ratnavali - 18 in Hindi Fiction Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | रत्नावली 18

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रत्नावली 18

रत्नावली

रामगोपाल भावुक

अत्ठरह

राजापुर के घाट से गोस्वामी जी को लोग विदा करके आये थे, उसी दिन से उनके मन में काशी की यात्रा करने की बात बारम्बार आती रहती थी। जब भी दो तीन बुजुर्ग मिलते, तीर्थ यात्रा पर जाने की योजना बनाने लगते। गणपति इस योजना में विशष् भूमिका निभाने लगे। कुछ लोगों को साथ चलने के लिए उकसाने लगे। धीरे-धीरे कुछ लोगों के मन यात्रा पर जाने के लिए बन गये। अब रत्ना मैया को तैयार करने का काम ही शेष रह गया। रत्नावली अब रत्ना मैया के नाम से प्रसिद्ध हो गयी थी। गाँवकी बड़ी-बूढ़ी महिलाओं का चक्कर इसी प्रकरण को लेकर रत्ना मैया के यहॉं लगा करता। गणपति की माँ भागवती के साथ दुर्गा, सोमवती भी उनके घर आ पहुँचीं। आहट सुनकर वे पौर में ही आ गयीं। वे समझ गयी, इनकी चर्चा में स्वामी की चर्चा जरूर चलेगी। जब-जब इस तरह का अवसर आता था, उनकी यादें ताजा हो जाया करती थीं। उस पर से धुंधलाने वाली पर्तें हट जाती थीं।

वे पौर में ही बैठ गयीं। भागवती के लिए रत्ना मैया ने पीढ़ा डाल दिया। बात भागवती ने ही शुरू की-‘अपने गाँव के सब लोग लगे हैं, चलो कहीं घूम फिर आवे।‘

रत्ना ने भोलेपन से पूछ लिया-‘कहॉं जायेंगी ?‘

दुर्गा बोली-‘जाती कहॉं ? सब जिन्दगी तो यहीं निकल चली, बस आपके साथ चित्रकूट गये थे। कितने दिन हो गये ?‘

बात सोमवती ने बढ़ा दी-‘अब की बार काशी में विश्वनाथ भगवान के दर्शन कर आते हैं।‘

रत्नावली को लगा-ये सभी पहले से ही बनठन कर आयीं हैं। मैंने तो कुछ सोचा भी नहीं है। वे यह सोचकर बोलीं-‘मैं बच्चों की परीक्षायें लेने की सोच रही थी।‘

भागवती बोली-‘परीक्षाओं का कार्य निपटले, फिर चलते हैं। आपके बिना तो हम लोग जाने वाली हैं नहीं ।‘

हरको ने घोषणा कर दी-‘भौजी जायेंगी तो मैं भी साथ चलॅूंगी। हाँ भौजी ने मना कर दिया तो बात कुछ ओैर है।‘

यह सुनकर रत्नावली ने कहा-‘मैं क्यों मना करने लगी। सब जिन्दगी तो यहॉं पड़े़-पड़े निकल गयी। अच्छा है सभी चलते हैं।‘

उत्साह से हरको ने कहा-‘राम जी चाहेंगे तो चित्रकूट की तरह गोस्वामी जी काशी में भी मिल सकते हैं।’

बात को भगवती ने बढ़ाया-‘सुना है वे राजापुर से निकलकर गये हे तब से काशी में ही हैं। राम भक्तों से घिरे रहते हैं।‘

यह सुनकर तो उनको लगा जितनी जल्दी हो सके यहॉं से चल देना चाहिए। फिर सोच ने पर्त बदली- क्या पता चित्रकूट की तरह वहाँ भी न मिलने का कोई बहाना बना दें!

भागवती रत्ना मैया को चुपचाप बैठी देखकर बोली-‘तो बात पक्की है, आप अपने शिष्यों की परीक्षा निपटालें। अगले सोमवार को चल देंगे।‘

उन सभी औरतों के मुंँह से निकला-‘हाँं, सोमवार का दिन ही ठीक रहेगा।‘

रत्नावली इस योजना से समझ गयी- मुझे लिवा जाने के लिए ही सारी योजना बनी है। मैं कितनी बड़ी भाग्यशाली हूँ जो इनका इतना प्यार पा रही हूँ।

