' ऑटो वाले.... जरा रोकना।" रीनी की व्यग्र आवाज से ऑटो वाला और मीना दोनों चौंक गए। ऑटो वाले ने ऑटो रोक दिया।
" क्या हुआ रीनी...? अभी हम मार्केट पहुंचे कहां?"
" सॉरी मीना! मुझे अपनी तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही है। मैं वापस जा रही हूं।" यह कहते हुए रीनी मीना के जवाब का इंतजार किए बिना ऑटो से उतरकर दूसरे ऑटो में बैठ गई- " भइया, संगीता सोसायटी, सरोज नगर चलो! जरा जल्दी।"
ऑटो चल पड़ा और रीनी के विचारों का क्रम भी- ' कौन थी वो लड़की? राघव के साथ उसका क्या संबन्ध है? जिस तरह से वो बाईक पर राघव से चिपककर बैठी थी, उससे लगता है कि मामला जरूर गड़बड़ है!'
'.....राघव उसके साथ धोखा कैसे कर सकता है? इन दोनों में कब से शुरू हुआ होगा ये सब? राघव के भरोसे पर ही तो वह सब कुछ छोड़छाड़ कर यहां आई है!' रीनी की नजर के सामने बार बार उस लड़की का राघव के साथ चिपककर बैठने का मंजर कौंधता और उसकी रुलाई फूटने लगती।
एकाध बार उसने राघव को फोन करने का विचार किया पर उसकी हिम्मत नहीं हुई।
.... अपने घर का ताला खोला और रीनी बिना कपड़े उतारे बिस्तर पर ढह गई। उसकी मानसिक हालत अजीब सी हो गई थी। ऐसे मानो घर में एलपीजी गैस खोलकर खिड़कियां खोल दी गई हों, अगर किसी ने माचिस जला दी तो भगवान जाने क्या होगा।.... रीनी की आंखों से गंगा जमुना की धार बहने लगी।
" रीनी!" राघव की आवाज से रीनी की तंद्रा टूटी। उसने दीवार घड़ी पर नजर डाली। आठ बजे गए थे। वह पथरीला चेहरा लिए राघव को ऐसे देखने लगी जैसे पहली बार देख रही हो। उसके चेहरे पर हैरानी और नफरत के मिले जुले भाव थे।
राघव के हाथ में सब्जी का थैला था, उसे रीनी को पकड़ाते हुए वो बोला- " अरे मैडम! आप किस दुनिया में खो गई हैं?"
" ओह... क.. क..कुछ नहीं.... अरे आप कब आए?" कहते हुए रीनी ने आंसू पोछने का उपक्रम किया। " अरे, रीनी! क्या हुआ तुम्हें? क्यों रो रही हो?" राघव ने रीनी की पनीली आंखें देख ली थी।
" कुछ नहीं राघव.... शायद आंख में कोई तिनका चला गया था।"
तब तक रीनी संयत हो गई थी..... वह राघव के हाथ से थैला लेकर किचन की तरफ गई। थैले को वहां रखकर उसने मटके से एक ग्लास पानी निकाला, उसे लाकर राघव को दिया और चुपचाप बैठ गई..... अब उसकी आँखों में आंसू की बजाय नाराजगी का भाव था। इसे राघव ने परख लिया-
" क्या हुआ रीनी... क्यों गुमसुम हो?"
" कुछ नहीं! बस... यूं ही!"
" कुछ तो जरूर है? बताओ मुझे।"
" कुछ नहीं!"
" रीनी, लगता है तुम मुझसे कुछ छिपा रही हो?"
" राघव, हम शादी कब कर रहे हैं?" रीनी के इस सवाल ने राघव को चौंका दिया। शायद, वह इस अप्रत्याशित सवाल के लिए तैयार नहीं था।
" क्या बात है रीनी? यह सवाल अचानक क्यों?" राघव की बातों में रीनी ने एक कठोरता साफ- साफ महसूस की।
"....रीनी, यह बात यहां पर तुम किसी को गलती से भी नहीं बोलना कि हमारी शादी नहीं हुई है।"
" क्यों?"
