somewhere in the middle in Hindi Moral Stories by Gopal Mathur books and stories PDF | बीच में कहीं

Featured Books
Categories
Share

बीच में कहीं

गोपाल माथुर

क्या आपने कभी किसी अनजान शहर में ऐसी शाम बिताई है, जहाँ आपको ऐसे व्यक्ति की प्रतीक्षा करनी पड़े, जिसे आना ही नहीं था ? नहीं, मैं वेटिंग फाॅर गोदो के गोदो की बात नहीं कर रहा. मैं उस षाम के खालीपन की बात कर रहा हूँ, जो अणिमा के नहीं आने के कारण अकारण ही मेरे पास आकर खड़ा हो गया था.

जनाब, दरअसल हुआ कुछ यूँ था कि अणिमा अपने पिता के ट्रान्सफर हो जाने के कारण उनके साथ इस षहर में आ गई थी और जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था, मेरा उससे मिलना उतना ही जरूरी होता गया. वैसे तो मोबाइल से हर रोज़ कई बार उससे बात हो जाया करती थी, उसका चेहरा भी देख लिया करता था, पर आप तो जानते ही हैं, रूबरू मिलने की बात ही कुछ और होती है. और फिर इस बार उससे मिल कर सब कुछ तय करना था. ऐसा आखिर कब तक चल सकता था !

अणिमा के कहने पर ही मैं उसके षहर के इस उजाड़ से चर्च में आया था. आहते में लगे नारियल के ऊँचे ऊँचे पेड़ों के बीच चर्च की इमारत सहमी सी खड़ी हुई थी. गोथिक आर्कीटेक्ट से बना यह चर्च कभी भव्य रहा होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती थी. देख रेख के अभाव में चर्च की दीवारें बारिष में भीग भीग कर काली पड़ चुकी थीं और पुराने खिड़की दरवाजे भी किसी तरह अपना वजूद बचाए हुए थे. चर्च की छत पर लगा क्रोस अब भी आकाष थामें हुए खड़ा था. दूर दूर तक कहीं कोई दिखाई नहीं दे रहा था. चारों ओर घनीभूत खामाषी पसरी हुई थी. जब परिन्दों का कोई झुन्ड पेड़ों पर उतरता, तब उनकी चहचहाटों से डर कर यह खामोषी किसी वीरान कोटर में जा छिपती और पक्षियों के कलरव से लगने लगता, जैसे किसी उत्सव की तैयारी चल रही हो.

षायद अणिमा ने यह जगह इसलिए चुनी हो, क्योंकि यहाँ कोई आता जाता नहीं. पर क्या इतनी उदास सी जगह पर कोई निर्णय लिया जा सकता है ? वह भी एक ऐसा निर्णय, जो हमारे सम्बन्धों को एक दिषा देने वाला था.

मैं आहते के बाहर खड़ा खड़ा चर्च के ऊपर टंगे क्रोस को देखता रहा. वह भी मुझे ही देख रहा था. तभी मेरा मोबाइल घनघना उठा. अणिमा ही थी.

”तुम पहुँच गए क्या ?“ उसका फुसफुसाता सा स्वर सुनाई दिया.

”हाँ, बस अभी पहुँचा ही हूँ. तुम कहाँ हो ?“ मैंने पूछा.

”मैं अभी नहीं आ सकती. षायद छः, साढ़े छः बज जाएँ.“

”क्या बात कर रही हो यार ! मैं यहाँ इस सुनसान जगह पर दो घन्टे करूँगा क्या ? अभी तो सिर्फ चार ही बजे हैं.“

”समझा करो यार. घर पर कुछ प्रोब्लम है. छुपते छुपाते आना पड़ेगा. मैं जल्दी से जल्दी आने की कोषिष करूँगी.“ फिर उसने फोन काट दिया.

मोबाइल में जहाँ अभी उसकी आवाज थी, अब वहाँ सन्नाटा था. मैं उसे दुबारा फोन भी नहीं कर सकता था. मौका देख कर वही फोन किया करती थी. कुछ पलों तक में अपने मोबाइल को घूरता रहा, जैसे अपनी खीज उस पर निकाली जा सकती हो और वह अणिमा तक पहुँच भी जाएगी.

घड़ी की सूईयों से बिछुड़ा समय बच गया था. कुछ होने और नहीं होने के बीच का उकताहट भरा समय. यह वह समय था, जो अणिमा के साथ गुजारना था, पर उसके नहीं आने के कारण लावारिस सा मेरे साथ घिसट रहा था. एक बार तो मेरा मन हुआ कि मैं अणिमा से बिना मिले चुपचाप वापस लौट जाऊँ, किसी को कुछ पता नहीं चलेगा. कभी कोई नहीं जान पाएगा कि एक षाम एक लड़का अपनी प्रेमिका से मिलने बहुत दूर से छिपते छिपाते यहाँ आया था और बिना मिले ही चला गया. पर अणिमा जानती थी कि मैं वहाँ था.... वहाँ, उसके षहर के एक कोने में बने उस चर्च में...... उसी से मिलने आया था और उसके समय पर नहीं आने से हताष वह समय गुजार रहा था, जो उसके साथ गुजारा जाना था.