जीवन के किसी चौराहे पर खड़े होकर जब हम सोचते हैं तो लगता है जो भी घटनायें घटी हैं, वे पूर्व नियोजित सी थीं। यों सोचने पर मन को दुखित करने वाली घटनायें भी सुख शान्ति देने लगती है। ऐसी स्थिति में जीवन का अर्थ ही बदल जाता है। यह सोचते हुये रत्नावली ने पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार तीर्थयात्रा की तैयारी प्रारम्भ कर दी। हरको भी जाने क्या-क्या सपने संजोने लगी ? रत्नावली समझ गयी, स्वामी के दर्शन भी होंगे ही। प्रभू किस तरह दर्शन का योग बना देता है? यह सोचा भी न था।

रास्ते के लिए खाने-पीने का बन्दोवस्त कर लिया गया। सत्तू की व्यवस्था कर ली गयी। लोग रत्ना मैया के घर इकट्ठे हो गये। यथा-समय घर से निकल पड़े़। सभी यात्रियों ने परम्परा अनुसार गाँव की परिक्रमा देकर, हनुमान जी के दर्शन किये और वे घाट पर आ गये। यात्रियों को विदा करने के लिए गाँवका कोई घर ऐसा न था, जिसमें से कोई न कोई उन्हें विदा करने के लिए वहाँ न आया हो। घाट पर जाकर जब जत्था खड़ा हुआ, लोग रत्ना मैया के चरण छूने दौड़ पड़े़। जिस पर जो श्रद्धावश बन रहा था टका-पइसा उन्हें देते जा रहे थे और चरण छूते जा रहे थे। इस कार्य से निवृत हो कर मैया नाव में बैठ गयी। गाँव के लोगों ने उन्हें अश्रुपूरित नेत्रों से विदा किया।

बात महेबा गाँवमें भी पहुंच गयी। महेबा के लोग भी यात्रियों को लेने घाट पर ही आ पहुँचे। जैसे ही नाव से मैया उतरीं, महेबा के लोग घाट पर ही उपस्थित थे। गंगेश्वर ने आगे बढ़कर बहन को दक्षिणा देकर चरण छुये। गाँवके लोगों ने भी ऐसा ही किया। जत्थे को गाँव के बगल से निकलना था। लोगों ने गाँव में तनिक देर ठहरने की बात कही, पर यात्रियों की आगे बढ़ने की तीव्र इव्छा को देखकर गाँव के लोगों से आगे जाने का निवेदन करना पड़ा, तब कहीं वे आगे बढ़ पाये। अब महेबा के लोग भी पीछे छूट गये। इस तरह उनकी यात्रा प्रारम्भ हो गयी। प्रयाग पहुँचते-पहुँचते रात हो गयी थी। रात सत्तू खा-पीकर वे सो गये। अगले दिन भी वे जल्दी उठ गये। त्रिवेणी संगम पर स्नान किया। अब वे प्रयाग के दर्शन के लिए निकल पड़े। यह दिन यहीं व्यतीत हो गया। तीसरे दिन की यात्रा काशी के लिए प्रारम्भ हो गयी। बीच में एक दिन एक गाँवमें विश्राम लेना पड़ा, तब कहीं वे काशी पहुँच पाये। दिन ढलते-ढलते गंगा जी के घाट पर पहुँच गये। उनके मन में उत्साह था कि आज काशी विश्वनाथ भगवान के दर्शन होंगे।

गोस्वामी जी लोलार्क कुण्ड पर एक मठ में ठहरे हुये हैं। वे लोग लोलार्क कुण्ड की तरफ चल दिये। रामा भैया बोले-‘यहॉं के पण्डे पुजारी गोस्वामी जी के बडे विरोधी हैं। ‘

‘राजापुर के लोगों में से किसी ने कह दिया-‘देखना किसी दिन सब उनके सामने नतमस्तक हो जायेंगे।‘

यह सुन रत्नावली सभी को सुनाते हुये कहने लगीं-‘विरोध में कुछ तथ्य तो छुपे ही रहते हैं। तथ्य जितने गहरे होते हैं, विरोध उतना ही तीव्र होकर उभरता है। यदि विरोधियों के पास पुष्ट तथ्य नहीं हुये तो उनका विरोध हवा में उड़कर धूल-धूसरित हो जाता है।’

