सूर्यबाला
जूते चिढ़ गए हैं इन दिनों। कहते हैं, यह हमारी तौहीनी है। ये क्या कि हमें जिस-तिस पर उछाल दिया, जैसे हमारी कोई इज्जत ही नहीं।
बात सही है कि चिरकाल से हमारा निवास आदमी के पैरों में ही है और लोगों के सर पर उछाली जाने वाली स्थिति हमारे लिए सुखद ही होनी चाहिए। आप डपटकर कह सकते हैं कि सदियों से पैरों से लगे घिसटते रहे, धूल-धक्कड़ फाँकते रहे और आज हम तुम्हें लोगों के सिरों पे उछाल रहे हैं तो कृतकृत्य होने के बदले आपत्ति दर्ज करा रहे हो? शुक्र करो कि हमने तुम्हें जमीन से उठाकर पाँच फीट ऊपर उछाल दिया। टीवी तक में धमाकेदार एंट्री हो गई। दनादन चैनलों में फ्लैश हो रहे हो... और क्या चाहिए आदमी को, यानी तुम जूतों को।
लेकिन जूते अपनी जिद पर अड़े हैं। जूते हैं न! आदमी होते तो ऐसी पब्लिसिटियों पर मर मिटते लेकिन जूते इन्हें अपनी नोक पर लेते हैं। कहते हैं, यह जूतागरी तुम आदमियों को ही मुबारक हो। हमारी तो रूखी-सूखी यानी धूल-गर्द ही भली लेकिन देश-दुनिया के साथ मजाक करनेवालों के साथ अपना नाम जोड़े जाना हमें भी मंजूर नहीं है। दूसरी बात, हम जूते जरूर हैं लेकिन जूतमपैजारी में हमारा विश्वास नहीं। आदमी हो तो आदमी की तरह प्रतिरोध करना सीखो। जूतों के बहाने गुस्से का इजहार क्यों? हम ऐसे फेंके जाते हैं जैसे कोई सबसे गई-गुजरी बेगैरत चीज हों। अपमान और अवहेलना के प्रतीक। पता नहीं दलित खेमे के लोग अभी तक इस मुद्दे पर शांत कैसे बैठे हैं?
जूते यह भी कहते हैं कि आप क्या समझते हो? आपका एक बार उछाला जूता जो मीडिया में घंटे में सैकड़ों के हिसाब से उछाला जा रहा है, वह आपका गुस्सा, आपका प्रतिरोध व्यक्त करने के लिए? लोगों तक आपका असंतोष और आक्रोश पहुँचाने के लिए? जी नहीं, आपका उछाला जूता चैनलों की किस्मत का सितारा बुलंद करेगा, टीआरपी के लिए राशन पानी जुटाएगा। तो बाज आइए, जूतों की आड़ में न्याय की गुहार लगाने और सोचकर निश्चिंत हो जाने से कि आपने यथासमय दूध का दूध, पानी का पानी कर दिया।
सोचने की बात है, आपके उद्देश्य की संजीदगी लोगों तक पहुँचाने की मंशा होती तो समाचार चैनल जूतों को कम, आपको ज्यादा दिखाते न... लेकिन जानते हैं आज आदमी से ज्यादा जूता, संवेदना से ज्यादा सनसनी बिकती है सूचना क्रांति के बाजार में, इसलिए जूतागिरी का कारोबार दिन-दूनी रात चौगुनी तरक्की पर है।
ऐसा नहीं है कि आपकी बात हम (यानी जूते) समझते नहीं। जब चारों तरफ के हालत बरदास के बहार हो जाते हैं तो आप ही नहीं, हम खुद अपने पैरों में कसमसाने लगते हैं, फिर आप तो दिलो-दिमाग से दुरुस्त इनसान ठहरे, कहाँ तक काबू रहें! उबाल आता ही होगा कि आखिर ये जूते किस दिन के लिए पहन रखे हैं, अब नहीं तो कब चलाएँगे! अरे एक पर निशाना चूका और दूसरे पर भी लग गया तो भी क्या बुरा... क्योंकि उस पर भी आज न सही, कल पड़ने हीवाले हैं! हम नहीं चलाएँगे तो कोई और चला देगा। आगे-पीछे सबकी बारी आनी ही आनी।
इतना ही क्यों, आपने एक पर चलाया और दूसरे को छोड़ा, तो भी लोग उँगलियाँ उठाने से बाज नहीं आएँगे कि फलाँ को क्यों बक्शा! उस पर तो इस वाले से भी पहले चलाना था। वादा करो, अगली बार चलाओगे न उस पर! छोड़ना मत! तो ये वादा रहा!
दरअसल खानेवालों से ज्यादा समस्या चलानेवालों की है। किस पर चलाएँ किस पर नहीं? डिमांड ज्यादा है सप्लाई कम। अपनी आधी से ज्यादा जनसंख्या तो पार्वती लाइन के नीचे पाँव पयादे चलती है। चलाने के लिए जूते कहाँ से लाएगी। मन मसोसकर रह जाती है कि जाने दो, होते तो भी पहनने के कम, चलने के काम ज्यादा आते।
यूँ आदमी की देखा-देखी इधर जूतों में भी अवसरवादिता बढ़ी है। मंदिरों तथा अन्य धार्मिक, सामाजिक स्थलों के बाहर इकट्ठे जूते टोह ले रहे हैं... गांधी मैदान वाली सभा में चलने के चांसेस हैं क्या? टीवी में कवेरज की कितनी संभावना है। आप वाली पार्टी गड़बड़ियों के लिए कुख्यात है। जब जहाँ जरूरत हो हमें चला दीजिए। इस बार हमें सेवा का अवसर दीजिएगा। यह हमारी बहन कोल्हापुरी भी है। किसी छोटे-मोटे रोल में इसे भी डाल दीजिए। आज विजुअल का जमाना है। ख्याति-कुख्याति के पचड़े में नहीं पड़ना हमें।
और इन्हें देखकर जूतों की पुरानी पीढ़ी सिर धुन रही है कि देखो इन नालायकों को, एक हमारी पीढ़ी थी! महापुरुषों के चरणों में निष्ठापूर्वक रहते हुए उनके माध्यम से स्वयं भी प्रतिष्ठा प्राप्त करने में विश्वास करती थी। लोग उनकी चरणों की धूल लेने के बहाने उनके जूतों को भी इज्जत बख्शते थे। भरत तो राम की पादुका माथे लगाए-लगाए अयोध्या तक ले आए। आसीन कर दी सिंहासन पर। एक-दो नहीं, पूरे चौदह वर्षों तक शासन चलता रहा। राम के पादुका के अधीनस्थ। है किसी देश का इतिहास, जिसमें मनुष्य तो मनुष्य, उसके पदत्राणों को इतना सम्मान मिला हो। अब कहाँ रहे वे लोग!
और कहाँ वे पादुकाएँ! ...और जूते अपनी गौरवपूर्ण परंपरा की इस शर्मनाक परिणति पर गहरी निःश्वास भरकर रहा जाते हैं।
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