स्वतंत्र सक्सेना की कविता
काव्य संग्रह
सरल नहीं था यह काम
स्वतंत्र कुमार सक्सेना
सवित्री सेवा आश्रम तहसील रोड़
डबरा (जिला-ग्वालियर) मध्यप्रदेश
9617392373
सम्पादकीय
स्वतंत्र कुमार की कविताओं को पढ़ते हुये
वेदराम प्रजापति ‘मनमस्त’
कविता स्मृति की पोटली होती है| जो कुछ घट चुका है उसमें से काम की बातें छाँटने का सिलसिला कवि के मन में निरंतर चलता रहता है| सार-तत्व को ग्रहण कर और थोथे को उड़ाते हुए सजग कवि अपनी स्मृतियों को अद्यतन करता रहता है, प्रासंगिक बनाता रहता है |
स्वतंत्र ने समाज को अपने तरीके से समझा है| वे अपने आसपास पसरे यथार्थ को अपनी कविताओं के लिए चुनते हैं| समाज व्यवस्था, राज व्यवस्था और अर्थव्यवस्था की विद्रूपताओं को सामने लाने में स्वतंत्र सन्नद्ध होते हैं|
अपने कवि की सीमाओं की खुद ही पहचान करते हुए स्वतंत्र कुमार लेखनकार्य में निरंतर लगे रहें, हमारी यही कामना है| सम्पादक
1 तनी बंदूकों के साए
तनी बंदूकों के साए हों, भय के अंधियारे छाए हों
घड़ी-घड़ी आशंकाएं हों, चीत्कार करती दिशाएं हों
ऐसे में मैंने बच्चों को
चलते देखा हंसते देखा, गाते देखा
झण्डों को लहराते देखा
नारे कई लगाते देखा
नारे कई लगाते देखा
मुझे लगा कि भगत सिंह इनमें जिंदा है
मेरे देश के ही थे सिपाही उनको घेरे
डरपाते धमकाते उन पर आंख तरेरे
और विकास के नारों के ही साथ आए उन नेता जी को
देश धर्म की कसमें खाते नफरत की बदबू फैलाते
खाली हाथों नौजवान लगते थे हिंसक
देश धर्म को इनसे संकट
शांति देश को देना चाही मरघट जैसी
कर दी सबकी ऐसी तैसी
बहुओं के सर से वस्त्रों का हुआ अपहरण
कई दुशासन एक साथ मिल करते नर्तन
वादों से टहलाते देखा
स्वयं को ही झुठलाते देखा
तब सवाल करते बच्चों को
उनसे आंख मिलाते देखा
हंसते देखा गाते देखा
उनको गोली खाते देखा
सर पर लाठी खाते देखा
आगे कदम बढ़ाते देखा
लाल खून से रंगी हुई थी सारी सड़कें
देश वासियों के दिल धड़के
उनको जन गण गाते देखा
लगा कि उनमें भगत सिंह अब भी जिंदा है
नहीं किसी को करना अब कोई चिंता है
मेरा देश उनमें जिंदा है
बोल रहे थे वे सब इन्कलाब के नारे
एक नहीं सारे के सारे
उनमें ही है देश धड़कता
इन सपनों में भारत बसता
हक के खातिर लड़ते देखा
सच के खातिर मरते देखा
सूरज नया उगाते देखा
हाथों को लहराते देखा
सपनों को सच होते देखा
भारत नया बनाते देखा
हंसते देखा गाते देखा
हमने देखा तुमने देखा
मुझे लगा कि भगत सिंह उनमें जिंदा है
उनकी चिंता ही तो हम सब की चिंता है।
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2 लौटे तुम
लौटे तुम समझा मुझे सोया हुआ
मैं था तुम्हारी याद में खोया हुआ
खारे जल से गया सींचा लग गया
दिल में चाहत को तेरी बोया हुआ
साफ कागज देख मत हैरान जो
खत तो था पर अश्क में धोया हुआ
तुम मिले मुझको तो कुछ ऐसा लगा
मिल गया मेरा खुदा खोया हुआ
बोझ से दोहरे हुए जाते हैं वो
अपने कंधों पर हूँ मैं ढोया हुआ
रास्ता अब किससे हम पूंछे स्वतंत्र
हर कोई दिखता यहॉं है खोया हुआ
3 मेरे दिल में उनकी चाहत खूब थी
मेरे दिल में उनकी चाहत खूब थी
उनकी बातों में बनावट खूब थी
जिंदगी में रह गये अरमा अधूरे क्या हुआ
मौत के जलसे की दाबत खूब थी
सोच कर ही लोग दुबले हो गये
उनके आने की भी आहट खूब थी
दूर सब अपने पराये हो गये
फैसले के वक्त दिल में कसम साहट खूब थी
4 जब भी अफसर दौरा आए
जब भी अफसर दौरा आए
सबको सरपट दौड़ा आए
भारी भरकम लम्बी गाड़ी
बैठी हो बस एक सवारी
अक्सर रहता मुंह लटकाए
कभी-कभी धीमे मुस्काए
जब भी अफसर दौरा आए
सबको सरपट दौड़ा जाए
भीड़ जुटी हो चारों ओर
कुछ है चुप कुछ करते शोर
नमस्कार या गुड मॉर्निंग का
क्षण क्षण में जयकारा आए
जब भी अफसर दौरा आए
सबको सरपट दौड़ा जाए
कुछ सोते से गये उठाए
कुछ घर जाते गये लौटाए
हरकारे सब ओर दौड़ कर
बिस्तर से रोगी ले आए
जब भी अफसर दौरा आए
सबको सरपट दौड़ा जाए
सारा चक्का जाम हो गया
कोने-कोने नाम हो गया
जो था जहॉं वहीं से दौड़ा
ज्यों पैरों में पर उग आए
जब भी अफसर दौड़ा आए
कुछ थे साथी हिम्मत वाले
कुछ थे साहब के मत वाले
वाकी वहॉं उपस्थित ऐसे
जैसे घर में बैठे ठाले
ओरों की मैं बात कहूँ क्या
पर स्वतंत्र हरदम घबराए
जब अफसर दौरा आए