" इसलिए..... कि..... हम शादीशुदा हैं, यह कहकर ही ये घर हमें मिला है।" फिर राघव ने नर्मी अख्तियार कर ली- " रीनी.... घर की हालत तो तुम्हें पता ही है। इसलिए शादी तो हम अगले साल ही कर पाएंगे। इसके लिए ही तो मैं चार पैसे जोड़ रहा हूँ।"
" यह सब मैं कुछ नहीं जानती राघव! बस मुझे जल्द से जल्द शादी करनी है।" रीनी की आवाज में जिद थी।
" देखो रीनी, तुम्हें सब हालात मालूम हैं। फिर ये जिद क्यों?.... और आज.... अचानक शादी का खयाल तुम्हारे मन में कैसे आया?" राघव ने रीनी का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा।
" राघव! तुम मुझे छोड़ तो नहीं दोगे?..... मुझे धोखा तो नहीं दोगे?" रीनी रुआंसी हो गई।
" अरे पगली! ये क्या कह रही हो? तुम मेरी रानी हो। मेरी जान।.... तुम मुझपर भरोसा रखो।" राघव ने रीनी को गले से लगा लिया।
रीनी रोने लगी। रोते- रोते उसने राघव से पूछा- " राघव, मुझे ये बताओ..... आज तुम्हारे साथ बाईक पर वो कौन सी लड़की थी?
" लड़की... कौन सी लड़की.... कब? चौंक पड़ा था राघव। इस सवाल से उसका चेहरा पीला पड़ गया, पर जल्दी ही उसने अपने को संभाल कर प्रत्युत्तर किया।
" शाम के समय। मैं मीना के साथ बाजार जा रही थी। हम दोनों रिक्शे में थे..... तभी मैंने देखा कि आप किसी लड़की......।"
"अच्छा, वो....!" ठठाकर हंस पड़ा था राघव।...... उसने रीनी के होंठों पर अपनी उंगली रख दी थी- " पगली!.. अगर मेरे फोन में बैलेंस होता तो मैं तुम्हें फोन जरूर करता।
मैं तुम्हें धोखा देने को सपने में भी नहीं सोच सकता। वो लड़की मेरे बॉस की बहन थी। बॉस की कार अचानक खराब हो गई तो उन्होंने उसे घर छोड़ने की कह दिया। बस.... और कोई बात नहीं! पगली....! तुम.. सोचती बहुत हो।" कहते हुए राघव ने रीनी के आंसू पोछे और उसे अपने गले लगा लिया।
******
आज सुबह से ही रीनी को अपनी तबियत कुछ ठीक नहीं लग रही थी। इसीलिए वो ऑफिस नहीं गई। राघव उसकी तबियत को लेकर इतना चिंतित था कि सुबह से पांच बार उसका फोन आया और वह जल्दी घर आ गया।
" कैसी तबियत है रीनी? चलो, डॉक्टर को दिखाते हैं।"
" अब ठीक है। मेडिकल से दवा लाई थी।"
" ओके... टेक रेस्ट।!"
उस दिन की लड़की वाली बात के बाद राघव रीनी का कुछ ज्यादा ही ध्यान रखने लगा। इससे रीनी को कभी- कभार शक होने लगता था कि 'राघव कहीं दिखावा तो नहीं कर रहा है! सब कुछ ठीक- ठाक तो है न?' दूसरे पल विश्वास उसकी शंका को जीत लेता था- ' नहीं..नहीं! राघव क्यों दिखावा करेगा? वो तो उसे बहुत प्यार करता है। राघव बहुत अच्छा है।'
रीनी को एक दिन अपने मैथ के गुरु जी की बहुत याद आई। शालिग्राम तिवारी उसे रुइया में मैथ पढ़ाते थे। आदर्श व्यक्तित्व। आक्सफोर्ड ऑफ ईस्ट के रूप में विश्वविख्यात इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के पढ़े हुए। अनुशासनपसन्द। एक अप्रतिम अध्यापक के रूप में रीनी उनकी बहुत इज्जत करती थी। उनकी एक बात उस दिन रीनी को अचानक याद आ गई- 'बर्दाश्त करो, बिंदास बनो।' रीनी को गुरुजी के इस वाक्य से रोशनी मिलती दिखाई दी। उसने सोचा कि अब बहुत बर्दाश्त कर लिया, अब बिंदास ही बनना होगा।
उस दिन राघव ने रीनी से कहा-
" रीनी.... अब तुम जॉब करना छोड़ दो।?
