Oops Kolkata - Satya Vyas in Hindi Book Reviews by राजीव तनेजा books and stories PDF | उफ़्फ़ कोलकाता- सत्य व्यास

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उफ़्फ़ कोलकाता- सत्य व्यास

हर इनसान मुख्य रूप से कुछ बेसिक अनुभूतियों जैसे खुशी..दुख..प्रेम..बिछोह..डर और रोमांच से अपने जीवन में कहीं ना कहीं..कभी ना कभी रूबरू होता ही रहता है। इन्हीं अनुभूतियों का कॉकटेल मुझे पढ़ने को इस बार मिला जब मैंने ताज़ातरीन लखपति लेखकों की श्रेणी एवं सूची में शामिल एक लेखक का नवीनतम उपन्यास पढ़ने के लिए उठाया। बकौल प्रकाशक लखपति लेखक के मायने यह कि उनके समग्र लेखन की अब तक कुल मिला कर एक लाख से ज़्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं जो कि आज के इस इंटरनेट के आभासीय समय में, जब मुफ़्त में पढ़ने को इतना कुछ ऑनलाइन फ्री में उपलब्ध है, एक मिसाल तो है ही।

खैर..मैं बात कर रहा हूँ युवाओं में रॉकस्टार सा दर्ज़ा रखने वाले लेखक सत्य व्यास और उनके नए उपन्यास "उफ़्फ़ कोलकाता" की जिसका कलकत्ता याने के कोलकाता से बस इतना ही नाता है कि उपन्यास की कहानी कोलकाता की कवि भारती यूनिवर्सिटी में लॉ की पढ़ाई कर रहे कुछ छात्रों और उनके हॉस्टल के कड़क वार्डन कम प्रोफ़ेसर असगर अली से जुड़ी कुछ ऐसी अजब ग़ज़ब परालौकिक घटनाओं की है जिनकी वजह से नार्मल बिहेव करने वाले छात्रों से ले कर अनुशासनप्रिय वार्डन भी अचानक सबको डराते/हँसाते हुए लड़कियों सा पहन ओढ़ के उन जैसा ही बर्ताव करना शुरू कर देते हैं।

आम बॉलीवुडीय फिल्मों या इस तरह की अन्य आम कहानियों के जैसे ही इस उपन्यास में भी कहानी बस इतनी है कि अपने अपने घरों से दूर, होस्टल में स्वच्छंद रह कर, पढ़ाई/हुड़दंग कर रहे कॉलेज के छात्र पढ़ने के साथ साथ रैगिंग..चुहलबाज़ीयाँ.. शरारतों के साथ साथ अपनी अपनी फैंटेसियों को जीने में भी यकीन रखते हैं। जिसमें इस बार लेखक ने हॉरर के साथ कॉमेडी का तड़का लगा दिया है। उपन्यास की कहानी कहीं कहीं हँसाने और एक आध जगह रौंगटे खड़े करवाने का सफल/असफल प्रयास भी करती है।

मज़ेदार संवादों से लैस इसकी कहानी बीच बीच में कहीं कहीं आपको गुदगुदाती तो कहीं कहीं अचानक से ठहाका लगा औचक ही हँसने पर मजबूर कर देती है। एक जगह कॉलेज वार्डन से पहली बार उर्दू में बात करते हुए मलीहाबादी आमों का जिक्र तथा एक अन्य जगह पर दर्ज़ी के साथ हुई बातचीत तथा बीच बीच में आने वाले द्विअर्थी संवाद काफ़ी मज़ेदार है।

