पुराने पन्ने
इस सन् २०१६ के नवम्बर माह का विमुद्रीकरण मुझे उन टकों की ओर ले गया है साठ साल पहले हमारे पुराने कटरे के सर्राफ़, पन्ना लाल, के परिवार के पाँच सदस्यों की जानें धर ली थीं|
अट्ठाइस वर्षीया उन की पत्नी, चन्द्रिका, की, दस महीने की उन की जुड़वाँ दो बेटियों की, उन की जरसी गाय की तथा उस गाय के नए ग्वाले, बिरजू, की|
शामत वह जरसी गाय ही लायी थी| जिसे पन्ना लाल के ससुर हमारे कटरे की गोशाला में छोड़ गए थे| चन्द्रिका की दूसरी बरही पर| उन जुड़वाँ नवजात लड़कियों की खुशी में, जो उनके इकलौते नाती, माणिक, की आयु के दसवें वर्ष में पैदा हुई थीं|
उसी सन् १९५५ में जिस की सितम्बर में इंडियन कौएनेज अमेन्डमेन्ट एक्ट के अन्तर्गत भारतीय रुपए के दशमिकीकरण की घोषणा की गयी थी| सोलह आनों, चौंसठ पैसों, आठ दुअन्नियों, चार चवन्नियों, दो अठन्नियों व एक सौ बानवे पाइयों वाला रूपया अब सौ नए पैसे रखने वाला था और एक अप्रैल, १९५७ से पुराने सिक्कों का चलन ख़त्म हो जाना था|
टप्पा बैंक में आए नए पैसों ने लगाया था|
पन्ना लाल उस दिन अपनी हट्टी छोड़ कर चन्द्रिका के पास आन जमे थे, “सोचता हूँ, घर में रखे सभी पुराने सिक्के समय रहते भुना लिए जाएँ| उधर अम्मा अपनी रेज़गारी इकट्ठी कर रही है| तुम्हारे पास भी जितनी रेज़गारी है सभी ले आओ.....”
“लीजिए,” पति द्वारा बताए गए काम को निबटाने की चन्द्रिका को पति से ज़्यादा जल्दी रहती और उस ने अपनी रेज़गारी का अम्बार पलंग पर बरसा दिया|
पन्ना लाल ने माणिक को बगल में बिठलाया और अलग अलग सिक्कों की ढेरियाँ बनाने लगे|
अभी ढेरियाँ पूरी बनी भी न थीं कि पन्ना लाल रुक गए, “टके कम लग रहे हैं.....”
रुपयों पैसों के मामले में वह गहरी सूझ-बूझ रखते थे|
“जो हैं, यही हैं,” चन्द्रिका का रंग बदल गया|
“ज़रूर तुम ने कुछ टके अलग धर लिए हैं| जानती नहीं जब तक तुम उन्हें अपने भाई-भतीजों तक पहुँचाओगी वे बेमेल हो चुके होंगे.....”
चन्द्रिका का मायका कमज़ोर था और पन्ना लाल न तो उसे यह भूलने देते और न ही उसे दो साल से पहले वहाँ जाने देते|
“माँ ने कई टके नीकलाल को दिए हैं,” माणिक फट पड़ा| वह नहीं चाहता था उस के पिता माँ को चोर समझें|
नीकलाल उन की जरसी गाय का ग्वाला था और कटरे की उस गोशाला के तीन वेतनभोगी ग्वालों में से एक था जिन्हें गोशाला के स्वामी ने अपनी गाय-भैंसों की देख-रेख के लिए लगा रखा था| असल में कटरे के मकानों में छत को छोड़ कर ताज़ी हवा या धूप तो कहीं आती न थी और कटरे के मवेशियों को गोशाला ही में ठहराया जाता था|
“बिना मुझ से पूछे? बिना मेरी लिखा-पढ़ी के? तुम्हारी यह जुर्रत?” पन्ना लाल आपा खो बैठे| सभी ढेरियों को गड्ड मड्ड किए और पत्नी पर झपट पड़े|
“मुझ से भूल हुई,” चन्द्रिका ने पति के पैर पकड़ लिए, “आइन्दा नहीं होगी.....”
“कितने टके दिए थे?”
“उसने सभी लौटा दिए हैं.....” चन्द्रिका को कँपकँपी छिड़ गयी, “कोई बकाया नहीं.....”
“फिर भी ब्याज तो उन का वसूलना ही होगा| मुझे गोशाला के मालिक से बात करनी पड़ेगी| वह जानता है हिसाब के मामले में मैं काँटे का तौल रखता हूँ, न कम, न बेश.....”