" क्यों?
" देखो, अब मैं भी अच्छा कमाने लगा हूं। घर के हालात सुधर गए हैं।?
" तो..?" रीनी का स्वर आत्मविश्वास से भरा था।
" अब तुम्हें काम करने की जरूरत नहीं। रीनी... अब तुम घर संभालो।"
" पर...... राघव...!"
" पर... वर कुछ नहीं। अब तुम काम नहीं करोगी। सिर्फ घर संभालोगी।" हंसकर राघव ने अधिकारपूर्वक फैसला सुनाया और रीनी निरुत्तर हो गई।
दो-तीन दिन बीत गए। रीनी की तबियत भी ठीक हो गई। एक सुबह राघव ने रीनी से कहा-
" गाँव में मां की तबियत खराब है। मुझे अर्जेंट में जाना होगा। मैं कुछ दिन की छुट्टी लेकर जाता हूँ।"
" आप क्यों छुट्टी लेंगे? मैं ही चली जाती हूँ। इसी बहाने सभी से मिल भी लूंगी।"
" हां, ये ठीक रहेगा।" राघव ने सहमति दर्शाई।
" आप अपने काम पर ध्यान दीजिए। छुट्टी लेने की जरूरत नहीं। मैं सब संभाल लूंगी।" गैस पर चाय का पानी रखते हुए रीनी बोली।
" अति सुंदर। वैसे भी मेरे ऑफिस में काम ज्यादा है।.... आज मैं आते समय बस का टिकट बुक करवा लूंगा।"
" ओके।" रीनी ने सहमति में सिर हिलाया।
*****
गांव के स्टॉप पर बस से उतरते ही रीनी का मन हुआ कि वो सबसे पहले समंदर के किनारे चली जाए..... समंदर की लहरों को जी भरकर देखे, महसूस करे...... उसे अपनी आंखों में बसा ले.... फिर घर जाए। पर यह मुमकिन नहीं था। राघव ने चाची और मां दोनों को फोन कर दिया था। चाची स्टॉप पर उसका इंतजार कर रही थी।
रीनी के हाथ से बैग लेते हुए चाची ने उस पर सवालों की बौछार कर दी- बेटी कैसी है तू? बहुत दुबली दिख रही है? कमजोर क्यों हो गई? पढ़ाई कैसी चल रही है? हॉस्टल का माहौल कैसा है? वहां कोई तकलीफ तो नहीं है? खाना- पीना बराबर करती है न?" सवालों की बौछार से रीनी हड़बड़ाकर रह गई। उसका जवाब संक्षिप्त था-" हां चाची। एकदम ठीक हूं। फर्स्ट क्लास! पढ़ाई बहुत अच्छी चल रही है।"
दुनिया- जहान की बातें करते हुए चाची- भतीजी घर पहुंची। थोड़ा फ्रेश होकर, चाय- नाश्ता कर रीनी राघव के घर की ओर चल पड़ी- " चाची... थोड़ा राघव के घर जाकर आती हूँ।"
" ठीक है बेटा। जल्दी आना।" चाची ने कहा।
राघव के घर पहुंचकर रीनी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। राघव की माँ आंगन में कुछ काम कर रही थी। ' राघव ने तो कहा था कि माँ बीमार हैं... और यहां...?' बहरहाल, रीनी ने जाकर उनके पैर छुए। उन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहां, "आओ, रीनी आओ! तुम कब आई बेटी?"
" अरे चाची, मैं आपकी हालचाल लेने आई हूँ।?
" मेरी हालचाल! मुझे क्या हुआ है?"
" चाची, आपकी तबियत ठीक नहीं है, तो क्यों काम कर रही हो आप?.... चलो, आराम करो।" रीनी ने उनका हाथ पकड़ लिया।
" अरे बेटी, मुझे कुछ नहीं हुआ है! मैं अच्छी भली तो हूँ।"
" सुना कि आपकी तबियत खराब है?"