मैं वहीं सड़क पर लकड़ी की एक बैंच पर बैठ गया, जो बस स्टेन्ड के टीन षेड के नीचे यात्रियों के लिए लगाई हुई थी. मुझे अचानक एक चिंघाड़ती सी आवाज आई, जैसे कोई दहाड़ रहा हो. मैंने अपने चारों ओर देखा. कहीं कोई नहीं था. वे परिन्दे अभी तक लौटे नहीं थे, जो कुछ देर पहले एक साथ उड़ कर कहीं चले गए थे. चर्च के ऊपर तना क्रोस वैसे ही खड़ा था. कौन हो सकता है ?

तभी मैंने उन्हें देखा. अपने सामने चर्च के खुले दरवाजे के पीछे. लेकिन पूरा पूरा नहीं, सिर्फ उनकी सफेद दाढ़ी को, जिसने उनका चेहरा छिपा रखा था. वे चर्च के पिछले हिस्से में बैठे कुछ कर रहे थे. उनका सफेद चैगा घुटनों तक उठा हुआ था. एकाएक मुझे एक अनजाने से भय ने जकड़ लिया. षहर से दूर यह पुराना सा चर्च, चारों ओर छाया वीराना, विचित्र सी आवाजें..... यह मैं कहाँ आ गया था !

सहसा वे उठ खड़े हुए और तब पहली बार उन्होंने मुझे देखा. वे मुझे कोई इषारा कर रहे थे. मुष्किल से मैं समझ पाया कि वे मुझे बुला रहे थे.

डर का भी अपना एक सम्मोहन होता है, जो जब अपने मोहपाष में बाँधता है, आप सब कुछ भूल जाते हैं. आपकी गतिविधि की हर डोर किन्ही अदृष्य हाथों में चली जाती है और कठपुतली की तरह आप वही करने लगते हैं, जैसा आपको करने के लिए कहा जा रहा होता है.

मैं उनकी ओर बढ़ने लगा था, हालांकि मेरे पाँव मेरा साथ देने से लगातार इन्कार कर रहे थे. चर्च के आहते में मेरे पाँवों के नीचे नारियल के लम्बे पेड़ों की छायाएँ बेतरतीब बिखरी हुई थीं, न उन्हें मुझसे कोई मतलब था, न मुझे उनसे. उन छायाओं ने मुझे रोका भी नहीं. मैं उन्हें रौंदता हुआ उस सफेद दाढ़ी वाले वृद्ध पुरुश की ओर बढ़ रहा था, जो सफेद चैगे में एक प्रेत की तरह वहाँ खड़े थे.

उनके पास पहुँचते ही मैं जान गया था कि वे जरूर यहाँ के फादर होंगे. सफेद, लम्बी दाढ़ी के पीछे उनका उज्ज्वल चेहरा छिप सा गया था. उनका सफेद चैगा अब भी उन्होंने थोड़ा सा ऊपर उठा रखा था, ताकि नीचे से गन्दा न हो जाए. खुरदरे हाथ मिट्टी में सने हुए थे चष्में के पीछे से मुझे देखती एक जोड़ी आँखों में गहरी उत्सुकता छिपी हुई थी.

उन्होंने मुझसे कुछ कहा, जिसका एक भी अक्षर मैं समझ नहीं सका. अन्दाज लगाते हुए प्रत्युत्तर में मैंेने उन्हें बताया कि मैं यहाँ अपनी मित्र की प्रतीक्षा कर रहा हूँ, पर वे चकित से मुझे देखे जा रहे थे. उन्हें भी मेरी बात समझ नहीं आ रही थी. सहसा हम दोनों जोर से हँस पड़े. न मैं कन्नड जानता था और न वे हिन्दी. हम दोनों की वह हँसी हमारी आत्मीयता की वजह बनी.

”हाउ कम यू आर हीयर ?“ उन्होंने पूछा.

इस बार मैं सच नहीं बोल सका, ”आई वाॅज़ जस्ट पासिंग थ्रू. दिस प्लेस हाॅन्टेड मी.“ हालांकि इस प्रकार झूठ बोलने पर मुझे अपने आप पर षर्म आई. क्या जरूरत थी झूठ बोलने की ! जब हिन्दी में सच कह सकता था, तो अंग्रेजी में क्यों नहीं ! छोटी छोटी बातों में हम झूठ क्यों बोलते हैं ? लेकिन इसका यह लाभ अवष्य हुआ कि हम जान गए कि हमें अंग्रजी भाशा में ही संवाद करने होंगे.

कुछ देर तक वे चुपचाप मुझे देखते रहे, जैसे मुझे तोल रहे हों. फिर सहसा मुझे अपने पीछे आने का इषारा करते हुए एक ओर चल दिए. हालांकि मैं उनके आदेष मानने के लिए बंधा हुआ नहीं था, पर उस व्यक्ति में ऐसा अतिरिक्त कुछ था, जो मुझे उनके आग्रह की अनुपालना करने के किए बाध्य कर रहा था.

”क्या आप इस चर्च के फादर हैं ?“ मैं अपनी उत्सुकता दबा नहीं पा रहा था.