(२)
सौरी के चौथे नहान के बाद ही से चन्द्रिका जरसी को देखने-भालने उस की गोशाला पर जाने लगी थी|
माणिक को उस की दुग्ध-ग्रन्थियों से सीधा दूध पिलाने के बहाने|
उस समय गोशाला में पाँच भैंसें तथा आठ बरहमा थीं लेकिन जरसी कोई दूसरी नहीं| तिकोने भारी सींगों वाली महाकाय उन काली भैंसों तथा बड़े कूबड़ वाली उन सलेटी बरहमों के सामने भूरी जरसी किसी कौतुक से कम न थी| उस की देह फनाकार थी, उसके सींग छोटे थे और गरदन खूब लम्बी थी|
ऐसे में जरसी का प्रताप चन्द्रिका को गौरव से भर दिया करता और उसकी उपस्थिति उल्लास से| स्वाम्य से| उसे लगता उस पर स्वामित्व उसी का था| रसोई पर सास राज करती थीं, तिजोरी व बच्चों पर पति का आधिपत्य था| केवल जरसी ही तो उसकी सम्पत्ति थी| उसके मायके की देन थी| सम्पूर्ण व निःशेष|
और चन्द्रिका का यही भाव और भी दृढ़ हो जाता जब जरसी उसका स्पर्श पाते ही झूम-झूम जाती| आँखें झपकाती, गरदन हिलाती, कमर मटकाती, दुम घुमाती| और दिव्य आनन्द की अनुभूति के अन्तर्गत वह गोशाला से लौटते समय टके, दो टके नीकलाल के हाथ थमा आती, कभी जरसी के मटर के लिए तो उड़द की दाल की खिचड़ी के लिए तो कभी गुड़ के लिए| और कभी-कभार तो नीकलाल की निजी आवश्यकताओं के लिए भी, “जरसी को तुम ने अच्छी खिलाई दी है| लो, इस टके से अपने लिए जलेबी ले लेना| जलेबी तुम्हें पसन्द है न?” या फिर “जरसी को आज तुमने अच्छा नहलाया है| लो, इस टके से अपने लिए कडुवा तेल ले लेना| कल तुम्हारा दंगल है न?”
कटरे के पिछवाड़े रही वह गोशाला एक खुले मैदान का चप्पा थी| मैदान के बीचोंबीच एक अखाड़ा भी बना था जहाँ पास-पड़ोस के कुश्तीबाज़ अपने मुकाबले रखा करते थे| चौड़े डील वाला इक्कीस-वर्षीय नीकलाल बहुतेरे नौसिखियों पर भारी पड़ता था और उसे तेल की मालिश और कसरत खूब पसन्द थी| कुश्ती हर इतवार को रखी जाती थी और उसे देखने के वास्ते दूर-नज़दीक से कई लोग वहाँ आन जमा होते थे| हमारे कटरे के भी कई छोटे-बड़ों समेत| जिन में मगर, एक भी स्त्री आप को ढूँढे नहीं मिल सकती थी|
(३)
“माणिक लाल,” जल्दी ही पन्ना लाल ने दोबारा घर में पग धरे, “अपनी माँ को इधर भेजो| उस के सामने नीकलाल का हिसाब साफ़ करना है.....”
बेटे के साथ चन्द्रिका तत्काल प्रांगण में लपक ली|
“अपने मुँह में आप क्या दो ज़ुबान रखती हैं? एक घर के अन्दर खोलती हैं और एक घर के बाहर?” चन्द्रिका को देखते ही नीकलाल आग हो लिया|
चन्द्रिका काँपने लगी| बोली, “मैं ने बताया था तुम पर कोई बकाया नहीं.....”
“बकाया कैसे नहीं? तुमने मेरी स्त्री से जो टके लिए, उस का ब्याज क्या हम वसूलेंगे नहीं?” पन्ना लाल गरजे|
“ब्याज? आपकी स्त्री ने जो टुक्के खुशी से हाथ उठा कर हमारी ओर बढ़ाए, उन का ब्याज? उन टुक्कों का ब्याज जो उस ने जरसी की वार-फेर के दिए?”
“वे टके तुम ने माँगे न थे?” दम-के-दम पन्ना लाल का साँस उखड़ गया|
“आप बताती क्यों नहीं?” नीकलाल और टेढ़ा पड़ गया, “जिस आदमी की छत के नीचे रहती हैं, जिस आदमी का नमक खाती हैं, उसी आदमी के संग अपना सच नहीं खोलतीं? अपना सुख नहीं खोलतीं?”
“नीकलाल ठीक कह रहा है,” चन्द्रिका फफक ली, “मायके से आयी हुई उस जरसी को मैं बहन सरीखी मानती हूँ और वे टके मैं ने उस की ख़ैरखाही के लिए उस पर वारे थे.....”
पन्ना लाल उस समय तो नीकलाल के साथ बाहर निकल लिए किन्तु शाम को जब हट्टी से लौटे तो अपना नया निर्णय सुना दिए, “उस जरसी का दूध अब हमारे चौके में कभी नहीं आएगा|”
“क्यों नहीं आएगा?” बहुधा देर तक मौन धारण करने वाली चन्द्रिका उद्दण्ड हो ली, “आप उस दूध को अपने काम में नहीं लाना चाहते तो ठीक है मैं उसे अपने काम में ले आऊँगी.....”
“तुम्हें पूरी छूट है,” पन्ना लाल हँस पड़े, “तुम उस दूध की मलाई खाओ, उस दूध का दही खाओ, उस दूध का खोया बनाओ, घी बनाओ मगर उस दूध की एक बूँद भी यदि इस परिवार के किसी जन के तुम काम में लाई तो अपने बच्चों का मरा मुँह देखोगी.....”