शुरुआती तीन पृष्ठों में कहानी शुरू होती है तोता और मैना के आपसी संवादों से, जिनमें थोड़ी बहस के बाद मैना उसे मर्दों की बेवफ़ाई का उदाहरण देते हुए एक कहानी सुनाने की बात कहती है। जिसमें कोलकाता की कवि भारती यूनिवर्सिटी में लॉ की पढ़ाई कर रहे, फ्लर्टिंग नेचर के, सिद्धार्थ और उसके दोस्त चेतन की बात है और अगले तीन पृष्ठों में सिद्धार्थ की प्रेमिका पूजा के सिद्धार्थ के दोस्त, दीपक के साथ ब्याह होने और उसकी पहली सुहागरात, जो उसने अपने पति नहीं बल्कि प्रेमी सिद्धार्थ के साथ एन अपनी असली याने के जायज़ सुहागरात से पहले मनाने का विवरण है। जिसका हल्का सा शक दूल्हे को भी होते हुए दिखाया गया है।

उसके बाद पूरे उपन्यास से वे शुरुआती तोता मैना के साथ साथ वे दूल्हा दुल्हन ऐसे ग़ायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग मानों कभी उगे ही ना हों। कहानी की विश्वसनीयता के लिए यह ज़रूरी हो जाता है जिन किरदारों को आप शुरू से ले कर चल रहे हैं, उन्हें अंत तक साथ ले कर चलें या फिर कम से कम एक मुक़म्मल..एक वाजिब..एक गरिमामयी अंत तो कम से कम प्रदान करें ही। जो कि इस कहानी से पूरी तरह नदारद है।

एक जगह होस्टल के प्रोफ़ेसर कम वार्डन असगर अली की खटारा मारुति का जिक्र है जो बीच में अचानक से अपना ब्राण्ड बदल कर फिएट हो जाती है। इसके अलावा उपन्यास का मुख्य नायक सिद्धार्थ, जो अपने दोस्त की बीवी, भले ही वो उसकी एक्स प्रेमिका रह चुकी थी, के साथ उसकी सुहागरात से पहले उसकी ही सहमति से सेक्स कर लेता है, वह रसिया..सिद्धार्थ बिना किसी ठोस वजह या ठोकर के अपने आप अचानक बिना कहीं भी किसी जिक्र के एकदम सुधर जाता है और फिर पूरे उपन्यास में खामख्वाह किसी एक रहस्यमयी युवती, मोहिनी का ही बस हो कर रह जाता है। अगर उसे सुधरा हुआ ही दिखाना था तो कोई वाजिब वजह या मन बदलने लायक सॉलिड कारण का बताया जाना ज़रुरी था। अन्यथा अपनी तथा पाठकों की मेहनत को ज़ाया ना करते हुए शुरुआती पृष्ठों को हटा, कुछ कीमती समय एवं चंद कागज़ तो बचाए ही जा सकते थे। अब रही नुक्तों की कमी की बात तो उसकी तरफ़ ना तो ज़्यादातर लेखक और ना ही प्रकाशक ध्यान दे रहे हैं।

लेखक के पिछले लेखन पर गौर करने से पता चलता है कि इन्होंने अपने सभी उपन्यासों में अपने घरों से दूर होस्टल में या फिर किराए के घरों में अकेले रह रहे स्वछंद युवाओं को अपनी कहानी का मुख्य पात्र बनाया है। हाँ.. मूल कहानी की पृष्ठभूमि कॉलेज लाइफ के अलावा कहीं 1984 के सिख दंगे की हो जाती है तो कहीं इनमें छात्र राजनीति मुख्य तड़के के रूप में मुखर होती नज़र आती है। बतौर सजग पाठक एवं खुद भी एक लेखक होने के नाते मुझे लगता है इन्हें अपनी आने वाली रचनाओं में किरदारों एवं कहानी के मामले में विविधता लाने की ज़रूरत है। अपने कथानक में रोचकता की वजह से टाइम पास करने के इच्छुक सतही पाठकों को हालांकि यह उपन्यास निराश नहीं करेगा। इसे एक बार तो पढ़ा ही जा सकता है।

207 पृष्ठीय इस उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक तथा प्रकाशक को अनेकों अनेक शुभकामनाएं।