उन्होंने आष्चर्य से मेरी ओर देखा और जोर से हँस पड़े, ”यह चर्च नहीं है, एक चैपल है.“ क्षण भर के लिए वे रुके, फिर अपनी गूँजती सी आवाज में बोले, ”क्या तुम्हें कुछ नहीं मालूम ?“ अपनी बात पूरी किए बिना वे एक बार फिर रुक गए. षायद उनके लिए वे असमंजस के क्षण थे और वे तय नहीं कर पा रहे थे कि मुझ जैसे एक अजनबी के साथ किस हद तक खुला जा सकता है. फिर सहसा धीमे स्वर में बोले, जैसे कोई भेद खोल रहे हों, ”चलो, मेरे साथ वहाँ तक आओ, मैं तुम्हें कुछ दिखाता हूँ.“

मैं उस ओर देखने लगा, जिस ओर वे अपना हाथ उठाए हुए संकेत कर रहे थे. हवा ने उस संकेत को थाम लिया था. उनकी झुर्रियोंदार कलाई पर, जो कभी मजबूत रही हांेगी, सफेद रोंये हवा में लहलहा रहे थे. फिर बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए वे उस ओर जाने लगे, जिस ओर अभी उनका हाथ उठा हुआ था. मैं उनके पीछे पीछे खिंचता चला गया.

नारियल के झुरमुटों के बीच में होते हुए हम कुछ दूर तक गए. हमारे पाँवों के नीचे जब कोई सूखा पत्ता आता, वह रोने लगता था....  और तब वह मुझे अचानक दिखाई दी, एक विषाल सिमिट्री, जिसने अपने लम्बे चैड़े सीने पर क्रोसों का एक हुजूम उठाया हुआ था. यहाँ से वहाँ दूर तक तक फैला हुआ..... चारों ओर नारियल के पेड़ों और झाड़ियों से घिरा हुआ, जहाँ हवा अपना घर बना कर रहने लगी थी.

वे रुके तो मैं भी रुक गया. चष्मे के पीछे उनकी बूढ़ी आँखों में एक अजीब सी उदासी उभर आई थी. मैंने वह उदासी पहली बार देखी थी. मैं ही नहीं, वे भी एकटक उन कब्रों को देख रहे थे. दूर दूर तक गहरी खामोषी फैली हुई थी. नारियल के पेड़ों और झाड़ियों के बीच बहती हवा भी उस खामोषी को नहीं तोड़ पा रही थी.

मुझे अपने भीतर एक सर्द सी झुरझुरी सी महसूस हुई, जो मेरी रीढ़ को बेधती हुई मुझे कँपकँपा गई. मैं सोचने लगा, इन कब्रों न जाने कितने लोग कभी न जागने वाली नींद में सोये हुए हैं. पर कभी वे जागे हुए रहे होंगे, बाकायदा साँसें लेते होंगे, उनके अपने अपने सुख दुख होंगे, सच्चे झूठे सपने होंगे, जिनके बारे में जानने वाले षायद अब भी कुछ लोग जीवित हों. सफेद दाढ़ी वाले वे वृद्ध पुरुश मुझे एक ऐसी दुनिया में ले आए थे, जो मेरी नहीं थी, पर अब मैं उसका हिस्सा बन चुका था.

”दरअसल यह एक पुरानी सिमिट्री है. इस षहर में जो पहला क्रिष्चियन मरा होगा, उसकी कब्र भी इन्हीं में से एक होगी. पता नहीं वह कौन होगा, पर वह आज भी यहाँ साँस ले रहा है.... यदि मरने वाले भी साँस लेते हैं तो.....“ उन्होंने आहिस्ता से कहा. लगा, जैसे महज़ उनके होठ हिल रहे थे. पर उस आवाज विहीन आवाज को मैंने सुन लिया था, क्योंकि मैं भी उस व्यक्ति के बारे में ही सोच रहा था, जिसे यहाँ सबसे पहले लाया गया होगा.

मैं कुछ बोलना चाहता था, कुछ भी, जो उनकी उदासी को बेध कर सान्त्वना का मरहम लगा सके. पर मैं चाह कर भी कुछ नहीं बोल सका. षब्द पैदा होने पहले ही मर गए थे.... और तब यह पहली बार जाना कि कुछ जगहें ऐसी होती हैं, जहाँ हर भाशा अपनी संवेदना खो देती है. वह एक प्रकार की रिरियाहट में बदल जाती है, जिसका कोई भी अर्थ निकाला जा सकता है.... या फिर षायद कोई अर्थ रह ही नहीं जाता !

तभी वह दहाड़ती सी आवाज़ फिर सुनाई दी. वह आवाज हवा के तेज झौंके पर सवार होकर आई थी। मैं चैंक कर उस ओर देखने लगा, जहाँ से वह आवाज आ रही थी. वे भी ध्यान से उसे ही सुन रहे थे.

”कुछ सुना तुमने ?“ उन्होंने पूछा.

मेरी प्रष्नवाचक निगाहों से उन्हें ही देख रहा था.

”यह समुद्र है. यहाँ से ज्यादा दूर नहीं है. आज कुछ ज्यादा ही उग्र लग रहा है. जरूर चन्द्रमा ने उसे उकसा दिया होगा......“ वे बोले. मुझे उनकी आवाज़ में गहरी हताषा सुनाई दी, जैसे वहाँ पसरी खामोषी को समुद्र के षोर ने और घना कर दिया हो.

