स्वतंत्र सक्सेना की कविताएं
काव्य संग्रह
सरल नहीं था यह काम
स्वतंत्र कुमार सक्सेना
सवित्री सेवा आश्रम तहसील रोड़
डबरा (जिला-ग्वालियर) मध्यप्रदेश
9617392373
सम्पादकीय
स्वतंत्र कुमार की कविताओं को पढ़ते हुये
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’
कविता स्मृति की पोटली होती है| जो कुछ घट चुका है उसमें से काम की बातें छाँटने का सिलसिला कवि के मन में निरंतर चलता रहता है| सार-तत्व को ग्रहण कर और थोथे को उड़ाते हुए सजग कवि अपनी स्मृतियों को अद्यतन करता रहता है, प्रासंगिक बनाता रहता है |
स्वतंत्र ने समाज को अपने तरीके से समझा है| वे अपने आसपास पसरे यथार्थ को अपनी कविताओं के लिए चुनते हैं| समाज व्यवस्था, राज व्यवस्था और अर्थव्यवस्था की विद्रूपताओं को सामने लाने में स्वतंत्र सन्नद्ध होते हैं|
अपने कवि की सीमाओं की खुद ही पहचान करते हुए स्वतंत्र कुमार लेखनकार्य में निरंतर लगे रहें, हमारी यही कामना है| सम्पादक
16 चक्रेश कह गये
लड़ते रहो थको नहीं चक्रेश कह गये
अड़ते रहो मुझको नहीं चक्रेष कह गये
उद्भूत अभावों से ही होने सृजन को भाव
शाश्वत रची चुको नहीं चक्रेश कह गये
अपमान उपेक्षा घृणा है सत्य के उपहार
दृढ़ रहो बिको नहीं चक्रेश कह गये
रूकना है मौत चलने को कहते हैं जिन्दगी
बढ़ते चलो रूको नहीं चक्रेश कह गये
घुटता है दम संडाघ के माहौल में जहॉं
आत हमें यकीं नहीं चक्रेश रह गये
17 हम हैं छोटे छोटे अफसर
हम हैं छोटे छोटे अफसर
इतनी कृपा करो हे प्रभुवर
वेतन चाहे हो जैसा भी
कम न हो रिश्वत के अवसर
काम नहीं कुछ हमको आता
कुछ काला पीला हो जाता
खूब दबाते हैं सब मिलकर
फिर भी घोटाला खुल जाता
चुप हो जावें सब ले दे कर
इतनी कृपा करो हे प्रभुवर
इनकम वाला मिले इलाका
मनचाहा हम डालें डांका
कोई लौट न पाए सूखा
लूटें हम जनता को जमकर
इतनी कृपा करो हे प्रभुवर
भारी रकम बजट की आए
गाड़ी अमला रूतबा छाए
पूंछताछ बिल्कुल न होवे
झुले सच्चे बिल बनवाकर
सारा साफ करें हम डटकर
मक्खन दम भर खूब लगाते
दारू से उसको नहलाते
तंदूरी मुर्गा बिछवाते
जो बतलाते वह सब करते
कैसा भी हो अडि्यल टट्टू
मक्खन हो जाए सा पिघलकर
हर चुनाव में देते चंदा
चमचों को करवातें धंधा
दुश्मन पर कस देते फंदा
घेरा ऐसा पक्का होवे
कोई बच न जाए निकलकर
18 रहना है गर गांव में सुख से
रहना है गर गॉंव में सुख से दाऊ का हुक्का भर
पंडित जी को पालागन कर अरे राम से डर
सोंमपान करके जब मालिक जूते दे सर पर
पूर्व जन्म के भोग भोग ले मन में धीरज धर
रिक्शा खींचे भरी दोपहरी डबल सवारी भर
जो दे दें चुपके से ले ले मत तू चख चख कर
धरती के देवता पंडित जी दाऊ खुद प्रभुवर
छोड़ मजूरी की चिंता तू उनकी सेवा कर
बच्चे तेरे नंगे घूमें उजड़ा हो छप्पर
धरती पर भूखा हो लेकिन स्वर्ग की चिंताकर
छोड़ सुरक्षित घरवाली को दाऊ के खेतों पर
चैन की वंशी बजा नदी पर भैंसें घेराकर
ऊंची ऊंची डिग्री पढ़कर फिर तेरा ये सर
धन की चिंता मत कर बन्दे प्रभु का सुमिरन कर
पुडि़या खा दारू पी नेताओं की संगत कर
सर फूटे पर धर्म बढ़े कुछ जुगत न भिड़ाया कर
सुबह भागवत शाम रामायण सुन तु सीखा कर
हाड़ तोड़ तू मेहनत कर मत फल की चिंता कर
19 सुपर वाइजर बन गये लाल दीन दयाल
सुपर वाइजर बन गये लाल दीन दयाल
फूल गये फुकना हुए लाल हो गये गाल
हल्ला टीवी पर हुआ भारी मच गया शोर
टारगेट पीछे रहा केस हो गये भारे
अधिकारी खुश हुए और इनको मिला इनाम
पद तो ऊंचा कर दिया मही बढाए दाम
सेक्टर जो सबसे कठिन फौरन लिया संभाल
कीचढ़ से लाथपथ हुए कांटों से बेहाल
सुपर वाइजर बन गये लाल दीन दयाल
दौड़ धूप भारी हुई लाला हो गए बोर
पुर्जे ढीले हो गए निचुड़ गया सब जोर
लटक गये टी ए सभी नहीं हुआ पेमेंट
बढ़ी निराशा कुछ जगा असुरक्षा का सेंस
वायदा था पाया नहीं बंदुकी लायसेंस
चक्कर भारी पड़ गया उल्टी पड़ गई चाल
वर्कर उके वर्कर हुए लाल दीन दयाल
20 कस्बे का मेरा अस्पताल
कस्बे का मेरा अस्पताल
पूंछो न इसका हालचाल
रोगी के आते ही उसने
पर्चा हाथों में थमा दिया
सारे रोगों की एक दवा
नव अविष्कार ये बता दिया
छुट्टी हो या हो मार पीट
अनफिट होना है या फिट हो
सब दूर समस्याएं होंगी
बस बैंक गर्वनर की चिट हो
फैला था मोहक इन्द्रजाल
मेरे कस्बे का अस्पताल
डाक्टर ही था कुछ पिये हुए
एक नर्स साथ में लिये हुए
ओ टी के अन्दर घुसा हुआ
बाहर था पहरा लगा हुआ
बाकी सब करते कदम ताल
मेरे.................................
टेबिल पर लेटी मॉं तड़पे
बाहर जाकर सिस्टर झगड़े
जब तक न ही कुछ मोल भाव
बदले न उसके हाव भाव
कोई साहस करे शिकायत का
सब हंसकर देते बात टाल
मेरे कस्बे का अस्पताल
कोई था जन प्रतिनिधि का खास
कोई ऊंची अफसर का दास
कोई भेंट करे चावल शक्कर
कोई और चलावें कुछ चक्कर
हर नई चाल पर तुरूप चाल
मेरे कस्बे का अस्पताल