इसी प्रकार की बातें करते हुये वे मठ पर पहुँच गये। मठ के बाहर ही पड़ाव डाल दिया।

‘गोस्वामी जी की अनुमति के बिना मठ में प्रवेश उचित नहीं है।’ कहकर उन्हें रोक रामा भैया मठ के अन्दर चले गये। जब वे लौटे गोस्वामी जी उनके साथ थे। उन्हें देखकर उनके शरीर रोमांचित हो गये। उनका रक्त का संचार तेज हो गया। सभी चरण छूने के लिए दौड़ पड़े।

रत्नावली भी बेमन किसी अज्ञात पाश में बंधी हुयी उनके चरणों तक पहॅुँच गयीं। चरणों में सिर रख दिया। आवाज सुन पड़ी-‘उठो........उठो.........।’

वे उठ पड़ीं। चेहरे पर दृष्टि गयी। घुटा हुआ सिर, लम्बी चोटी, उम्र के साथ चेहरे की चमक कई गुना बढ़ गयी थी। जैसे ही ऑंखें मिली, रत्नावली की ऑंखें उनके चरणों में झुक गयीं।

गोस्वामी जी ने एक साधु को आवाज दी-‘रतनदास.........।‘

वह बोला-’जी महाराज।‘

गोस्वामी जी ने आदेश दिया-‘इन लोगों के ठहरने की व्यवस्था कर दो।‘

आज्ञा का उसने सहज में ही उत्तर दिया-‘जी महाराज।‘

ये लोग उठ कर साधू के पीछे-पीछे चल दिये। पास में ही एक छोटे से मन्दिर की दालान में उन को ठहरा दिया गया। दालान में चटाइयॉं डाल ली गर्यीं। वे हारे थके थे। आराम करने लगे। रत्ना को नींद का झपका आ गया। इसी समय एक और साधू उनको भोजन के लिए बुलाने आ गया, बोला-‘गोस्वामी जी ने कहा है, आप लोग भोजन के लिए चलें, भोजन तैयार है।‘

पुनः लोलार्क कुण्ड के उसी मठ पर पहॅुँच गये, जहॉं गोस्वामी जी ठहरे हुये थे। पत्तलें डाल दी गयीं। दाल-रोटी भूख में अद्वितीय लगती है। गोस्वामी तुलसीदास दालान में तख्त पर बैठे उनको भोजन करते देख रहे थे।

भोजन करने के बाद वे लौट आये थे। दो दिन तक रत्नावली स्वामी के सामने नहीं पड़ीं। रत्ना को गोस्वामी के हो रहे विरोध का पूरी तरह एहसास हो गया था। रामचरित मानस की चर्चा घर-घर की जा रही थी। जब लोगों को यह ज्ञात हुआ कि गोस्वामी जी की पत्नी तीर्थ यात्रा पर आयीं हैं तो उनके दर्शन के लिए भी लोग आने लगे। कई जगह से उनको ठहरने के निमंत्रण भी मिलने लगे। लेकिन वे इतना ही कहतीं, ‘मैं यहीं इन लोगों के साथ ठीक हूँ।‘

हरको उन्हें बार-बार जाने के लिए उकसाती। एक दिन रामा भैया के साथ गोस्वामी जी के मित्र पं. गंगाराम ज्यातिषी पधारे। मैया के चरण छूकर बोले-‘मैया मैं गोस्वामी जी का सेवक हूँ। मैंने गोस्वामी जी से आपको अपने घर ले जाने के लिए कहा था तो वे कह रहे थे- यह बात आप से ही पूछना उचित रहेगा। साथ ही यहॉं के प्रसिद्ध स्थलों के दर्शन भी करा दॅूंगा।‘

यह सुनकर वे बोलीं-‘भैया में आपके साथ चलती हॅूँ लेकिन यहाँ के मन्दिरों के दर्शन तो मैं राजापुर के इन लोगों के साथ ही करुँगी।‘

यह सुनकर सभी को बड़ी प्रसन्नता हुयी। वे जान गये, मैया हम से कितना स्नेह करती हैं।

उसी दिन, दिन ढले ज्योतिषी जी के यहॉं से बग्गी आ गयी। जल्दी लौटने की कहकर वे उनके यहाँ चली गयीं। वहाँ उनका ज्योतिषी के परिवार व टोडर जी के परिवार वालों से खूब मेल मिलाप हो गया। पूरे समय गोस्वामी जी की रचना की प्रशंसा में चर्चा चलती रहती। टोडर जी के यहॉं मानस की प्रतियाँ करने का कार्य चल रहा था। कुछ छात्र इस कार्य में लगे थे। यह देखकर तो उन्हें खूब अच्छा लगा।