कुछ देर तक हम यूँ ही चुपचाप खड़े रहे. वहाँ सोये हुए लोग हमें देख रहे थे, पेड़ और झाड़ियाँ हमें देख रही थीं, समुद्र की ओर से आ रही हवा हमें देख रही थी और देख रहे थे वे परिन्दे, जो अभी अभी लम्बी उड़ान के बाद लौटे थे.

फिर सहसा वे कब्रों के बीच रास्ता बनाते हुए चलने लगे. वे जरूर इस रास्ते से आते जाते रहे होंगे, क्यों कि बार बार उनके आने जाने से जमीन पर एक इकहरी पगडंडी सी बन गई थी. मैं भी यन्त्रवत उनके पीछे पीछे उसी पगड़ंड़ी पर अपने पाँव रखता हुआ चलने लगा. लग रहा था, जैसे पुरानी खण्डित कब्रों की देखभाल करने वाला वहाँ कोई नहीं था. इधर उधर जंगली घास और कटीली झाड़ियाँ उग आई थीं, जिनसे वे भी खुद को बचाते हुए चल रहे थे. मुझे लगा, वे मुझे किसी खास जगह ले जाना चाहते थे, जहाँ से उनका आत्मीय रिष्ता रहा होगा.

और इस बार मैं गलत नहीं था. वे जहाँ रुके, वह जगह बिल्कुल साफ सुथरी थी, जैसे रोज़ाना वहाँ की सफाई की जाती हो. कब्र पर रखे कल के फूल अभी पूरी तरह मुरझाए नहीं थे. कब्र के संगमरमर पर बारीक सुनहरा काम किया हुआ था और उसके सिराहने लगा क्रोस सबसे उज्ज्वल था.

कब्र पर लिखा था - यहाँ जोसेफ़ आराम कर रहा है, कम उम्र में उसने इतना काम कर लिया था कि उसे लम्बे आराम की जरूरत बहुत जल्दी पड़ गई. (1970-1998)

कुछ देर तक वहाँ वे बस यूँ ही खड़े रहे, बिना कुछ बोले, सिर्फ कब्र को निहारते हुए और फिर अचानक वहाँ की सफाई में लग गए. मैं औचक वहाँ खड़ा उन्हें काम करते देखता रहा. उन्होंने चारों ओर झाडू लगाई, जो वहीं पास में रखी हुई थी, कब्र के पत्थर को रुमाल से झाड़ा, क्रोस को साफ किया और उसे चूम लिया. यह सब करते हुए वे षायद भूल ही गए कि मैं उन्हें यह सब करते हुए देख रहा है.

इस बार वे कुछ फुसफुसाए, जिसे मैं नहीं सुन पाया. उनका फुसफुसाना जैसे किसी और से नहीं, स्वयं से था. क्या वे अपने आप से बात कर रहे थे ? या फिर जोसेफ़ से, जो उस कब्र में गहन निद्रा में सो रहा था ?

फिर जैसे अचानक उन्हें मेरी याद आई. उन्होंने चैंक कर मेरी ओर देखा था. मैं वहीं खड़ा था, जहाँ अभी अभी वे मुझे अकेला छोड़ कर कहीं चले गए थे. मैं कहीं गया नहीं था, हालांकि जाना मुझे चाहिए था. मैं प्रतीक्षा कर रहा था उनके अगले आदेष की, या फिर समुद्र की लरजती आवाज़ की, या फिर परिन्दों के उड़ने़ की, या फिर पता नहीं किस की ?

वे मेरे पास आए, जैसे मुझे बरसों से जानते हों, मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में लिए, ”यहाँ मेरा बेटा सो रहा है, जोसेफ, जो महज अट्ठाईस साल की कम आयु में चल बसा था.“

वे कुछ और भी फुसफुसाए, जैसे मेरे लिए दुआ कर रहे हों. पर मैं उनकी दुआ के बाहर था, बाहर और अकेला. यह महज़ एक संयोग था कि उस समय मैं वहाँ उनके पास था और अपने निजी जीवन में कुछ महत्वपूर्ण निर्णय होने और नहीं होने के बीच भटक रहा था. उस खाली समय में मेरा उनके पास होना सिर्फ एक इत्तफ़ाक भर था.

मेरे हाथ उनके खुरदरे, किन्तु अनुभवी हाथों के बीच किसी खरगोष से फँसे हुए थे. मैं कुछ कहता, इससे पहले ही उन्होंने मुझे लगभग खींचते हुए एक ओर घसीटना षुरू कर दिया. वे मुझे कहाँ ले जाना चाह रहे थे ? क्या किसी दूसरी कब्र पर ? वे यह सब मेरे साथ क्यों कर रहे थे ?