“ठीक है| नहीं लाऊँगी.....”
“और अब गोशाला भी हममें से कोई न जाएगा| जरसी का ठिकाना बदल दिया जाएगा| उस का ग्वाला भी| वही नया ग्वाला दूध घर खुद आएगा यहाँ.....” पन्ना लाल की दूसरी घोषणा भी कष्ट-कल्पित रही|
(४)
आगामी दिन ही से घर में दूध दो जगह आने लगा|
जरसी की सुबह की दुहान चन्द्रिका को सीधी उस के कमरे में पहुँचा दी जाती और शाम की दुहान जरसी की देख-रेख की एवज़ में नया ग्वाला, बिरजू, अपने पास रख लेता|
यहाँ यह बताना ज़रूरी नहीं है कि बिरजू उम्र में नीकलाल से दुगुना रहा और कद-काठी में उस से आधा|
चन्द्रिका नहीं जानती थी जरसी अपने नए ठिकाने पर पहुँच कर बीमार हो जाएगी|
नहीं जानती थी बिरजू की देख-भाल में कसर रहेगी| न तो वह उस के चारे के प्रति अतिसावधान रहेगा और न ही उस की चरागाह के प्रति|
नहीं जानती थी वह उसे किन्हीं भी अनाश्रित अथवा भटकी हुई गाय-भैंसों के झुण्ड में लगा दिया करेगा, जो किसी भी खुले मैदान में चर लिया करती है और अपनी साथ वाली किसी भी गाय अथवा भैंस को अपनी बीमारी पकड़ा देने की सम्भावना व क्षमता रखती हैं|
परिणाम, इसी अनभिज्ञता के अन्तर्गत चन्द्रिका ने उस जरसी के दूध का सेवन की मात्रा तो दुगुनी की ही, साथ ही बचे हुए दूध का घी जोड़ने लगी, “मेरे मायके के जन तो इस परिवार का अंग नहीं| यह घी मैं उन्हें खिला दूँगी.....”
तपेदिक ने अपना प्रभाव सब से पहले जुड़वाँ लड़कियों पर दिखाया|
उन्हें बुख़ार आने लगा, साँस को धौंकनी लग गयी, पीठ पर कूबड़ उगने लगे और एक माह के भीतर ही वे चल बसीं|
फिर बिरजू की पीठ और कंधों पर फोड़े बन गए और देखते देखते वे फोड़े अपना स्थान बदल कर उसकी कुहनियों और घुटनों पर आ गए| दूध दुहना उसके वश में न रहा| शीघ्र ही उसे साधारण हिलने-डुलने से भी कष्ट होने लगा और उसने चारपाई पकड़ ली|
उस के बाद चन्द्रिका के हाथ-पैर हरकत में आने से इनकार करने लगे| उस की पीठ दो खंडों में बँटने लगी और वह किसी भी काम को निबेड़ने के काबिल न रही|
“यह पौट्स डिज़ीज है,” डॉक्टर ने चन्द्रिका की रीढ़ की हड्डी से निकाले गए तरल पदार्थ की जाँच करवाने के बाद परिवार को बताया, “रीढ़ का तपेदिक| यह बीमार गाय के दूध से होता है.....”
“मगर यहाँ से तो जरसी जब गयी थी तो तगड़ी-तन्दरुस्त थी| भली-चंगी थी| बीमार न थी,” चन्द्रिका ने पति की ओर देख कर अपने स्वर में दोषारोप भर लिए|
गोशाला से जरसी के प्रस्थान के साथ ही पति के प्रति चन्द्रिका का व्यवहार बदल गया था| पति की डाँट-डपट अब उसे अभित्रस्त न करती| न ही कातर बनाती| निधड़क हो कर अपनी बात कहने-सुनाने में अब उसे तनिक संकोच न होता| वाक्कलह बढ़ती भी तो वह उसे बढ़ जाने देती|
“तपेदिक पकड़ने में कौन समय लगता है?” डॉक्टर को चन्द्रिका का आक्रामक स्वर तनिक न भाया, “गाय की चवली में, गाय की चराई की घास में, कहीं भी मौजूद रहे माइक्रो-बैक्टीरियम बोविस के कीटाणु उसे तपेदिक दे सकते हैं.....”
तपेदिक को उन दिनों एक भयंकर बीमारी माना जाता था और लाइलाज भी|
चन्द्रिका को उसके मायके भेजने में पन्ना लाल ने तनिक ढील न दिखायी|
घर छोड़ते समय चन्द्रिका ने अपनी आँखों से एक आँसू न टपकाया|
बेटे को देख कर भी वह विचलित न हुई|
मगर रास्ते में जब वह जरसी के नए ठिकाने पर उस से मिली तो उस के गले लग कर खूब रोई|
रुलाई उसे जरसी ने दिलायी थी| वह पहले से आधी रह गयी थी और चन्द्रिका का स्पर्श पाते ही अपनी आँखों में आँसू ले आयी थी|