स्वतंत्र सक्सेना की कविताएं
काव्य संग्रह
सरल नहीं था यह काम
स्वतंत्र कुमार सक्सेना
सवित्री सेवा आश्रम तहसील रोड़
डबरा (जिला-ग्वालियर) मध्यप्रदेश
9617392373
सम्पादकीय
स्वतंत्र कुमार की कविताओं को पढ़ते हुये
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’
कविता स्मृति की पोटली होती है| जो कुछ घट चुका है उसमें से काम की बातें छाँटने का सिलसिला कवि के मन में निरंतर चलता रहता है| सार-तत्व को ग्रहण कर और थोथे को उड़ाते हुए सजग कवि अपनी स्मृतियों को अद्यतन करता रहता है, प्रासंगिक बनाता रहता है |
स्वतंत्र ने समाज को अपने तरीके से समझा है| वे अपने आसपास पसरे यथार्थ को अपनी कविताओं के लिए चुनते हैं| समाज व्यवस्था, राज व्यवस्था और अर्थव्यवस्था की विद्रूपताओं को सामने लाने में स्वतंत्र सन्नद्ध होते हैं|
अपने कवि की सीमाओं की खुद ही पहचान करते हुए स्वतंत्र कुमार लेखनकार्य में निरंतर लगे रहें, हमारी यही कामना है| सम्पादक
31 चक्रेश् जी
सफेद बाल चश्मे से झांकती आंखें
याद आई हमें वे साथ गुजारी सांझें
तुम्हारी छाया में संवारे आने वाले पल
अभी भी आंखों में झूमे हैं बीता वो हर पल
तुम्हारा वो ममता भरा प्यार
छोटी सी मेरी तकलीफ पर होते बेकरार
तुम कितने रहते थे सावधान
हंसने का कोई क्षण न जाए टल
आज जीवन बहुत व्यस्त है
समस्याओं में ग्रस्त है
जब कोई अपना
कहीं दूर मिलता है
बातों का सिलसिला चलता है
फिर घिर आती है तुम्हारी याद
सांसों में भर जाती है सुगंध
रूंध जाता है कंठ
आंखों मैं तैरने लगते हैं
सुनहरे पल
गुनगुनाने लगता है कल
3 2 हम हालात को बदलें
अपने से न बदलेंगे हम हालात को बदलें
आवाज को ऊंची करें मिल सड़कों पर निकलें
इंकलाब जिंदाबाद.्...........................
एक ताल पर हजारों कदम चलें
मुट्ठयों बंधे हाथ हवा में हिले
एक ही संकल्प मन में ठान कर
अलग-अलग हो कंठ सुर सभी मिले
आवाज को ऊंचा करें मिल सड़कों पर निकले
इंकलाब जिंदाबाद...........................
थरथराए धरती और गूंजे आसमान
बॉंहें हो उठी हुई, हो कंधे पर निशान
हाथ में हो हाथ सर उठा के सब चलें
हर आंख में सुनहरे कल के सपने हो पले
आवाज की ऊंचा करें मिल सड़कों पर निकले
इंकलाब जिंदाबाद..................................
अंधकार के खिलाफ ज्योति के लिये
वर्जनाओं बेडि़यों से मुक्ति के लिये
सिल दिये जो ओठ उनमें शब्द के लिये
हमको बढ़के तोड़ना है जुल्म के किले
आवजा को ऊंचा कर मिल सड़कों पर निकलें
इंकलाब जिंदाबाद..........................7
लाठियां हैं गोलियां हैं और सूलियां
गालियां हैं धमकियां हैं मीठी बोलिया हैं
एकता को तोड़ने संघर्ष मोड़ने
वे चला रहे हैं नए नए सिलसिले
आवाज को ऊंचा करें मिल सड़कों पर निकलें
इंकलाब जिंदाबाद............................
बढ़ रही हजारों गुना लूट है
अब नहीं किसी की कोई छूट है
सबुह शाम बढ़ रहे दाम हैं
लागू मजदूरियों पर जाम है
हर तरह से गढ़ रहे वे झूठ है
आओ ये तिलिस्म तोड़ने चलें
आवाज को ऊंचा करें मिल सड़कों पर निकलें
इंकलाब जिंदाबाद..................................
33 रम्मू कक्का
रम्मू कक्का कभ्ऊ न मंदिर की सिडि़यां चढ़ पाये
दूर सड़क पै ठांणे हाथ जोर भर पाये
आंगे पीछे चौतरा रोजई वे झारत ते
डलिया भर भर रोज मूड़ पै वे कूड़ा डारत ते
रेख उठी तो जब से उनकी तब से तन गारत ते
द्वारे के भीतर देवता खों कमऊं झांक न पाए
उठा फावरा पिछवाड़े ते नरिया वे ई बनावें
गजरा फूल बेल पत्तन खो भुंसारे से उठावे
देवता के जगवे से पहले वे रोज ई जग जातई
लोटा भर के जल देवता खों
कभ्ऊं चढ़ा न पाए
रम्मू काका.................................
छुन्नू पंडित जग में आए कक्की के हातन पै
नरा गाड़वे दाओ फावरो कक्का के हातन पै
बने पुजारी जब सें पंडित तो जाने का हो गओ
एक दिना ककका से छू गये तो भारी खिसयाए
रम्मू कक्का........................
ऊंच नीच है कोरी बांते हिन्दु मुसलमान
जगन्नाथ जी नाम है बाके वो सब को भगवान
बड़े दिनन से बड़े मान्स सब ऐसी बातें कर रहे
चढ़े चौंतरा वेई कक्का खो धमका राये गरिया राये
जानत समझत सबई कछू पर बोल कभऊं न पाए
रम्मू कक्का............................
34 तीर के निशान वे बने
तीर के निशान वे बने
सर वे जो कमान न बने
जो अनोखी राह को चुने
भीड़ के समान न बने
जाने कैसी कोशिशें थीं कि
कोई भी निदान न बने
आंधियां ही ऐसी कुछ चलीं
फिर कोई वितान न तने
शांति की जो बात कर रहे
ओठ रक्त पान से सने
जकड़े रहे बंधनों में जो
पर न आसमान में तने
तेरा ही गुणगान हे प्रभु
खंजरों की शान न बने
बच्चे डरे मां ए जा छिपे
मेरी ये पहिचान न बने
मनमस्त हो के झूमे न जब तक
धीर जैसा गान न बने
तर्क सारे मोथरे हुए
भावुकों के कान न सुने
35 दिन जश्ने आजादी का
दिन जश्ने आजादी का और बन्द है मैखाना
बदलो जी इसे बदलो कानून यह पुराना
उनसे जो कहे कुछ भी है जुर्म बड़ा भारी
मर्दों पर सब पाबन्दी आजाद है जनाना
जिसने दिखाये हमको सपने सुनहरे कल के
उनको ही आज हमसे नजरें पड़ी चुराना
हिन्दू हैं हम न मुस्लिम हम हैं बस पीने वाले
मंदिर व मस्जिदों से तो वैर है पुराना
दुख से भरे जहॉं में कुछ पल तो चैन के हों
हो साथ पीने वाले को हाथ में पैमाना
सुनते चुनाव आया खुश किस्मती हमारी
अब कंठ तृप्त होंगे खुल जाएगा मैखाना
आजादी अधूरी है पीने पर लगी बंदिश
कभी तो स्वतंत्र होगा हर मोड़ पर मैखाना
मेरा सलाम यारो न जाने कब मिले फिर
दुनिया है तो लगा ही रहता है आना जाना