वह दूसरी कब्र उस सिमिट्री के लगभग अन्त में बनी हुई थी, जिस पर मार्बल की छतरी भी बनी हुई थी. जब उसे बनाया गया होगा, तब वहाँ ज्यादा कब्रे नहीं रही होंगी. वह एक षानदार कब्र थी, जिस पर की गई नक्काषी बरबस मन मोह लेती थीं. सबसे आष्चर्य की बात तो यह थी कि वहाँ से समुद्र की आवाज बिल्कुल साफ सुनाई दे रही थी, पर डराती हुई नहीं, एक तरह की तसल्ली देती हुई. छतरी पर लगा संगमरमर का क्रोस इतने नर्म पत्थर का था कि लगता था कि उसके आर पार देखा जा सकता था.

वे जहाँ खड़े थे, कब्र के ठीक सामने, मैं भी उनके पास खड़ा हो गया. कब्र के सफेद पत्थर पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था - नोरा, तुम इतनी जल्दी क्यों चली गईं ? अपने बालों में लगे फूलों को मुरझाने तो देती ! (1953-1993)

”यह नोरा है, मेरी पत्नी.“ उन्होने धीरे से कहा.

उनकी आँखों को इतना खाली अब तक मैंने नहीं देखा था, खाली और उदास. उनका खालीपन और उदासी अलग अलग थे, जैसे दो भाई बहन एक घर में रह रहे हों, जो अलग अलग होकर भी एक दूसरे से जुड़े रहते हैं.

बिना षब्दों के बहुत कुछ समझ में आता जा रहा था. कुछ पूछ कर मैं उस मौन को नहीं तोड़ना चाहता था, जो उस सिमिट्री में उतना नहीं, जितना हमारे मन में छाया हुआ था. वे ठीक उसी तरह वहाँ भी सफाई का काम करने लगे, जैसे पिछली कब्र पर कर रहे थे. अन्तर केवल इतना था कि यहाँ उनकी उम्र कुछ ज्यादा लगने लगी थी.

वहाँ समुद्र की आवाज दहाड़ती हुई महसूस नहीं हो रही थी. अब समुद्र लगातार गीत गाने लगा था. नींद दिलाने वाले गीत, जिसे सुन कर सोने वाले और गहरे सो जाएँ और जागने वालों का सोने का मन करने लगे. मैं भी उनींदा सा महसूस करने लगा था.

तभी मैं चैंक गया. वे मुझे कुछ इषारा कर समझा रहे थे. पर मैं कुछ भी समझ नहीं पाया. जहाँ वे इषारा कर रहे थे, वह जगह नोरा की कब्र की बगल में थी, पर वहाँ कुछ भी नहीं था. वह जगह खाली थी. फिर वे मेरा हाथ पकड़ कर उस खाली जगह पर ले गए. मैंने पाया कि वहाँ एक छोटा सा पत्थर लगा हुआ था, जिस पर एक नम्बर अंकित था.

”यह मेरी कब्र है. जब मैं मरूँगा, मुझे यहाँ दफनाया जाएगा, मेरी पत्नी नोरा के पास.“ उन्होंने धीमें स्वर में कहा, पर अब वे मुस्करा रहे थे. मैं आष्चर्य से उस व्यक्ति को देखने लगा, जो अपनी ही कब्र के सामने खड़ा मुस्करा रहा था. इससे भी बड़े आष्चर्य की बात यह थी कि वे पिछले लगभग बीस सालों से रोज़ाना अपनी कब्र की जगह को साफ करते आ रहे थे. क्या ऐसा करके वे रोजाना मृत्यु से मुलाकात नहीं कर लिया करते थे ? क्या मृत्यु से इतने लगाव ने ही उन्हें मरने से बचा रखा था ?

वे नोरा की कब्र के सामने खड़े होकर कुछ फुसफुसाए. उन षब्दों ने मुझ तक पहुँचने से मना कर दिया था. षायद वे प्रार्थना के षब्द रहे होंगे. उनके एकांत और पीड़ा को ढोते हुए. फिर सहसा बिना कुछ कहे ही वे सिमिट्री की बाउण्ड्री के साथ साथ चलने लगे थे. मैं भी चुपचाप उनके पीछे घिसटता रहा, जैसे अभी कुछ होना बाकी हो. जहाँ कब्रें समाप्त होती थीं, ठीक वहीं से चैपल षुरू होता था. चैपल से सटा हुआ ही उनका घर था. क्या वे मुझ अजनबी को अपने घर ले जा रहे थे ?

घर का बूढ़ा नौकर जल्दी जल्दी चलता हुआ आया और दरवाजा खोलने लगा. उसे देखते ही कोई कह सकता था कि वह कन्नड है. चैड़ा चेहरा, पक्का रंग, घुंघराले बाल..... वह आष्चर्य से देख रहा था कि आज उसके साहब के साथ यह कौन अजनबी आ गया है !

उनका वह छोटा सा घर पुराने क्रिष्चियन ढंग से सजा हुआ था. घर को देख कर ही लग रहा था, जैसे अर्सें से वहाँ कोई नहीं आया था. दीवार पर सजी ढेरों तस्वीरें, क्रिष्चियन मेन्टल पीस, जीसस क्राइस्ट की कई मूर्तियाँ, लकड़ी की छत, टिपिकल क्रिष्चियन स्टाइल के दरवाजे खिड़कियाँ, बड़ी सी दीवार घड़ी, जिसका पेन्डुलम इधर से उधर लगातार नाच रहा था.