तीसरे दिन राजापुर बासियां के साथ काशी दर्शन के लिए निकले। लेकिन जल्दी की लौट आये। अगले दिन से सुबह कुछ खा पीकर निकलते, लौटते में रात हो जाती। भोजन व्यवस्था कभी ज्योतिषी जी के यहाँ, कभी टोडर जी के यहॉं रहती। स्थानों की जानकारी के लिए ज्योतिषी जी ने एक साधु को साथ भेज दिया था। उसके साथ रहते भूल- भुलैया से बच जाते। इस तरह चार दिन तक यही क्र्रम चलता रहा। दिन में जब भी समय मिला गोस्वामी जी की बातंे होती रहती।

जब भगवान विश्वनाथ के दर्शन के लिए निकले, रत्नावली अत्यंत भाव विभोर हो गयी थीं। उस दिन पण्डित गंगाराम जी की पत्नी शकुन्तला और टोडर जी की पत्नी सरस्वती भी उनके साथ थीं। रास्ते में वे दोनों अपने-अपने घर सदा के लिए ठहरने का निवेदन भी कर चुकी थीं। रत्ना ने एक ही उत्तर दिया था। यहॉं स्वामी की जैसी आज्ञा होगी वैसा ही करुँगी। मुझे तो अच्छा ही है, उनके मुखारविन्द से मानस पाठ सुनने को तो मिल सकेगा।

विश्वनाथ भगवान के मन्दिर में बहुत भीड़ थी। भगवान के दर्शन करने के बाद प्रसाद चढ़ाया। विश्राम करने के लिए एक दालान की तरफ बढ़ गयी। इसी समय एक बन्दर जाने कब से उनकी पोटली को ताक रहा था। वह आराम से नीचे उतरा और उसने रत्नावली के हाथ का प्रसाद पकड़ा। रत्ना मैया ने उसे बडे़ प्यार से वह पोटली सौंप दी। यह देखकर लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी। कुछ ने पूछा कौन हैं ? कहॉँ से आयीं हैं ? टोडर जी की पत्नी ने गर्व से उत्तर दिया-‘आप गोस्वामी जी की पत्नी हैं।‘

‘कौन गोस्वामी ?‘ किसी ने फिर प्रश्न उछाल दिया।

‘रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास।‘ दूसरे ने समाधान प्रस्तुत किया।

भीड़ में से एक आवाज और सुन पड़ी-‘तो क्या उनके पत्नी भी है।‘

यह सुनकर तो तरह-तरह की बातों का सिलसिला शुरू हो गया।

किसी ने ठहाका लगाकर हँसते हुये कहा-‘अब तो रामचरित मानस के रचयिता पत्नी के साथ रहेंगे।‘

कोई बोला-‘ऐसे ढोंगी लोग रामचरित लिखने लग जायें, फिर तो संसार में कहीं धर्म शेष ही नहीं रह जायेगा।’

चौथा पाँचवा छठा...............। जिसके मन में जो आया कहता गया।

कुछ देर बाद भीड छँट गयी।

रत्नावली ने निश्चय कर लिया-‘अब वह यहाँ एक दिन भी नहीं रहेंगी। वैसे ही उन्हें इन दुष्टों का विरोध सहन करना पड़ रहा है। मेरे कारण और व्यर्थ ही अफवाहें उठेंगी। मेरा यहॉं रहना ठीक नहीं है।

हरको ने टोक दिया-‘क्या सोचने लगीं भौजी ?‘

यह सुनकर वे बोली-‘मेरी वजह से व्यर्थ ही उन पर कीचड़ उछाली जाये इससे तो अपन लोगों का यहॉंँ से चले जाना उचित है।‘

एक क्षण तक बात सुनकर सन्नाटा छाया रहा। लोग इस वातावरण के कारण दुखी थे।

अगले दिन ही रत्नावली ने वापस जाने की ठान ली। अकेला देखकर रत्नावली हरको से बोली ‘हरको बाई, तुम अपने गुरुजी के पास चली जाओ ,कहना-‘भौजी वापस जाने की आज्ञा चाहती हैं।‘ हरको ने अपना प्रस्ताव सुझाया। बोली-‘भौजी आप सोच लें, अपने मन से यह बात कहना उचित रहेगी क्या ?‘

