने इतना वेट भी क्यों किया, शादी तो तुम कभी भी कर सकते थे !“ अनु कहती है.

”ममी पापा तो दो साल से पीछे पड़े हैं, मनोज ही अपने प्रमोशन का इन्तजार कर रहा था.“ इस बार शिखा कहती है. उसकी खुशी छुपाए नहीं छुप रही है.

”पर अब और इन्तजार नहीं.“ और मनोज उनके सामने ही शिखा को हग कर लेता है.

”अब हम भी थोड़ी देर आराम कर लेते हैं.“ शिखा कहती है, ”डिनर पर तो आओगी न ?“

”नहीं, सोचती हूँ यहीं कुछ मंगवा लूँगी.“

”ठीक है, टाइम से दवाईयाँ ले लेना..... और हमारा कमरा पास ही है. कोई भी दिक्कत हो, तुरंत बुला लेना.“

उन दोनों के चले जाने के बाद एक बार फिर वह निखिल के साथ अकेली रह जाती है. कोई कुछ नहीं कहता. अनु के मन में एक अजीब सा खालीपन घर करने लगता है. निखिल पहले ही अपर्णा से विवाह कर चुका है और अब मनोज भी शिखा से विवाह कर रहा है. वह अकेली रह जाएगी. क्या यही उसकी नियती है ?

सहसा निखिल कहता है, ”अब मुझे भी चलना चाहिए. तुम जानती ही हो कि अपर्णा को मेरा इस तरह तुम्हारे कमरे में अकेला होना पसंद नहीं आएगा.“

”जाते समय लाइट बन्द कर जाना.“

वह लाइट बन्द कर देता है और दरवाजे की ओर बढ़ जाता है.  दरवाजा खोलता है, लेकिन जाता नहीं, वहीं ठिठक जाता है. अंधेरे में उसकी निगाहें अनु को टटोल रही हैं, ”अनु......“

वह उसे ही देख रही है, ”हाँ निखिल, बोलो.“

वह कुछ पल वैसे ही खड़ा रहता है, निश्चल, एकटक उसे देखता हुआ, ”कुछ नहीं.....“

इस बार वह रुकता नहीं, तुरंत चला जाता है. दरवाजा बंद होने की आवाज आती है और फिर वही निस्तब्धता छा जाती है. अनु को लगता है, जैसे कुछ कहा जाना था, जो कहे जाने से रह गया, कुछ सुना जाना था, जो सुने जाने से रह गया..... एक कांटा भी था, जो निकाले जाने से रह गया..

वह वैसे ही लेटी रहती है. पल भर के लिए उसे लगता है, जैसे निखिल गया नहीं हो. दरवाजे की दूसरी ओर खड़ा हो, उसकी प्रतीक्षा में, वह  दरवाजा खोलेगी और वह उसे अपनी बाहों में भर लेगा.... बीच के दिन सपनों से मिट जाएँगे......

.....पर मैं जानती हूँ कि जो कुछ मेरे साथ हो रहा है, निखिल कोई सपना नहीं है. यदि सपना है भी, तो कभी टूटेगा नहीं..... बीता हुआ कल, आज और आने वाला कल टुकड़ों में बँट गया है, जुड़े हुए पर अलग, जैसे रेल के कम्पार्टमेन्ट होते हैं.... उनके अलग अलग होने के बावजूद भी रेल लगातार चलती रहती है.... मैं भी यात्रा पर हूँ, इस कश्मीर यात्रा के अलग किसी यात्रा पर हूँ..... एक सामानान्तर यात्रा पर, एक दिन आएगा, जब यह रेल किसी स्टेशन पर रुकेगी. मैं उस अनजान स्टेशन पर उतर जाऊँगी, जैसे एक दिन निखिल उतर गया था, वहाँ कोई होगा..... कोई सुख या दुःख... या महज एक अनुभव, जो मेरा हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींच लेगा, खुले आकाश के नीचे..... और तब मुझे लगेगा, अरे ! आकाश इतना नीला होता है !! मुझे तो पता ही नहीं था.!

ÛÛÛ