”बैठो.“ उन्होंने सोफे की ओर इषारा करते हुए कहा, ”मैं अभी आता हूँ.“ और बिना मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए वे उस कमरे के पिछले दरवाजे से ओझल हो गए, जो षायद उनके बेडरूम में खुलता था. नौकर पानी का गिलास रख गया था, जिसकी मुझे जरूरत भी थी.

उस कमरे को देख कर मुझे एक पुराने उपन्यास का ध्यान आ गया, जो कई वर्श पहले हमारे यहाँ के समाचार पत्र में धारावाहिक रूप में छपा था. उस उपन्यास का नायक भी अकेलेपन से लड़ता हुआ, लोगों से दूर जंगल के फोरेस्ट हाउस में इसी प्रकार रहा करता था. पर हो सकता है, यह मेरी कल्पना मात्र हो. मैं उनके बारे मेे जानता ही कितना था ! महज़ आधे एक घन्टे की मुलाकात में आप किसी के बारे में कोई निष्चित राय नहीं बना सकते. लगातार किताबें पढ़ते रहने के कारण प्रायः हम उनके चरित्रों को अपने आस पास तलाषा करते हैं.

जब वे लौटे, तब तक चाय आ गई थी. वे भी फ्रेष होकर आए थे. लम्बे सफेद चैगे की जगह अब उन्होंने गाउन पहन रखा था, जो पुराना होने के कारण जगह जगह से उधड़ गया था. पर उनकी सफैद दाढ़ी वैसी ही थी, उतनी ही उज्ज्वल, जितनी कुछ देर पहले नज़र आ रही थी.

”लो, चाय लो.“ उन्होंने अपना मग उठाते हुए मुझसे कहा. मैं उनके आग्रह की प्रतीक्षा ही कर रहा था. मुझे चाय की सख्त आवष्यकता महसूस हो रही थी.

नीलगिरी चाय की सौंधी खुष्बू मेरे नथुनों में समा गई. पहली ही घूँट में मैं उसकी बेहतरीन क्वालिटी की प्रषंसा किए बिना नहीं रह सका. वे मुस्कराए, जैसे कि जानते हों कि मैं ऐसा ही कुछ कहूँगा, पर उन्होंने कुछ कहा नहीं.

”आप यहाँ कब से हैं ?“ मैंने पूछा. इसलिए नहीं कि मेरे लिए उनके उत्तर का कोई विषेश महत्व था, बल्कि इसलिए कि संवाद स्थापित करने के लिए कुछ न कुछ कहा जाना जरूरी हो रहा था.

उनका उत्तर तुरंत नहीं आया. षायद वे मन ही मन कुछ सोच रहे थे. उनकी आँखें अचानक कहीं दूर अतीत में चली गई थीं, फिर बोले, ”बहुत पहले, तब षायद तुम्हारे पिता का भी जन्म नहीं हुआ होगा.“ थोड़ी देर के लिए वे रुके, जैसे भटक गए हों, ”मेरा जन्म यही ंहुआ था और जैसा कि तुम जान ही चुके हो, मैं मरूँगा भी यहीं. मेरे दफ़नाए जाने की जगह भी तय है. मैं अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा हूँ. कौन कह सकता है कि उसकी मृत्यु कब आएगी !“

”आप षायद मेरी बात का बुरा मान गए. मेरा मतलब यह नहीं था. मैं सचमुच आपके यहाँ आने के बारे में जानना चाहता था, जाने के बारे में नहीं.“ वे मेरी बात का यह अर्थ लगाएँगे, इसकी मैंने कल्पना तक नहीं की थी. मुझे स्वयं पर खीज हो आई. मैंने वह प्रष्न पूछा ही क्यों !

वे एक बार फिर मुस्कराए, ”नहीं, मैं तुम्हारी बात का कतई बुरा नहीं मान रहा हूँ. दरअसल मेरी उम्र में आते आते सभी लोग हर बात अपनी मृत्यु से जोड़ कर ही सोचने लगते हैं. इसमें तुम्हारा कोई दोश नहीं है..... षायद दोश मेरा भी नहीं है. मैं तो सालों से प्रति दिन अपनी कब्र देखता आया हूँ.“

”क्या आपको डर नहीं लगता ?“ मैंने झिझकते हुए पूछा.

”डर ? कैसा डर ?“ उनकी आँखों से हैरानी बाहर झाँक रही थी.

”इस तरह दुनिया से अकेले चले जाने का डर.“

वे हँस पड़े, ”मैं अकेला कहाँ हूँ ! पिन्टो मेरे साथ है.“

”पिन्टो ? कौन पिन्टो ?“

”वहीं, जो अभी हमारे लिए चाय लाया था.“

”ओह ! वह पिन्टो.“, मैंने चाय की एक बड़ी सी घूँट लेते हुए कहा, ”मुझे लगा, आप किसी अपने की बात कर रहे हैं.“

”क्यों ? क्या वह तुम्हें मेरा अपना नहीं लगता ?“ उनकी आवाज आष्चर्य में डूबी हुई थी.