रत्नावली बोली ‘उचित- अनुचित की बात नहीं है। मेरे कारण उनके बारे में लोग व्यर्थ की टीका- टिप्पणी करें। इससे तो हमारा यहॉं से चले जाना ही उचित है।‘

हरको रत्नावली की बात सुनकर गोस्वामी जी के पास चली गयी। रत्ना मैया उसके लौटकर आने की प्रतीक्षा करने लगी। जब हरको लौटकर आयी, काफी देर हो चुकी थी। उसे देखते ही रत्नावली ने अधीर होते हुये पूछा-‘क्यों हरको, इतनी देर कैसे हो गयी ?‘

हरको ने बडे इत्मीनान से उत्तर दिया-’गुरुजी के पास भीड़भाड़ थी। ज्योतिषी जी व टोडर जी भी बैठे थे। रामा भैया भी वहीं जमे हैं। गुरुजी रामकथा का प्रसंग लिए बातचीत कर रहे थे। मुझे भी वहीं चुपचाप बैठना पड़ा। जब प्रसंग समाप्त हो गया तो मुझे देखकर उन्होंने स्वयं ही पूछा-‘कहो हरको कैसे आना हुआ ?‘

मैंने तो कह दिया-‘भौजी कल जाना चाहती हैं। आपके दर्शनों की इच्छा है।‘

यह सुनकर सब मन ही मन बात को गुनने लगे। ज्योतिषी व टोडर जी को पिछली घटना का ज्ञान अपनी पत्नियों से हो गया था। अतः उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा। गोस्वामी जी ही बात सुनकर बोले, ‘जैसी उनकी इच्छा। यहॉं आना चाहती हैं तो अभी बुला लाओ।...... मैं आपको बुलाने चली आयी उठो चलो, गुरुजी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।‘

धड़कते दिल से वे हरको के पीछे-पीछे चल दीं। राजापुर के लोग उनके पीछे-पीछे चल दिये। वहॉं पहुँचकर सबसे पहले रत्ना मैया ने चरणों में सिर रख कर प्रणाम किया। बाद में सभी ने उनका अनुकरण किया। अब प्रश्न गोस्वामी जी ने ही उठाया। बोले-‘कहो, क्या कहना है ?‘

‘स्वामी रामचरित मानस की प्रति मिल जाती तो उसी के सहारे शेष जीवन व्यतीत हो जाता।‘

यह सुनकर तुलसीदास जी ने टोडर से कहा-‘टोडर जी एक प्रति इन्हें दे दें।‘

टोडर ने बात का उत्तर दिया-‘जी....।‘

अब टोडर ने मैया से प्रश्न कर दिया-‘मैया आप कब प्रस्थान कर रहीं हैं ?‘

प्रश्न के उत्तर में रत्ना मैया ने सहज में ही कहा-‘कल सुबह ही निकलने ही इच्छा है।‘

अब कौन क्या प्रश्न करें ? सभी चुप बैठ गये। सन्नाटे को चीरने वाला गोस्वामी तुलसीदास का ही स्वर गूँजा, ‘और कुछ कहना है ?‘

रत्नावली यह प्रश्न सुनकर सकपका गयी । कहती हूँ कुछ नहीं, पर कहने की तो जाने क्या-क्या सोचकर आयी थी। यह कहूँगी, वह कहॅूँगी। अब उनके सामने सब कुछ गायब हो गया। सभी की दृष्टि रत्ना मैया के चेहरे की तरफ थी। वे क्या कहती हैं ? रत्नावली ने अनेक बातों में एक बात चुनी और बोली-‘‘मैं जब मरूँ उस अंतिम घड़ी में आप मेरे पास हों। मेरा अंतिम संस्कार आप अपने हाथों से ही करें। बस सोई मैं तर गयी ।‘

इस तरह की बात की किसी को आशा भी न थी। अब उनकी दृष्टि गोस्वामी तुलसीदास जी के चेहरे पर टिक गयी थी। भीड़ के कान उत्तर सुनने को व्यग्र हो रहे थे। बात सुनकर तुलसीदास जी गम्भीर होते हुये बोले-‘ठीक है ऐसा ही होगा और कुछ ?‘

अगले प्रश्न के उत्तर में रत्नावली को कहना ही पड़ा-‘बस और कुछ नहीं चाहिए, इतनी ही कृपा दृष्टि बनी रहे।‘