" क्या कहा? मेरी तबियत खराब है?... किसने कहा तुझसे?"
रीनी को सदमा सा लगा। उसके दिमाग में सोचों का तूफान मच गया। " चाची.... वो राघव.... राघव... ओह... कुछ नहीं चाची! अच्छा छोड़ो।" तब तक संभल चुकी थी रीनी। " आते वक्त मैं राघव से मिली थी, उसने आपके लिए ये सामान भेजा है।" कहकर उसने सामान का बैग राघव की माँ की पकड़ाया और वहां से चल पड़ी।
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हाय रे बुद्धिहीन मानव ह्रदय! तू मीठी-मीठी बातों और मिथ्या प्यार के चंगुल में जल्दी फंस जाता है। जिसे तू प्यार समझता है वह भ्रांति भी तो हो सकता है, पर तेरी भ्रांति किसी तरह भी मिटती नहीं। युक्तिशास्त्र का तर्क बहुत देर बाद मस्तिष्क में प्रवेश करता है। प्रबल से प्रबल प्रमाण पर भी अविश्वास करके मिथ्या आशा को अपनी बांहों से जकड़कर तू जब तक सपना टूट न जाए छाती से चिपकाए रहता है।
रीनी भी आज ढेर सारी आशाओं को अपने सीने से चिपकाए बैठी थी। गुमसुम। आशाएं टूट रही थीं। वह मन को समझा रही थी। मन में कई सवाल उठ रहे थे- ' आखिर क्यों राघव ने उसे झूठ बोलकर यहां भेजा?' ' क्या बात थी जिसके लिए राघव को झूठ का सहारा लेना पड़ा?' ' कहीं राघव...?' ' छी...छी...। नहीं...नहीं...।' 'मेरा राघव ऐसा नहीं है। वो मुझे धोखा नहीं दे सकता।' रीनी कुछ सोच समझ नहीं पा रही थी...उसकी बुद्धि कुंद हो गई थी। ' ये उसके साथ क्या हो रहा था?'
इस तरह के हजारों सवालों के चक्रव्यूह से लड़ते हुए रीनी दूसरे दिन सुबह- सुबह शहर जाने के लिए निकल पड़ी- " चाची, आपकी बहुत याद आ रही थी। मेरा मन नहीं लग रहा था, इसलिए अचानक आ गई। अब हालचाल मिल गई। ज्यादा रुकने से पढ़ाई का नुकसान होगा।" रीनी के इस तर्क को काट नहीं पाई चाची। वैसे, वे चाहती ही थी कि कैसे भी करके रीनी नामक ये बोझ उनके सर से उतरे।
बहुत तेजी से चलने वाली बस की रफ्तार आज रीनी को चींटी सरीखी लग रही थी। कई बार वह ड्राइवर पर भड़क भी गई- "अरे भैया...जल्दी करो.. तेजी से चलाओ।" " अरे बहन जी, मैं फुल स्पीड में चला रहा हूँ।" ड्राइवर का उत्तर भी रीनी को संतुष्ट नहीं कर सका। रीनी घर पहुंचने के लिए बहुत उतावली थी.... आखिरकार बस उसके घर से थोड़ी दूर पर स्थित अमृता नगर के बस स्टॉप पर रुकी। रीनी बस से अक्षरशः कूद पड़ी। ऑटो का इंतजार किए बिना ही वह घर की तरफ चल पड़ी।
शाम का प्रस्थान हो चुका था। रात का अंधेरा छाने लगा था, रीनी के मन में भी अंधेरा था पर उसके पैर यंत्रवत अपने घर की दिशा में बढ़ रहे थे। ' अब तक तो राघव भी घर आ गया होगा।' यह सोचते हुए रीनी घर पहुंची। पर ये क्या?
वो चौक गई।
' ये कैसे हो सकता है?'
वो सदमे के मारे दरवाजे की तरफ ताकते हुए जमीन पर ही धड़ाम के साथ बैठ गई।
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