”लगता है. बिल्कुल लगता है. पर पिन्टो की तरह का अपना नही, जैसे कोई रिष्तेदार, कोई दोस्त.....“

उन्होंने अपना मग साइड़ टेबिल पर रख दिया, उठे और फायर प्लेस के पास खड़े हो गए. खिड़की से आ रही डूबते सूरज की रोषनी में उनकी सफेद दाढ़ी और भी उज्ज्वल नज़र आ रही थी. चष्में से बाहर झांकती निगाहों में जैसे कई जन्मों की उदासी समाई हुई थी. उस क्षण वे मुझे बिल्कुल किसी सन्त की तरह दिखाई दे रहे थे.

थोडी देर बाद उनकी वही गूँजती सी आवाज़ आई, ”जो अन्त तक साथ निभाए, वही असली रिष्तेदार होता है और सच्चा दोस्त भी. तुमने देखा नहीं मेरी पत्नी नोरा और बेटे जोसेफ की कब्रों को ? वे तो मेरे अपने थे, पर मुझसे भी पहले चले गए, जबकि उम्र के लिहाज से मैं उन दोनों से बड़ा था और मुझे पहले जाना चाहिए था..... पिन्टो तब से मेरे साथ है, जब वे दोनों जीवित थे. मेरी कारण ही उसने षादी भी नहीं की. अब एक सिर्फ वही बचा है मेरा साथ निभाने के लिए.“

उनके चुप हो जाने के बाद भी उनकी आवाज़ जैसे वहीं ठहर गई थी, पिंजरे में बन्द चिड़िया की तरह, छोटे से गोल गोल दायरे में लगातार घूमती हुई. पर वहाँ कोई नहीं था जो उस पिंजरे का दरवाजा खोल कर उस चिड़िया को खुली हवा में उड़ा सकता.

मैं स्तब्ध सा उन्हें सुनता रहा था. यह तय कर पाना मुष्किल था कि उन्हें नोरा और जोसेफ के चले जाने का दुःख ज्यादा था या स्वयं के जीवित रह जाने का ! एक अवसाद चुपचाप कमरे में आकर हमारे बीच बैठ गया था. मैं एकटक उन्हें देखे जा रहा था

सहसा वे फिर कुछ कहने लगे, जैसे कुछ कहा जाना जरूरी था, जो अपने कहे जाने की माँग कर रहा हो, ”हो सकता है, मुझे और भी भयानक अकेलापन देखना बदा हो. हो सकता है, पिन्टो भी मुझसे पहले यह दुनिया छोड़ कर चला जाए. पर मैं सच कहता हूँ, यदि मुझे ऐसा महसूस हुआ कि अब वह भी यह दुनिया छोड़ने  वाला है, तो मैं उसी क्षण आत्महत्या कर लूँगा.“

मेरे भीतर एक कँपकँपी सी आ गई. अकेलेपन भी भयावहता को मैंने पहली बार जाना था. मैं अपने अवचेतन में किसी वीराने अहसास का आसन्न प्रभाव को बहुत गहराई तक महसूस कर रहा था. कुछ नहीं होते हुए भी वह क्या चीज होती है, जो हमें इस संसार से जोड़े रखती है ? और क्यों उस अदृष्य आभास का होना ही हमारे जीवित रहने का एक मात्र कारण बन जाता है ?

ृ समुन्दर की हल्की हल्की आवाजें लगातार आ रही थीं. पता नहीं पहले वह क्यों दहाड़ रहा था, फिर क्यों गीत गाने लगा था, और अब क्यों थपकियाँ सी दे रहा था ! कहीं ऐसा तो नहीं कि उसकी आवाजें एक जैसी होती हों, पर हम ही अपनी मनःस्थितियों के अनुसार उनके अलग अलग अर्थ निकाल लेते हों !

वे वापिस अपनी जगह पर लौट आए, जैसे किसी लम्बी यात्रा से लौटे हों. उनके चेहरे पर गहरी थकान के भाव उभर आए थे. हम दोनों की चाय कब की ठण्डी हो चुकी थी.

”क्या सचमुच तुम्हें यह जगह इतनी हाॅन्टिग लगी कि तुम इसे देखने के लिए रुक गए ?“ उन्होंने पूछा.

मुझे याद आया कि यह बात मैंने ही उन्हे कही थी, ”जी हाँ, इतना उजाड़ चैपल मैंने पहले कभी नहीं देखा. यहाँ आकर रोने को मन करने लगता है.“

उन्होंने आष्चर्य से मुझे देखा. हालांकि इसमें आष्चर्य की कोई बात नहीं थी. वह जगह थी ही ऐसी, जैसे उसका अपना कोई उससे बिछुड़ गया हो, जिसकी स्मृति में जीना ही उस जगह की नियति बन चुकी हो.

”जानते हो, न जाने कितने लोग इस जगह को ठीक कराने के लिए पैसा डोनेट करने के लिए तैयार बैठे हैं. पर मैं ही इसे ठीक नहीं करवाता. अन्तिम बार इसे नोरा ने ठीक करवाया था, तब जोसेफ भी उसके साथ साथ काम पर लगा हुआ था और मैं उन्हें काम करते हुए देखा करता था.... अब तुम ही बताओ, जिस रंग रोगन में उन दोनों की मेहनत, हाथों का स्पर्ष, दृश्टि और प्रेम लगा हो, उसे पर मैं भला कैसे दूसरा रंग रोगन करवा सकता हूँ !“

पता नहीं क्यों, अचानक मुझे लगा, कि यह आदमी इस दुनिया में जीने के लिए मिसफिट है. इतने संवेदनषील इंसान के लिए यह संसार बना ही नहीं है. तो फिर क्यों जिसे चले जाना चाहिए था, वह रह गया, और जिन्हें रह जाना चाहिए था, वे चले गए ?