अब गोस्वामी जी ने हरको से कहा-‘हरको भोजन यहीं मठ में बन रहा है, आप लोगों का यहीं भोजन होगा।‘

‘जी गुरु जी!‘

लोग उठ पड़े। मन ही मन वे रत्ना मैया के द्वारा मॉंगे जाने वाले वरों की प्रशंसा कर रहे थे। ‘वाह मैया वाह। एक ही वर में जन्म-जन्मान्तर के लिए सब कुछ मॉँग लिया। कितनी चतुर हैं ?‘

और रत्नावली सोच रही थीं- मेरे मुँह से औचक यह क्या निकल गया? सारी जिंदगी तपती रही....मरते समय उनके आने से कौनसी ठण्डक मिल जायेगी? हमारे मन में मरने के समय और उसके बाद की जो संकल्पनाएँ हैं वे पूरी तरह कपोलकल्पित हैं, किन्तु उनकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि वे मन से निकाले नहीं निकल रहीं।

रत्ना मैया राजापुर जा रही हैं, यह बात परिजनों में फैल गयी । दूसरे दिन वे समय पर दैनिक कार्य से निवृत हो गये। रामा भैया गोस्वामी जी को चलने की तैयारी की सूचना देकर लौट आये। आते ही बोले-‘सब अपना-अपना सामान उठाओ। चलो वहीं मठ पर गोस्वामी जी से मिलते हुये चलेंगे। यह सुनकर वे उठ खडे़ हुये।‘ लोलार्क कुण्ड के मठ के लिए चल दिये। जब वहॉं पहुंचे, लोग उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। शकुन्तला और सरस्वती ने आगे बढ़कर उनके चरण छुये और दक्षिणा दी। फिर सभी ने ऐसा ही किया। ज्योतिषी जी एवं टोडर जी ने मुद्रायें तो दी ही साथ ही अच्छे-अच्छे वस्त्र भी उन्हें अर्पित किये। यह देखकर उनका ह्दय गद्-गद् हो गया। अश्रु धारा बह निकली। मन में संकोच करते हुये वह शकुन्तला और सरस्वती को सम्बोधित करते हुये बोली-‘मैं इतने धन का क्या करुँगी ?‘

यह सुनकर सरस्वती बोली-‘वक्त बेवक्त इसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता।‘

शकुन्तला ने निवेदन की भाषा का प्रयोग किया-‘मैया इसे आप रख लें।‘

रत्नावली ने समझ लिया, अब इस धन को रखना ही विकल्प है। वह उन मुद्राओं को लेकर स्वामी के पास पहॅुँच गयीं । उनके तख्त पर मुद्राओं को रखकर उनके चरणों में सिर रख दिया। यह देखकर गोस्वामी जी बोले-

‘रत्ना इन्हें लिए जाओ। हॉँ, समय आने पर मैं जरूर आऊॅंगा।‘

उनका मन रखने उन्होंने मुद्रायें उठा लीं। अब राजापुरबासी गोस्वामी जी के चरण छू रहे थे। और उन्हें दक्षिणा देते जा रहे थे। रत्नावली चुपचाप पास ही खड़ी रहीं। गोस्वामी तुलसीदास ने पास रखी मानस की हस्तलिखित प्रति उठाई और रत्ना की ओर बढ़ा दी। शब्द निकले, ‘यह लो, रामचरितमानस की प्रति।‘

रत्ना मैया ने अपने हाथ इतने प्यार से बढ़ाये, जैसे कोई नारी अपने शिशु को लेने के लिए बढ़ाती है। उन्होंने प्रति लेकर ह्दय से चिपका ली। उन्हें उतना ही आनन्द मिल रहा था जितना मॉँ अपने शिशु को ह्दय से चिपकाते समय प्राप्त करती है। जाने के लिये आदेश के रूप में अब तुलसीदास जी के मँह से शब्द निकले-

‘जय-जय सीताराम, जय-जय सीताराम।‘

वे समझ गये जाने का आदेश हो गया। उन्होंने आदेश को पालन करने के लिए उत्तर दिया-‘जय-जय सीताराम बोलो, जय-जय सीताराम।‘

मानस की प्रति रत्ना ने सिर पर रख ली। उन की ऑंखों में प्रेमाश्रु झिलमिला उठे थे। बिना रुके पूरा जत्था मठ से बाहर निकल आया।

अब वे श्रीराम जय राम, जय जय राम की धुन गाते हुये राजापुर के लिए चल दिये।

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