थोड़ी देर बाद उनकी थकी हुई आवाज मुझ तक रेंगती हुई आई, ”नोरा और जोसेफ के चले जाने के बाद भी मैंने उन्हें अपने भीतर बचा रखा है.“ क्षण भर ठिठक कर उन्होने फिर कहा, ”वे भी मेरा एक हिस्सा अपने साथ ले गए हैं, जिसके बारे में मैं कभी नहीं जान पाऊँगा.“

सहसा मुझे लगा कि उनका दुःख अकेले रह जाने का उतना नहीं था, जितना अपने उस हिस्से के चले जाने का था, जिसके विशय में वे स्वयं भी नहीं जानते थे. सच क्या था, कभी कोई नहीं जान सकेगा. कुछ भेद बस यूँ ही पैदा हो जाते हैं, और ताउम्र साथ घिसटते रहते हैं. न उनका वर्तमान होता है, न भविश्य. वे केवल अतीत में भटकते रहते हैं. स्मृति बन कर उतना नहीं, जितना एक घाव बन कर, जो सारी उम्र एक नासूर सा टीसता रहता है.

”तुमने बताया नहीं, तुम यहाँ क्यों आए थे ?“ अचानक उन्होंने पूछा.

कुछ देर के लिए मुझे बिल्कुल घ्यान नहीं आया कि मैं यहाँ क्यों आया था. इस सारे प्रकरण के बीच मैं अणिमा को पूरी तरह भूल चुका था. मैं भूल चुका था कि मैं वहाँ सिर्फ वह खाली समय व्यतीत कर रहा था, जो अणिमा के समय पर नहीं आने के कारण मेरे सामने आ खड़ा हुआ था. मुझे लगा, जैसे कोई दुःखद फिल्म चली थी, जिसका मैं भी एक पात्र था.

”नहीं बताना चाहते तो कोई बात नहीं. बताने या नहीं बताने से कोई अन्तर भी नहीं पड़ने वाला.“ मुझे चुप देख कर उन्होंने कहा.

”ऐसी कोई बात नहीं. मैंने आपको बताया न, कि इस जगह को देख कर मैं प्रभावित हो गया था. बस, यही आकर्शण मुझे अन्दर खींच लाया.“ इस बार भी मैं सच नहीं कह सका. उनके भयावह अकेलेपन के आगे मुझे यह कहना एक अपराध जैसा लगा कि मेरी एक खास महिला मित्र है, मेरी अपनी, जिसके साथ उम्र बिताने के सपने मुझे वहाँ खींच लाए थे. उसी ने मुझे वहाँ मिलने बुलाया था, जिसकी प्रतीक्षा में मैं उस सिमिट्री मंे महज खाली समय काटने के लिए रुक गया था.

आप देख ही रहे हैं कि यद्यपि उस षाम ऐसा कुछ नहीं घटा था, जो किसी स्थाई भाव की तरह मेरे साथ चिपका रहता, पर एक अनजानी सी विचित्र अवसादग्रस्त मनःस्थिति ने मेरे मन प्राण बाँध लिए थे. क्या कभी उस मनःस्थिति का ठीक ठीक विष्लेशण हो सकेगा ?

तब तक मेरी अणिमा से मिलने की इच्छा मर चुकी थी. यहाँ आने से पहले जो उत्साह था, उसका एक अंष भी षेश नहीं बचा था. मन इतना उदास था, जैसे मेरा अपना कोई हमेषा के लिए बिछुड़ गया हो. संभव है वह उदासी पहले से ही मेरे मन में रही हो, पर मैं उसे समझ नहीं पा रहा था. यहाँ आकर, इन्होंने चुपचाप मेरे मन की उन पर्तों को उधेड़ डाला है, जिनके बारे में मुझे स्वयं भी पता नहीं था. मैं अणिमा से मिलूँगा अवष्य, पर किसी और दिन, किसी और जगह, किसी दूसरी मनःस्थिति में......

मैं उठ खड़ा हुआ. चाय के लिए उन्हें धन्यवाद दिया और उनके हाथ चूम कर बाहर चला आया. मुड़ कर एक बार फिर से उस सिमिट्री को देखा. अजीब सा समय था, न षाम न रात, बीच में कहीं  रुका हुआ षिथिल समय, जो न तो षाम को जाने से रोक सकता था और न ही रात को आने से. वे भी ऐसे थे जिन्हें मैं उनके घर में अकेला छोड़ आया था और षायद मैं भी, षिथिल, न उनका किसी के आने या जाने पर कोई बस था और न ही मेरा.

चैपल के बाहर आते ही मुझे वही आवाज़ फिर सुनाई दी. पर इस बार मैंने उस ओर ध्यान नहीं दिया. वह समुद्र था.

 

ŽŽŽ